/hastakshep-prod/media/post_banners/hh6siwlqZrzenKCIelPQ.jpg)
The country was paying the price for foolishness in economic management, Corona became a divine wrath
आर्थिक तौर से जर्जर भारत इस भंवर से कैसे निकलेगा
कोरोना के कारण लॉकडाउन (Lockdown due to corona) के अभी दस दिन हुए हैं इस लॉकडाउन से जो आर्थिक गतिविधियाँ बंद हुई हैं (This lockdown has stopped economic activities) बेरोज़गारी फैली है, खेतियाँ बर्बाद हुई हैं, उनके असर अभी दिखाई भी नहीं दिये हैं, लेकिन देश का जर्जर आर्थिक ढांचा अब पूरी तरह बैठ चुका है। आने वाले दिन कैसे होंगे, यह सोच कर ही रूह काँप जाती है। कोरोना से जो मौतें होंगी उनका प्रभावित परिवार तो कुछ दिनों बाद रो धो कर सब्र कर लेगा लेकिन जो आर्थिक महामारी आने वाली है, उसके असर अगले 25 वर्षों तक दिखाई देंगे।
जरा सोचिये अभी केवल दस दिन हुए हैं और प्रधान मंत्री को जनता से अपने जेवर बेच कर कोरोना से लड़ाई में आर्थिक सहयोग की अपील करनी पड़ी है, सांसदों और विधायकों को क्षेत्र में विकास के लिए जो फंड मिलता था उस पर दो वर्षों के लिए रोक लगा दी गयी है। यह केवल बानगी मात्र है। अभी तो आर्थिक मदद की केवल पहली किस्त ही दी गयी है, आने वाले दिनों में इससे भी सख्त आर्थिक क़दम उठाये जायेंगे। लेकिन सवाल यह है कि जनता से वसूलने की भी एक हद है, गाय को ज्यादा दुहा जाएगा तो फिर वह दूध के बजाए खून देने लगेगी।
देश की आर्थिक बर्बादी का सिलसिला नोट बंदी जैसे मूर्खता पूर्ण क़दम से शुरू हुआ था उसके बाद गलत तरीकं से जीएसटी लागू किया गया, जिसने सभी आर्थिक गतिविधियों को जैसे जाम कर दिया। उस मार से देश उबर नहीं पाया कि सकल घरेलू उत्पाद लगातार नीचे आ रहा है। आज वह सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 4.5% है जबकि खुद बीजेपी सांसद डॉ सुब्रमण्यम स्वामी का कहना है कि मोदी सरकार गलत आंकड़े पेश कर रही है, जीडीपी किसी भी तरह 1.5% से अधिक नहीं है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह स्थिति देश को कहाँ ले जाने वाली है।
देश का खजाना बिलकुल खाली हो चुका है। जीएसटी कलेक्शन की हालत यह है कि अभी तक राज्यों का हिस्सा केंद्र सरकार नहीं दे पायी है, जिससे राज्य सरकारें भी त्राहि-त्राहि कर रही हैं। सरकारी काम चलता रहे इसके लिए सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम या तो निजी हाथों में बेचे जा रहे हैं या सरकार उनमें अपना शेयर बेच रही है। लेकिन यह तो उधार ले के घी पीने वाली बात है। जब तक आर्थिक सरगर्मियां नहीं बढ़ेंगी, डिमांड और उसके साथ प्रोडक्शन नहीं बढ़ेगा, देश की आर्थिक स्थिति सुधर नहीं सकती, लेकिन डिमांड तो तभी बढ़ सकती है जब जनता की खरीदने की ताक़त बढ़ेगी, उसकी जेब में पैसा होगा। सरकार की कोई ऐसी आर्थिक नीति सामने नहीं आई है जिससे डिमांड और प्रोडक्शन बढ़ सके।
सरकार हर सम्भव जगह से धन की उगाही कर चुकी है, यहांतक कि रिज़र्व बैंक से इमरर्जेंसी फण्ड का भी डेढ़ लाख करोड़ रुपया ले लिया है। 45 हजार करोड़ उसके बाद फिर लिया और बाद में फिर दस हजार करोड़ माँगा था, लेकिन अब आर बी आई ने भी हाथ खड़े कर दिए हैं।
अंतराष्ट्रीय बाज़ार में तेल के दाम जमीन पर आ चुके हैं लेकिन मोदी सरकार उन पर टैक्स बढ़ती चली जा रही है और आज यही टैक्स सरकार की आमदनी का बहुत बड़ा ज़रिया है। अगर ओपेक देश तेल के दाम बढ़ाने का फैसला कर लें, क्योंकि ईरान, सऊदी अरब और अन्य कई तेल उत्पादक देश corona के कर्ण आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं, तो भारत की अर्थ व्यवस्था चरमरा जायेगी।
देश आर्थिक प्रबन्धन में मूर्खताओं की कीमत तो अदा ही कर रहा था की corona दैवीय प्रकोप बन कर आ गया। दुनिया का हर देश इस महामारी से जूझ रहा था, लेकिन 20 मार्च तक हमारी मोदी सरकार बंसुरी बजा रही थी। राहुल गाँधी ने 12 फरवरी को ही देश को चेताना शुरू कर दिया था, दुनिया भर से चिंताजनक खबरें भी आ रही थीं, लेकिन केंद्र सरकार और शासक दल को विपक्ष के विधायक खरीदने और अपनी सरकार बनाने के काम के अलावा कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। 22 मार्च तक यह खेल चला और अचानक 24 मार्च को मोदी जी रात 8 बजे फिर टीवी पर नमूदार होते हैं और देश में नोटबंदी की ही तरह अचानक लॉकडाउन का एलान कर देते हैं, इससे जनता ख़ास कर मजदूर किसान और गरीबों पर क्या मार पड़ी, इसका वर्णन करने के लिए अलग से लेख लिखना पड़ेगा।
अब एक ओर देश एक महामारी और विपदा में फंसा दूसरी ओर देश का खजाना खाली है। ऐसे ही समय के लिए रिज़र्व बैंक का इमरजेंसी फंड काम आता, लेकिन रिज़र्व बैंक तो जर्जर हो चुका है, जिसके जर्जर होने से अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से क़र्ज़ मिलना भी मुश्किल हो सकता है।
देश आर्थिक तौर से तबाह हो चुका है, लेकिन इसका समाजी ताना तबाह करने की सरकार मीडिया और शासक दल की कोशिशें चरम पर हैं जबकि आवश्यकता सामाजिक और भावनात्मक एकता द्वारा इस चैलेंज का मुकाबला करने की है।
उबैद उल्लाह नासिर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)