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यूपी में भाजपा की बढ़ती हुई बेचैनी का अर्थ : चारों खाने चित्त होने के लिए अभिशप्त है भाजपा

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यूपी को लेकर भाजपा की बेचैनी बुरी तरह से बढ़ गई है। अपने सारे सूत्रों से वह यह जान चुकी है कि चीजें अभी जैसी है, वैसी ही छोड़ दी जाए तो चुनाव में उसके परखच्चे उड़ते दिखाई देंगे।

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हिसाब से तो जनतंत्र में चुनावी हार या जीत राजनीतिक दलों के जीवन में लगे ही रहते हैं। इसे लेकर उनमें एक व्याकुलता भी रहती है। पर कोई भी दल इन्हें या इनके संकेतों को कैसे ग्रहण करता है, इससे उसके चरित्र के कई ऐसे पहलू खुल कर सामने आते हैं, जो अन्यथा सामान्य परिस्थितियों में छिपे रहते हैं। अपने बाहर से, लोगों से आने वाले संकेतों को कोई कैसे ग्रहण करता है, यह हमेशा इस बात पर हमेशा निर्भर नहीं करता है कि लोग आपसे कैसे और क्या उम्मीद करते हैं, बल्कि इसका बड़ा संबंध आपके अपने अहम् से जुड़ा होता है। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि आप चीजों को, अन्य को किस रूप में देखना चाहते हैं।

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भाजपा जैसे दल का चुनाव के वक्त कुछ अतिरिक्त व्यग्र होना और भी स्वाभाविक हो जाता है क्योंकि उसे खुद ही नहीं पता होता है कि लोग उसे किस रूप में देख रहे हैं। वह धर्म, जाति, जनतंत्र, तानाशाही, क़ानूनी, ग़ैर-क़ानूनी क्रियाकलापों के एक साथ इतने सारे नक़ाब पहन कर रहता है कि उसे पता नहीं रहता है कि लोग उसे उसकी किस सूरत में देख रहे हैं। इसीलिए चुनावों के वक्त वह चरम जातिवाद से लेकर चरम सांप्रदायिकता के इतने सारे प्रयोग एक साथ करती दिखाई देती है कि किसी साधारण व्यक्ति को भी उसके इस आचरण में दिशाहीनता और बदहवासी के सारे लक्षण साफ दिखाई देने लगते हैं। उसका बहुरूपियापन ऐसे समय में खुद उसके लिए ही घातक साबित होने लगता है।

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भाजपा को अक्सर अपने चुनाव प्रचार पर जितना भरोसा रहता है, उससे कम भरोसा सीबीआई, ईडी, आईटी आदि सरकारी जाँच और दमन-तंत्र के नंगे प्रयोग पर नहीं रहता है। उसे यह होश ही नहीं रहता है कि उसकी ऐसी सारी उठापटक लोगों को उसकी ताक़त का नहीं, उसकी कमजोरी और कातरता का संकेत देती है। चारों ओर से उसके होश गँवा देने के क़िस्से सुनाई देने लगते हैं। यह उसकी बदनामी और पराजय का एक अतिरिक्त कारण साबित होता है।

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अभी चुनाव आयोग ने यूपी में शिक्षा से जुड़े कर्मियों को चुनाव के काम से अलग रखने का निर्णय लिया है। कहा जाता है कि योगी सरकार ने पिछले पाँच सालों में इन शिक्षाकर्मियों को इतना सताया है कि अब भाजपा को इनके पलटवार का डर सताने लगा है। आयोग के इस निर्णय ने वहाँ के चुनाव के आयोजन काम को अब काफ़ी रहस्यमय बना दिया है। यहाँ तक सवाल उठने लगे हैं कि आख़िर चुनाव आयोग वहाँ किन लोगों को लगा कर चुनाव कराने वाला है ? लोग यह खोजने लगे हैं कि सरकारी तंत्र में ऐसा कौन सा बड़ा तबका है जो इस बीच पूरी तरह से आरएसएस के पिट्ठुओं के समूह में बदल चुका है।

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दूसरी ओर, हमेशा की तरह आरएसएस ने अब ऐन चुनाव के वक्त अपने विराट रूप के आतंक का लाभ उठाने के लिए अपनी ताक़त को बेहिसाब बढ़ा-चढ़ा कर पेश करना शुरू कर दिया है। एक ओर सच्चाई तो यह है कि भाजपा को वहाँ प्रधानमंत्री की सभाओं के लिए भीड़ जुटाने के लिए सरकारी मशीनरी पर निर्भर रहना पड़ता है, वहीं दूसरी ओर प्रचारित यह किया जा रहा है कि आरएसएस अपने बीस लाख निष्ठावान स्वयंसेवकों को चुनाव में उतार रहा है; भाजपा प्रत्येक सीट के लिए सौ करोड़ से पाँच सौ करोड़ खर्च करने जा रही है।

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पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने बाक़ायदा अपनी दैनिक वार्ता का एक पूरा एपीसोड भाजपा की इसी आतंककारी माया का चित्र खींचने में खर्च किया है।

इसके अलावा अब यह भी सुना जा रहा है कि आरएसएस ने यूपी में अपनी ‘गुजराती सेना’ को भी झोंक देने का फ़ैसला किया है। ‘महाबली’ अमित शाह को लड़ाई की कमान सौंपी जा रही है।

सचमुच, ग़नीमत है कि भारत की सेना में गुजरात के लोग नहीं के बराबर हैं, न कोई गुजरात रेजिमेंट है। वर्ना इनकी हुंकारों को देख कर तो लगता है कि अगर इनका वश चलता तो ये एक आक्रामक, गुजराती नाज़ीवाद की दिशा में, गुजरात की सेना से देश के सभी राज्यों को अपना गुलाम बनाने की दिशा में भी बढ़ सकते थे।

बहरहाल, वे जितनी भी पैंतरेबाज़ी और शक्ति प्रदर्शन  क्यों न कर लें, इसमें बहुत कुछ वास्तव में उनकी शुद्ध खामखयाली है, एक कोरी फैंटेसी। हम जानते हैं कि आदमी की बेचैनी और व्यग्रता तथा उसकी फैंटेसी की संरचना में कोई फ़र्क़ नहीं हुआ करता है। हमने पश्चिम बंगाल में खड़े-खड़े वाम मोर्चा की पराजय के नज़ारे को देखा है। वह पराजय उस समय हुई थी जब राज्य की विधानसभा में वाम मोर्चा को उसके इतिहास की सबसे अधिक सीटें मिली हुई थी। तब वाम नेताओं को हार के सारे क़यासों के अंदर से भी जीत का कमल ही खिलता हुआ दिखाई देता था। ‘महाबली’ अमित शाह की शक्ति की सच्चाई को तो बंगाल पहले ही जगज़ाहिर कर चुका है।

यूपी में भाजपा की बेचैनी के सारे लक्षण और अपनी ताक़त के बारे में किए जा रहे उसके सारे दावों के बीच से अगर कोई एक सच्चाई ज़ाहिर हो रही है तो वह यही है कि वहां इस बार भाजपा का बुरी तरह से पराजित होना तय है। वह चारों खाने चित्त होने के लिए अभिशप्त है।

-अरुण माहेश्वरी

Arun Maheshwari - अरुण माहेश्वरी, लेखक सुप्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक, सामाजिक-आर्थिक विषयों के टिप्पणीकार एवं पत्रकार हैं। छात्र जीवन से ही मार्क्सवादी राजनीति और साहित्य-आन्दोलन से जुड़ाव और सी.पी.आई.(एम.) के मुखपत्र ‘स्वाधीनता’ से सम्बद्ध। साहित्यिक पत्रिका ‘कलम’ का सम्पादन। जनवादी लेखक संघ के केन्द्रीय सचिव एवं पश्चिम बंगाल के राज्य सचिव। वह हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।

Arun Maheshwari - अरुण माहेश्वरी, लेखक सुप्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक, सामाजिक-आर्थिक विषयों के टिप्पणीकार एवं पत्रकार हैं। छात्र जीवन से ही मार्क्सवादी राजनीति और साहित्य-आन्दोलन से जुड़ाव और सी.पी.आई.(एम.) के मुखपत्र ‘स्वाधीनता’ से सम्बद्ध। साहित्यिक पत्रिका ‘कलम’ का सम्पादन। जनवादी लेखक संघ के केन्द्रीय सचिव एवं पश्चिम बंगाल के राज्य सचिव। वह हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।

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