/hastakshep-prod/media/post_banners/y8v1TCIEXtn0Um8gpQ6h.jpg)
सपा-बसपा का गठबंधन भाजपा को नहीं हरा पाया था
2019 में उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा का गठबंधन हुआ था जो भाजपा को हरा नहीं पाया और अंततः फेल हो गया.
हादसा नहीं था सपा-बसपा गठबंधन का फेल होना
हम इस गठबंधन (SP-BSP alliance) के फेल होने के घटनाक्रम में नहीं जाना चाहते. गठबंधन का फेल होना बहुत ही स्वाभाविक था और हम उसे हादसा नहीं मानते.
राजनीतिक स्वार्थ के लिए बनाया गया बेमेल गठबंधन था सपा-बसपा गठबंधन
भारतीय वर्ण व्यवस्था के पदानुक्रम में जीने वाले समाज के बीच यह गठबंधन स्वाभाविक ही नहीं था. यह एकदम बेमेल गठबंधन था जो राजनीतिक स्वार्थ के लिए बनाया गया था. इसकी सामाजिक पृष्ठभूमि बहुत कमजोर और खोखली थी.
वैसे जिन सामाजिक-सांस्कृतिक, सियासी सवालों पर सपा बसपा का यह गठबंधन फेल हुआ था वह सवाल आज भी जिंदा है. इस बात को कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं है कि सपा और बसपा दोनों तरफ से उन सवालों को हल करने की कभी ईमानदार कोशिश नहीं की गई.
यही नहीं, मायावती ने तो गाहे-बगाहे अपने बयानों से अपने कोर वोटर को यह जरूर सिखाया कि उन्हें पिछड़ी जातियों के राजनीतिक वर्चस्व पर कैसे संदेह करना है और उनका सियासी उभार किस तरह से उनके लिए नुकसानदेह हो सकता है.
दूसरी ओर उत्तर प्रदेश में दलित बिरादरी के सत्ताई उत्पीड़न पर अखिलेश यादव चुप रहे जैसे उनके लिए यह कोई घटना नहीं है.
और इसीलिए दलितों और पिछड़ों के बीच सांस्कृतिक और जातीय गैप (Cultural and caste gap between Dalits and Backward) के सवाल आज भी जिंदा हैं. जब वह सवाल जिंदा है तो फिर सपा को बसपा का या फिर दलितों का कोर वोट कैसे मिल सकता है?
जो लोग ऐसा मान रहे हैं कि बसपा के कमजोर होने का लाभ सीधे अखिलेश यादव को मिल जाएगा वह सियासत में भ्रम के शिकार हैं. इस तरह का विश्लेषण बहुत ही सतही विश्लेषण है जो यह बताता है कि विश्लेषक के पास वर्ण व्यवस्था में में जो उत्पीड़न होता है उसकी कोई समझ नहीं है.
कांशी राम की पूरी पॉलीटिकल लाइन से ओतप्रोत बसपा का वोटर यदि बसपा में सेफ महसूस नहीं करेगा तो वह भाजपा में जाकर सेफ महसूस करेगा, क्योंकि बसपा ने अपने राजनीतिक जीवन के एक लंबे समय में दलितों के बीच हिंदुत्व की भावना को बहुत मजबूत किया है जिसे कुछ दिन पहले ही सतीश चंद्र मिश्रा ने दलितों मे धार्मिक भावना के उभार के बतौर स्वीकार किया है. जाहिर सी बात है कि अखिलेश यादव दलितों में हिंदुत्व की भावना के उभार को संतुष्ट नहीं कर सकते.
इसलिए जिन्हें यह लगता है कि बसपा के कमजोर होने से सपा मजबूत होगी वह भ्रम में हैं और मैं एकदम इस एनालिसिस से सहमत नहीं हूं.
जब तक दलितों के बीच हिंदुत्व के जहर को निकालने का काम नहीं किया जाएगा तब तक दलितों का वोट किसी और पार्टी को मिलना संभव नहीं है.
एक बात और भी है कि योगी सरकार द्वारा दलितों के उत्पीड़न की किसी भी घटना क्रम में अखिलेश यादव पीड़ित लोगों से खुद क्यों नहीं मिले? फिर दलित समुदाय का वोट समाजवादी पार्टी को किस आधार पर मिलना चाहिए? सिर्फ इसलिए कि उनका सामाजिक पायदान में चौथे स्थान पर होने के नाते उन्हें पिछड़ों के पीछे चलना चाहिए.
और जब उन्हें पीछे ही चलाना है तो दलित समुदाय ब्राह्मणों के पीछे क्यों नहीं चल सकता? पिछड़ों के पीछे चलने पर उन्हें कौन सा स्वर्ग मिल जाएगा?
और इसलिए मेरा अपना यह निष्कर्ष है कि अखिलेश यादव और उनके समर्थक बहुत भ्रम में हैं. सपा UP में वापस नहीं आ रही है.
हरे राम मिश्र
(लेखक उत्तर प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ पदाधिकारी और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)