सरकार की प्राथमिकताओं मजदूर कहीं है ही नहीं
The nexus of governments and industrialists responsible for the present plight of workers
The government’s priorities are not workers anywhere
मजदूरों का सब्र का बाँध अब टूट चुका है। कई राज्यों से मजदूर पैदल ही अपने घरों के लिए निकल पड़े हैं। रास्ते में जगह जगह उन्हें रोका भी जा रहा है। कई स्थानों पर पुलिस ने लठियाँ भाँज कर मजदूरों को रोकने की कोशिश की है। जिन मजदूरों को एक से अधिक राज्यों की सीमा पार कर अपने गृह राज्य पहुंचना है उनकी दिक्कतें औरों के मुकाबले अधिक हैं। ऐसे भयावह दृश्य दुनिया में कहीं नहीं हैं।
इन्हीं दिक्कतों के कारण मजदूर जंगली या पहाड़ी क्षेत्रों से राज्यों की सीमा पार करने की कोशिश करते हैं। महराष्ट्र से ऐसे ही क्षेत्रों से निकलने के प्रयास में मजदूरों के पालघर के पास पुलिस द्वारा पीटे जाने की खबर है।
बताया जाता है कि मजदूरों के घरों की तरफ पलायन को रोकने के लिए उद्योगपतियों का सरकारों पर दबाव है। गुजरात और कई अन्य राज्यों से घरों के लिए निकल पड़े मजदूरों को उत्तर प्रदेश की सीमा पर रोक लिया गया है। उनमें पास हासिल कर यात्रा शुरू करने वाले मजदूर भी शामिल हैं।
मजदूरों के रास्तों को इस तरह से अवरुद्ध करने से ही औरंगाबाद जैसी रेल दुर्घटना घटी थी। पुलिस के भय के कारण ही वे रेल की पटरी के रास्ते का चयन करने को विवश हुए थे।
उद्योगपतियों के मुनाफे का लालच मजदूरों का जान का काल बन रहा है और इस मामले में सरकार पूरी तरह उद्योगपतियों के साथ खड़ी है।

More governments are interested in wooing the industrialists than the interest of the workers.
सरकार की प्राथमिकता में मजदूर कहीं नहीं दिखता। कोरोना काल के पश्चात अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण के लिए मजदूर के खून पसीने की जरूरत तो है लेकिन उसके मरने जीने से सरकार को कितना सरोकार उसे वर्तमान परिदृश्य में साफ देखा जा सकता है। मजदूरों के हित से अधिक सरकारों को उद्योगपतियों को लुभाने में दिलचस्पी है। जिन श्रम कानूनों से मजदूरों को थोड़ा बहुत संरक्षण मिल हुआ था सरकार उसे एक एक करके खत्म कर रही है।
मसीहुद्दीन संजरी
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