लॉकडाउन क्यों गलत नीति है - स्वीडिश महामारीविद् व चिंतक जोहान गिसेके की टिप्पणी

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hastakshep
18 Sep 2020
लॉकडाउन क्यों गलत नीति है - स्वीडिश महामारीविद् व चिंतक जोहान गिसेके की टिप्पणी

स्वीडिश महामारीविद् व  चिंतक जोहान गिसेके की टिप्पणीएक अदृश्य वैश्विक महामारी

The invisible pandemic by Johan Giesecke in Hindi

Why lockdowns are the wrong policy - Swedish expert Prof. Johan Giesecke

<स्वीडन के महान महामारीविद् व  चिंतक जोहान गिसेके (Johan Giesecke Coronavirus) और उनके सहयोगी एंडर्स टेगनेल कोरोना-विजय के अप्रतिम नायक के रूप में उभरे हैं। इनकी ही सलाह पर विश्व स्वास्थ संगठन (डब्लूएचओ)  के दवाब के बावजूद स्वीडन सरकार ने लॉकडाउन लगाने इंकार कर दिया था। स्वीडन के इस कदम ने न सिर्फ लोगों को अफरातफरी से होने वाली मौंतों से बचाया, बल्कि उनकी अर्थव्यवस्था भी आगे बढ़ रही है।

डब्लूएचओ ने भी ‘किंतु-परंतु’ के साथ स्वीकार किया है कि स्वीडन का मॉडल, कोरोना महामारी के मामले में दुनिया के लिए आदर्श हो सकता है।

70 वर्षीय जोहान गिसेके स्टॉकहोम स्थित प्रतिष्ठित मेडिकल यूनिवर्सिटी ‘करोलिंस्का’ में प्रोफेसर रहे हैं तथा स्वीडन की सार्वजनिक स्वास्थ्य एजेंसी के सलाहकार हैं। वे विश्व स्वास्थ्य संगठन के संक्रामक ख़तरों के लिए रणनीतिक और तकनीकी सलाहकार समूह के भी सदस्य हैं।

स्वीडन मॉडल (Professor Johan Giesecke Coronavirus) के संदर्भ में उनके वक्तव्य आजकल दुनिया भर के मीडिया संस्थानों में उद्धृत किए जा रहे हैं। प्राय: सभी प्रमुख टीवी चैनलों और समाचार-पत्रों ने उनके इंटरव्यू प्रसारित किए हैं। टीवी चैनलों पर जोहान गिसेके की स्पष्टवादिता, आत्मविश्वास और लोकतांत्रिक जीवन-दर्शन देखते बनता है।

गिसेके ने 5 मई,  2020 को प्रसिद्ध मेडिकल-जर्नल ‘द लान्सेट’ में “The invisible pandemic” शीर्षक से एक टिप्पणी (The invisible pandemic - The Lancet) लिखी थी। उनकी यह टिप्पणी महामारी के  प्रति उस संतुलित सोच को सामने लाती है, जिससे हमें भारतवासियों को भी अवश्य परिचित होना चाहिए।

इस टिप्पणी का हिंदी अनुवाद प्रमोद रंजन ने जोहान गिसके की अनुमति से किया है  >

एक अदृश्य वैश्विक महामारी

- जोहान गिसेके

कोरोना वायरस को लेकर हमारे देश स्वीडन की निश्चिंत भाव की नीति से दुनिया के अनेक देश और उनके मीडिया संस्थानों के सदस्य बहुत आश्चर्यचकित हैं। यहां स्कूल और अधिकांश कार्यस्थल खुले हैं और पुलिस-अधिकारी सड़कों पर यह देखने के लिए खड़े नहीं हैं कि बाहर निकलने वाले लोग किसी आवश्यक कार्य से जा रहे हैं, या यूं ही हवा खाने निकले हैं।

अनेक कटु आलोचकों ने तो यहां तक कहा कि स्वीडन सामूहिक-इम्युनिटी विकसित करने के चक्कर में अपने (बुज़ुर्ग) नागरिकों का बलिदान करने पर आमादा है।

यह सच है कि स्वीडन में इस बीमारी से मरने वालों की संख्या हमारे निकटतम पड़ोसी डेनमार्क, नार्वे और फ़िनलैंड से ज्यादा है। लेकिन मृत्यु दर ब्रिटेन, स्पेन और बेल्जियम की तुलना में कम है। (इन सभी देशों में कड़ा लॉकडाउन है-अनुवादक)

अब यह भी स्पष्ट हो चुका है कि सख्त लॉकडाउन, केयर-होम में रहने वाले बुजुर्गों और अन्य कमजोर लोगों को नहीं बचा पाता है। जबकि इस लॉकडाउन को इस कमजोर तबके को बचाने के लिए डिजाइन किया गया था।

ब्रिटेन के अनुभवों की तुलना अन्य यूरोपीय देशों से करने पर यह स्पष्ट होता है कि लॉकडाउन से कोविड-19 की मृत्यु दर में कमी भी नहीं आती है।

पी.सी.आर. टेस्ट और अन्य पक्के अनुमानों से यह संकेत मिलता है कि स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में  5 लाख से अधिक लोगों को कोविड-19 का संक्रमण हो चुका है, जो कि स्टॉकहोम की कुल आबादी का 20 से 25 फीसदी है (हैनसन डी, स्वीडिश पब्लिक हेल्थ एजेंसी , निजी संचार)।

इन में से 98-99 प्रतिशत या तो इस बात से अनजान हैं या फिर अनिश्चित हैं कि उन्हें कोरोना का संक्रमण हुआ है। इनमें से कुछ ही ऐसे थे, जिनमें कोरोना की बीमारी का कोई मुखर लक्षण था; और जिनमें ऐसा लक्षण था भी, वह इतना भी गंभीर नहीं था कि वे अस्पताल जाकर जांच करवाने की जरूरत महसूस करते। कुछ में तो कोई लक्षण ही नहीं था।

अब तो सीरोलॉजी-टेस्ट से भी उपरोक्त तथ्यों की ही पुष्टि हो रही है।

इन तथ्यों ने मुझे निम्नलिखित निष्कर्षों तक पहुँचाया है।

(दुनिया के) सभी लोग कोरोना वायरस के संपर्क में आएंगे और अधिकांश लोग इससे संक्रमित हो जाएंगे।

कोविड -19 दुनिया के सभी देशों में जंगल की आग की तरह फैल रहा है। लेकिन हम यह नहीं देख रहे हैं कि अधिकांश मामलों में इसका संक्रमण नगण्य या शून्य लक्षण वाले कम उम्र के लोगों से अन्य लोगों में होता है। जिन अन्य लोगों को यह संक्रमण होता है, उनमें भी इसके नगण्य लक्षण ही प्रकट होते हैं।

यह एक असली महामारी है, क्योंकि यह हमें  दिखाई देने वाली सतह के नीचे-नीचे चल रही है। शायद कई यूरोपीय देशों में अब यह अपने चरम पर है।

ऐसे काम बहुत कम हैं, जो हम इसके प्रसार को रोकने के लिए कर सकते हैं। लॉकडाउन संक्रमण के गंभीर मामलों को थोड़ी देर के लिए रोक सकता है, लेकिन जैसे ही एक बार प्रतिबंधों में ढील दी जाएगी, मामले फिर से प्रकट होने लगेंगे।

मुझे उम्मीद है कि आज से एक वर्ष पश्चात् जब हम हर देश में कोविड -19 से होने वाली मौतों की गणना करेंगे तो पाएंगे कि सभी के आंकड़े समान हैं, चाहे उन्होंने लॉकडाउन किया हो, या न किया हो।

कोरोना के संक्रमण के ग्राफ का वक्र समतल (Flatten the Curve) करने के लिए उपाय  किए जाने चाहिए, लेकिन लॉकडाउन तो मामले की गंभीरता को भविष्य में प्रकट होने के लिए सिर्फ आगे धकेल भर देता है। लॉकडाउन से संक्रमण को रोका नहीं जा सकता।

यह सच है कि देशों ने इसके प्रसार को धीमा किया है, ताकि उनकी स्वास्थ्य प्रणालियों पर अचानक बहुत ज्यादा बोझ न बढ़ जाए, और हां, इसकी प्रभावी दवाएं भी शीघ्र ही विकसित हो सकती हैं, लेकिन यह महामारी तेज है, इसलिए  उन दवाओं का विकास, परीक्षण और विपणन शीघ्र करना होगा।

इसके टीके से भी काफी उम्मीदें हैं। लेकिन उसे बनने में  अभी लंबा समय लगेगा और इस वायरस के संक्रमण के प्रति लोगों के इम्यून तंत्र की अस्पष्ट प्रतिक्रिया (Unclear Protective Immunological Response to Infection) के कारण, यह निश्चित नहीं है कि टीका प्रभावी होगा ही।

सारांश में कहना चाहूंगा कि कोविड -19 एक ऐसी बीमारी है, जो अत्यधिक संक्रामक है और समाज में तेजी से फैलती है। अधिकांश मामलों में यह संक्रमण लक्षणहीन होता है, जिसकी ओर किसी का ध्यान नहीं जाता, लेकिन यह गंभीर बीमारी का कारण भी बनता है, और यहां तक कि मृत्यु का भी।

हमारा सबसे महत्वपूर्ण कार्य इसके प्रसार को रोकने की कोशिश करना नहीं होना चाहिए। यह एक निरर्थक कार्रवाई होगी। इसकी जगह हमें इस पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए कि इसके शिकार हुए दुर्भाग्यशाली लोगों की अच्छी देखभाल कैसे की जाए। ” (- द लासेंट, ऑनलाइन फर्स्ट, 5 मई, 2020)

<यह टिप्पणी प्रमोद रंजन की शीघ्र प्रकाश्य कोविड-19 पर केंद्रित पुस्तक में संकलित है>

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