पैबंद की हँसी : क्यूँ हम लड़कियों के हिस्से में अपने पूरे खेत कभी नहीं आते ?

author-image
Guest writer
15 Oct 2022
पैबंद की हँसी : क्यूँ हम लड़कियों के हिस्से में अपने पूरे खेत कभी नहीं आते ?

पैबंद की हँसी

मैंने   

जितना भी

लिखा

वो सब

तुम्हारे लिये ..

जितना और लिक्खूंगी

वो भी तुम्हारा.....

श्रीजा,

कैप्टन नवनीत खोसला

सफ़हों पर बिखरे

शब्दों के

पहले फूल

आपको समर्पित

माँ, पिताजी

चलो यहीं से शुरू करती हूँ। माँ भी अजीब थी। हमेशा सबसे कहती थी, मेरी बेटी किताब लिखेगी, जैसे अमिताभ बच्चन ने लिखी थी, फ़िल्म ‘बाग़वान’ में और उसी तरह ख़ूब नाम कमायेगी। माँ की इस इतराहट का आधार मेरी समझ के पार था। मैं माँ पर बागवान फ़िल्म का असर मान मन ही मन हँसती और सोचती- माँ तो माँ होती है, हर आकाशीय ऊँचाई पर बग़ैर सीढ़ी अपना ही बच्चा चढ़ाती आई है, फलक तक से उसने मायके के रिश्ते जोड़ रखे हैं, चाँद को मामा माँ ने ही बनाया। मगर कमाल है, हैरान हूँ, कि मेरी माँ ने यह दिन मन की दूरबीन से सालों पहले ही कैसे देख लिया, जो मुझे आज दिख रहा है।

अपना सपना सच करके माँ, अब ख़ुद सपना बन गयी।

मेरी माँ के सपनों रची किताब की एक कविता तुम पढ़ लेना।

अपनी बात

एय हिन्दी, कभी सोचा ना था, कि तुम यूँ गले आ लगोगी और इक हैरानगी से मैं टुकुर-टुकुर तकूँगी, सूरत तुम्हारी। खींच कर भरूँगी साँस कि माज़ी की महकती गलियों से पा सकूँ इस अत्र का पता। उँगलियाँ हर्फों पर फिरेंगीं, आँखे बेचैनी से तलाशेंगीं मायने उनके, और धुँधली आँखों से साहित्य की गली के मुहाने खड़ी मैं किताब दर किताब जोड़ती फिरूँगी सिरे कि तेरे बारे में किसने क्या लिखा, कहा।

कभी सोचा ना था कि तुम्हारी तमाम मात्राएँ, बिंदिंया लगाये, अलंकार छंदों को साथ लिये क़लम की सिम्त, हसरतों से देखेंगीं। चाह होगी, काग़ज़ों की सफेद ज़मी पर नीली स्याही से खिला दूँ हर्फ़ों के फूल।

पहली किताब का नशा अलग ही नशा होता है ,जैसे पहला पहला इश्क़ चढ़ता है, तो दुनिया गुलाबी रंग में रंग जाती है, धनक के रंग वाले ख़्वाब, पलकों की परतों में उतरने लगते हैं, मन सतरंगी सपनों के आसमान पर तरता है, पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते सब कुछ नया नया धुला धुला सा ....

यूँ तो मैं बचपन से ही अलग मिज़ाज की थी। सपनों पर पाँव रखकर चलती थी, मगर मेरे सपनों का ना कोई आसमान था ना कोई ज़मीन, सब हवा के महल में रहते, क्योंकि हक़ीक़त की ज़मीन पर मेरे सपनों के लिये कोई जगह नहीं थी।

मैं इक ऐसे परम्परागत परिवार में जन्मी थी जहाँ लड़कियों के लिये सपने परिवार वाले अपनी आँखों से देखते, वहाँ मेरा सपने देखना सहमी-सहमी माँ को हमेशा डराता था, वो डरी-डरी सी नसीहतें देती और जब मैं क्यों भरे सवाल करती तो वो और डर कर चुप हो जाती।

किसी भी डर से परे, मैंने क्षमताओं में रंग भरने के लिये ब्रश उठाना शुरू किया, जानते हुए कैनवास काला है, हर रंग छुप ही जाना है, मगर विद्रोह था, मन में ज़िद थी। मुझे अपने सपनों के लिश्कते जुगनू किसी आसमान पर तो टाँगने ही थे। ज़िद से पढ़ना, ज़िद से बाहर निकलना, मैं बँधें पैरों से इक रेस में थी, और फर्स्ट आना चाहती थी और तभी से मन विरूद्ध परिस्थिति के ग़ुस्से में मैं काग़ज़ों के कलेजे पर क़लम चुभोने लगी।

...और यूँ ही निरन्तर कलम की नोंक से दीवारें कुरेद-कुरेद कर ताज़ी हवाओं के सुराख़ बना ही लिये थे। माहौल भी कुछ नरम पड़ने लगा कि ब्याह में बँधने का वक़्त आ गया। नये संसार में, सपनों में रंग भरने के, सपने देखने लगी मैं। लगा कि नयी जमीन पर ख़ूब पनपेगी ख़्वाबों की यह खेती, मगर वहाँ की धूप तल्ख़ थी। सपनों की सारी फ़सल झुलस गयी। मैं समझ ही नहीं पायी कि वो ज़मीन कम उपजाऊ थी या यह ज़मीन बंजर ...

क्यूँ हम लड़कियों के हिस्से में अपने पूरे खेत कभी नहीं आते ?

क्यूँ हमारे हिस्से में रेहन पड़ी जमीन है, जिसे ता उम्र जोतने के बाद भी फ़सल अपनी नहीं होती। मगर कमबख़्त आस आसानी से कहाँ मरा करती है। ख़िलाफ़ हवाओं में सीधा खड़ी होने की कोशिशों में मैं मन के गाँव को हौले-हौले शहर में तब्दील होते देख रही थी।

तमाम हरे मौसमों के कलेजे पर उग रही थी इक नयी इमारत, बदलाव बड़ा था, कई कोमल भाव कटे। मिट्टी से जड़ें उखड़ीं तो गर्द-गर्द हुआ मौसम। मगर इक मासूम गाँव पर आख़िरकर शहर हावी हो ही गया। इक देहाती चिड़िया, बग़ैर शज़रों वाले शहर में, बिजली की नंगी तारों पर बैठ, रंग बिरंगी इमारतों को बुझे मन से देखते-देखते, मेंहदी के गुल बूटों के गीत, भुला बैठी।

बाद वक़्त के वफ्फे के गाँव से इक मौसम लिवाने आया। बाद बरसों के जब मैं वापस मुड़ी तो सामने सूखी तरेड़ पड़ी ज़मीन थी, कविताओं के गाँव उजड़ चुके थे, हरे-भरे मौसमों की गली के मुहाने जहाँ परेबा मेघ सी फिरा करती थी मैं, वहाँ के दरख़्तों के जिस्म पर नुकीले काँटे उगे थे, सोचा आँखों के जल से सींचूँ, तो काग़ज़ों पर रेत का तूफ़ान उठा। थर्राये पपड़ाये मन का हर अक्षर बूँद सा चट कर बुझ गया, तभी से मन्नतों में बारिशें बाँध कर मैं बस भाव पूजने लगी, कि इक दिन इक घन पिघला और सफहों की ज़मीन कुछ नम हुई, उठी सौंधी महक संग आखर के तुख्मों ने अँगड़ाई ली। मैंने फिर से सपनों की ज़िंदगी शुरू कर दी ....

उन दिनों जब कभी क़लम उठाई काग़ज़ों पर दर्द की नीली स्याही से, हर बार नीला फूल खिला, क्यूँ ? उँगलियाँ सवाल उठाने लगीं, मगर आँखें चुप रहीं। चलते-चलते कई बार क़लम की नोंक पर बादल भी उतरे और जा बरसे मन के गाँव में, तो मैं रोक भी नहीं पायी ख़ुद का भीगना। अक्सर ही मैं, गाँव के भीगे-भीगे मौसम चुराने लगी, क़लम की नोंक पे खिलना चाहते थे। मौसमों के फूल मगर लबों पर थी पैबंद की हँसी ...

शहर बीत रहा था

मुझमें, थी कोशिशें मुझे रिझाने की मगर आदत से मजबूर मेरी आँखें शहर की चमकती इमारतों की टाइलों से फिसलकर पुलिया किनारे बने घरों के भीतर मुफ़लिसी खंगालतीं।

फुटपाथों पर चमकते डिवाइडरों पर लगे हाईलाइटर की बजाय, मैं सर्दियों की रात में ठिठुरते, गूदढ़ ओढ़े लोग देखती।

सड़कों के फोरलेन होने पर शहर मुझे अपने कंधों पर मैट्रो सिटी के तमग़े दिखाता और मैं उसे, दरख़्तों के क़लम सर, बिना लहू के छितरी शाख़ों के बदन से लिपटी, मरी-मरी सी पत्तियाँ .....

चिड़ियों के घरौंदे उजड़ने का ग़म मुझे अपने घर उजड़ने जैसा महसूस होता।

तरक़्क़ी की क़वायदों में तालाब पाटने पर मरते हुए कँवल की आँखों से रिसता हुआ दर्द मुझे बेचैन करता, तो शहर मखौल उड़ाता, तपिश के मौसमों में, बिजली की तारों पर चोंच फैलाये चिड़ियों की प्यास मेरी क़लम की नोंक पर आकर ख़ुद को लिख रही थी। अख़बार में रेप की स्याह मुँह वाली ख़बरें मुझे कस के निचोड़ रही थीं, मेरी तमाम कसमसाहटों को, कहने का ज़रिया बना गूगल से दो बार सम्मानित ऑन लाइन पोर्टल हस्तक्षेप।

हस्तक्षेप ने मुझे स-सम्मान ना केवल छपने की जगह दी, वरन सहसंपादिका का पद भी दिया।

अमर उजाला काव्य ने भी मेरी कई रचनाओं को अपने अख़बार में लगाया। अब देश की सुप्रसिद्ध पत्रिकाओं में मेरी रचनायें फिर से छपने लगीं। अखिल भारतीय मंचों पर काव्यपाठ की यात्रा फिर से शुरू हो गयी। देश के प्रसिद्ध वरिष्ठ नाम गीत ऋषि आदरणीय संतोष आनंद जी, डॉ राहत इंदौरी, डॉ कुमार विश्वास, जनाब नवाज़ देवबंदी जी, बशरजी, जनाब कलीम कैसर साहब डॉ बुद्धिनाथ जी और अन्य बड़े कवियों के साथ साझा मंच मिले।

रेडियो बिग एफ एम, नेशनल चैनल से प्रसारणों के बाद मैं उम्मीदों के नये आसमान पर थी।

गीत का ऑडियो भी बनाया जिसे मशहूर पंजाबी सिंगर /एक्टर जस्सी गिल और कैबिनेट मिनिस्टर ने रिलीज़ किया।

वक्त-ए-वापसी पर मैं तेजी से पर खोल रही थी। अब किताब की बारी थी।

माँ की तरह यह सपना मेरी आँखों में उतरता, कि वक्त के बाज़ ने झपट्टे ने मुझे वापस ज़मीन पर ला पटका। अचानक से पिताजी और ठीक चार माह के बाद, माँ ने मेरे हाथों में दम तोड़ दिया। यह सदमा बहुत भीतर तक मुझे तोड़ गया।

और अब एक आँख से माँ बहती है, तो एक आँख से पिता ...

माँ पिता के सदमे से उबरने, और

खुद को अति वयस्त रखने के लिये मैंने हस्तक्षेप ऑनलाइन पोर्टल में साहित्यिक कलरव नाम से ऑडियो वीडियो कॉलम शुरू किया, जिसमें अनुमान से परे देश के वरिष्ठ साहित्यकारों के नाम जुड़े।

मैंने पहले कभी हिंदी की तरफ़ यूँ ग़ौर से नहीं देखा था, बस गाहे बगाहे की पहचान थी, लिखने भर का काम चल जाता था, इससे ज़्यादा की ज़रूरत कभी महसूस ही नहीं हुई।

मगर साहित्यकारों की संगत में मैंने हिंदी को हिंदी के असल रूप में जाना। उनका वर्तनी, शुद्ध-अशुद्ध, बिंदी, हलन्त को लेकर फ़िक्रों से मालूम हुआ।

कि बहुत कठिन है डगर पनघट की .....मगर ... इस पनघट की राह तक लाने में प्रत्यक्ष परोक्ष रूप से कई साहित्यिक, असाहित्यक लोगों का महत्वपूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ तो वहीं कुछ के विरोध ने भी जोश की इक आग बाली।

मैं दिल से सभी का आभार व्यक्त करती हूँ।

मैं हरगिज़ नहीं जानती कैसे ? मेरी डायरी के सफेद सफहों में इक गीत शक्ल में आप छुपी थी। शायद शोहरतों के मौसमों ने इक गीत फूल हवा को दिया।

नवासी की डायरी का वो हर सफहा गीत इत्र से महक लिया। पता नहीं गीत को मैंने या गीत ने मुझे चुना।

उस गीत का आखर-आखर था ओस से बुना। कच्ची उम्र मेरी जब उस गीत को गुनगुनाती थी हवा मन की दहलीज़ पर फूल-फूल लिख जाती थी।

अक्सर उस गीत से मेह बरसता सपनों की लम्बी सड़क पार जाता था उस गीत का सौंधा सौंधा सा रास्ता। उन रास्तों पर चलते-चलते जाने कब मैं बड़ी हो गयी।

और अब जब उम्र... ढलाव की दहलीज़ पर खड़ी हो गयी ..तब आकर मिले

.....तुम ....

अब तुम ना बोलोगे

तुम्हारी बात बोलेगी

जब यह गीत सुना तो माज़ी से इक महक उठी। ज़िंदगी के सारे सफहे फड़फड़ा कर उलट गये... और मैं वही नीली डायरी के लिखे गीत को गुनगुनाती छतों पर टहलने लगी, गीत मेरी डायरी में कच्ची उम्र से लिखा है।

डॉ शांति सुमन जी को कैसे पता मेरी डायरी के इस गीत के बारे में ? मेरा उनका परिचय भी तो अभी हुआ है, फिर यह गीत वो कैसे जानती हैं ? मैं संकोच वश पूछ ना सकी। पर झट से गूगल देखा। वहां यह गीत नहीं मिला। अचरज में मैंने जल्दी से पुरानी अल्मारी खंगाली, तो नवासी की डायरी में यह गीत वैसे ही लिखा था।

मैंने तो कभी किसी को यह डायरी दी ही नहीं? जब मालूम हुआ गीत डॉ शांति सुमन जी का लिखा है तो और हैरानी .....कि यह गीत उस समय मुझ तक कैसे पहुँचा ? मैं तो संगीत जानती थी तब साहित्य तो बस यूँ ही साथ चल रहा था। उन दिनों मैंने उन्हें कैसे कब किस तरह सुना ? उनका यह ओसों बुना गीत मेरी डायरी में कैसे आया ? यह सवाल अब भी सवाल ही है और नियति का कमाल देखिये जो नवासी से गीत की शक्ल में मेरी डायरी के पन्नों में आ छुपी थीं वो 2021 में पैबंद की हँसी की सशक्त प्रेरणा बनेंगीं किसे मालूम था ? इतने बरस पहले उनसे मेरा गीत परिचय किसने कराया ? यह सवाल ? अब भी सवाल है???

मैंने महादेवी वर्मा जी को तो नहीं देखा, पर उनके साथ बहुत से मंच साझा करने वाली देश की पहली नवगीत कवयित्री डॉ शांति सुमन जी मेरे लिये महादेवी सदृश्य ही हैं। बेहद सरल बेहद आत्मीयता से परिपूर्ण एक ऐसा व्यक्तित्व जो हमेशा सबकी चिन्ता में लगा रहता है, वह आज भी साहित्य आकाश में वह एक जगमग सितारे की तरह जगमगा रही हैं।

उन्हीं के कहने पर जब बेहद संकोच में मैंने अपनी दो तीन रचनाओं के ऑडियो उन्हें भेजे, दिन दो दिन बाद उनकी विस्तृत टिप्पणी ने मुझे उत्साह से भर दिया। उन्होंने मुझमें विश्वास जताया, आत्मविश्वास जगाया और मेरी किताब निकलने की चिन्ता में लग गयी, उनका वो बार बार का टोकना, वो मेरा समय निर्धारित करना, मेरी लापरवाहियों पर उनकी नाराज़गी का एक अनूठा रिश्ता जिया हमने।

बड़ा अजीब इत्तफ़ाक़ था कि माँ जो किताब का स्वप्न देखा करती थी उन सपनों को जाने कैसे डॉ शांति सुमन जी जीने लगीं। वो लगातार कहती हैं कि “तुम्हारी किताब आयेगी तो सबसे ज़्यादा प्रसन्नता मुझे होगी।“ उनकी मेरे प्रति परवाह पर मैं हैरान थी कि माँ का स्वप्न उनकी आँखो में कैसे उतरा ? यकीनन किसी तारे से माँ ने ही उन्हें मेरे बारे में बता कर प्रेरणा दी होगी उन्होंने मेरी दिशा का निर्धारण शुरू किया वो भी सख़्ती से मेरा भला बुरा वो सोचने लगी, आज भी उनकी बेचैनी भी कमाल की है।

तमाम छितरी कवितायें एकत्र करते-करते मैं कई दफ़ा ऊबी मगर वो निरन्तर मुझमें उत्साह जगाते मुझे टोकते पूछते एक बार भी नहीं थकी ना ऊबी, बार-बार।

तुम इतनी निश्चित कैसे हो ? यह सवाल करते सुनते अपनी स्नेहिल डाँट, लाड़, स्नेह, चिंता से वो मुझे राह तक ले ही आईं ....सो इस किताब का श्रेय, मेरी मां जिसने बिना किसी दरख़्त के बागवान का सपना देखा, और मेरी मान्या मित्र डॉ शांति सुमन जी को देना चाहती हूँ, जिन्होंने माँ के बागवान वाले सपनों की मिट्टी में फूलों वाले शजर लगा कर उनको अपनी प्रेरणा के जल से सींचा .. जिस पर अब आकर उगी है “पैबंद की हँसी”।  

शबनमीं क़तरों से सजी अल सुबह रात की चादर उतार कर, जब क्षितिज पर अलसाये क़दमों से बढ़ती है,उन्हीं रास्तों पर पड़े इक तारे पर पाँव रख चाँद फ़लक से उतर कर सुबह को चूम लेता है। नूर से दमकती शफ़क़ तब बोलती कुछ नहीं, चिड़ियों की चहचहाटों में सिंदूर की डिबिया वाले हाथ को चुप से पसार देती है, और फिर भर - भर कर चुटकियों में सजाये जाते हैं यह रूप के लम्हे। सुबह के इस मौन इश्क़ को पढ़ा है तुमने ?

आदरणीय डॉ मधुरेश जी तो तड़के उनींदी नींद के बिस्तर छोड़ टकटकी बाँध कर इस रूप को तक रहे हैं बरसों से, और फिर किताबों के ख़ामोश पन्नों पर रचते हैं क्षितिज की समीक्षायें आलोचनायें चाँद की, शफ़क़ के संस्मरण, हर्फ़ हर्फ़ शिल्प गढ़ता है। साहित्य ने आकाश पर बहुत ऊँचे उड़ाये हैं डॉ मधुरेश जी के यह मौन स्वीकृति वाले, इश्क़ के क़िस्से।

आज मैं फिर से खुद को शिव नारायण दास कॉलेज के कॉमन रूम की इक बेंच पर बैठा महसूस कर रही हूँ, और दूर से देख रहीं हूँ, स्टाफ़ रूम वाली गैलरी में आदरणीय डॉ. मधुरेश जी का आना जाना।

मेरी उम्र जब यहाँ सीख रही थी पढाई के सलीक़े तब कहाँ जाना था, उनसे यह रोज़ का सामना, मेरे लिये गर्व रचेगा, साहित्य जगत जब आपका ज़िक्र महकाता है, तो हम भी महकते हैं, सोच-सोच कर कि जिस शज़र की शाख़ पर हम खिलें गुन्चों की तरह, आपने अपने ज्ञान जल से उन्हें सींचा था। आपने हमेशा ही कहानी, उपन्यासों पर क़लम चलाई है, मगर मैं धन्य हूँ कि मेरी कविताओं पर आपने कुछ कहा .......

सरल सहज और नये लोगों के लिये पूरी तरह सहयोगी विनम्र आदरणीय मक्खन मुरादाबादी ने काव्य की लंबी यात्रा की राह पड़े अनुभवों के बेशक़ीमती फूल मुझे दिये और साथ यह भी कहा जाओ बढ़ो और आगे बढ़ो, इसी रास्ते के तमाम जंगलों के आगे बहती इक नदी पर यकीनन तुम लिखी हो, मैंने कहा भी, मैं पढ़ना नहीं जानती। उन्होंने कहा और अच्छा है, मैं चाहता ही नहीं तुम पढ़ो कि उन रास्तों पर किसने क्या-क्या लिखा है, तुम बस अपनी राहें लिखो और एक दिन यहीं रास्ते यकीनन तुम्हें लिखेंगे।

आपने डॉ माहेश्वर तिवारी जी का ज़िक्र किया। साहित्य के इस स्थापित व्यक्तित्व को कौन नहीं जानता पर मेरा उनसे एक कार्यक्रम में मंच पर उनके चरन छू लेने का ही परिचय मात्र है।

बिम्बों द्वारा गीत के मौसम बदल देने की कला उनकी क़लम में है। जब पहली दफ़ा उनको पढ़ा तो उनके नवगीतों की पगडंडी का छोर जंगल में खुला, जहाँ बिम्बों का डेरा था। जंगल, घना घनेरा था, बिम्ब, छलते, हर ओर बिम्ब के पीछे, बिम्ब चलते।

जब शाम की/ घंटियों पर/ दिन को पछोरता सूप/ घर को दौड़ती हुयी धूप/ उठाये बस्ते/ गाँव के रस्ते वाली झील का जल/ उँगलियों से छूती/ तो वो काँप जाता/ दिशाओं से हवाओं का / ठंडा झोंका/ सनसनाता/ धूप के/ सुनहरे रूप/ को/ तरंगों के/ लहराते साये/ हथेली में भरते तो/ घुलते रंग पानी में/ धानी दूब वाले/ गाँव की/ इस कहानी में/ रंगरेजी सूरज/ साँझ के दुपट्टे पर रंग डालता है।

खेतों के छोर वाला गाँव/ कच्ची मुँडेरों परइक दीप बालता है/ और फिर/ झींगुरों के घुँघरूओं से छनकती है/ नवगीतों की/ इक रात/ रात भर .....

आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी

उँगलियों से नवगीत की झील का जल छूते हैं तो मछलियाँ तक काँप जाती हैं।

मैं छोर से/ जल में झाँकूँ तो/ पानी के हिलते हुए साये/ खींचने लगते हैं मुझे/ और घुलने लगती हूँ मैं।

सोचूँ भी कि/ जरा सा उतर कर/ बचा लूँगी अक्स को/ मगर इक बिम्ब पर ऐसा/ पाँव फिसलता है/ कि मुझे मेरी/ थाह नहीं मिलती।

वो रास्ते/ जिन पर कभी भी मेरे पैर ही नहीं पड़े/ अंजान, सिकुड़ी सी खड़ी हूँ मैं।

उन साहित्य की राहों ने डॉ माहेश्वर तिवारी जी को ख़ूब लिखा है। उनके नवगीतों के कई मोड़ हैं उस रस्ते, वहाँ के रस्तों पर उनके बिम्बों की परछाई चलती है, भला वो डॉ माहेश्वर तिवारी मुझे क्यों मुड़ कर देखेंगे, जानेंगे? मैं सोच में थी, तब आपने अपने परिचय के दरवाज़े मुझ पर खोले और मेरा हौसला बढ़ाया। और यही नहीं बल्कि मेरी रचनाओं का डाक लिफ़ाफ़ा भी उन्हें स्वयं ही दिया, मैं आप दोनों को सादर नमन करती हूँ कि आपने अपने अपने काव्य और साहित्य के आलीशान बंगलों के दरवाजों पर इक धूप के छिटके की दस्तक सुनी, और मंहगे परदे हटा कर झरोखों से हवा के झोंकों की तरह मुझे भीतर आने दिया।

मेरी रचनाओं को आपकी स्टडी रूम की टेबल नसीब हुयी। आपने अपनी अपनी क़लम की नीली स्याही से रचनाओं के लिये इक नया आसमान लिखा और मैं पतंग पतंग हो गयी।

लगभग पचास बरस से गीतों का मेघ बरसा कर साहित्य की धरती को हराभरा किये हुए हैं आदरणीय बुद्धिनाथ जी।

मैं बेहद ख़ुशनसीब हूँ कि साहित्य के सफर में मेरी पहली शुरूआत आदरणीय डॉ बुद्धिनाथ जी से हुयी। जब पहली बार उनकी गीत गंगा में डुबकी लगाई तब जाना कितना पावस है यह काव्य जल।

इसी जल में मौल सिरी के दीप सिरा कर/दिन सफ़र को चलता है/परछावा डाल कर साँझ का सूरज यहाँ ढलता है/दिन/दिन भर के दुख सुख इसी घाट पर धोये/ अँजुरी भरे ऋतुयें मन आरती सा होय/ इस गीत नदी में जाल फेंकता कभी थके नहीं मछेरा साँझ की बैलगाड़ी में लद जाये/ चाहे दिन का डेरा /शाम के पत्तों में/ छुप कर बैठे/ जब हरियल सुगना/ तब रात की छत पर/ हौले से इक/ गीत चाँद का उगना

बिम्बधर्मी आदरणीय बुद्धिनाथ ने अपनी अनमोल क़लम चला कर इस कविता में विश्वास जगाया और पैबंद की हँसी को बादलों की झमाझम से भिगोया आदरणीय दिनेश प्रभात जी ने।

झीलों की नगरी भोपाल के सुप्रसिद्ध गीतकार दिनेश प्रभात सम्मानित पत्रिका गीत गागर के संपादक हैं। देश के अग्रणी गीतकार मंच के सशक्त हस्ताक्षर कुशल संचालक एवं उद्घोषक हैं। दिनेश जी का मंच और साहित्य में अनूठा संतुलन है। आपकी कृति के विषय में स्वयं गोपालदास नीरज जी ने कहा है – “अनोखे शिल्प विधान की ठंडी ठंडी जो पुरवाई बह रही है और धरती से जो सौंधी सौंधी सुगन्ध जन्म ले रही है वह हर किसी मन प्राण को रससिक्त करेगी ऐसा मेरा विश्वास है…”..

जिनके लिये नीरज जी ने लिखा/ उनकी क़लम फुहार से मेरे लिये झरे शब्दों के फूल।

अपनी बात को यहीं समाप्त करते हुए मैं इस किताब के आवरण के भीतर और अंतर्पृष्ठ पर सशक्त और समर्थ सभी साहित्यकारों आदरणीय मधुरेश जी, आदरणीया डॉ शांति सुमन जी, आदरणीय डॉ बुद्धिनाथ मिश्र, आदरणीय डॉ माहेश्वर तिवारी, आदरणीय मक्खन मुरादाबादी, आदरणीय दिनेश प्रभात जी के क़ीमती शब्दों का बहुत सम्मान करती हूँ और बेहद आभारी हूँ कि उन्होंने अपने अपने यश की क़लम से इक आम सी कविता को बल दिया।

यह वो नाम हैं जो सच में रास्ता हैं हिंदी तक पहुँचने का।

अपनी-अपनी रचनाओं से आप सबने बरसो हिंदी का श्रृंगार किया है। और आज पैबंद के लब पर मुस्कराहट की वजह बने, हृदय तल से आप सभी को नमन, ढेर सारा प्रणाम ...

मैं गुरू आदरणीय डॉ सुभाष वसिष्ठ जी का आभार व्यक्त करती हूँ, जिन्होंने मुझे हिंदी पर बिंदी लगाना बताया, और मुझमें विश्वास व्यक्त करके अपनी पुस्तक का गीत गाने को दिया। रंगमंच के सिवा भी मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा जाना। उनको सादर प्रणाम करती हूँ।

मैं ऑन लाइन पोर्टल हस्तक्षेप के स्वामी अमलेन्दु भइया का आभार व्यक्त नहीं कर सकती। करूँगी भी तो किस-किस बात का? इक उम्र से बड़े भाई सा संरक्षण देते आ रहे हैं। उनके लिये बस इतना ही कि हर बहन को आप जैसा भाई मिले।

ज्योतिष के विद्वान मेरे बड़े भाई आदरणीय विनोद मल्होत्रा जिन्होंने गणितीय गणना से इस किताब की बहुत पहले घोषणा कर दी थी। और ममता भाभी, जिन्होंने जीवन की कठिन परिस्थिति में पुचकारा, का मैं हृदय तल से नमन करती हूँ।

मैं सत्य देव (सत्या ) का आभार व्यक्त करती हूँ जिसने मैटर को एकत्र करने में, टाइपिंग , पीडीएफ़, एम एस वर्ल्ड में रचनाओं को सहेजने में मेरी मदद की।

और

अंत में

परिवार में सभी स्नेही भाई भावजों

आदरणीया सासुमां,

देवर देवरानियों और

प्रिय जनों, मित्रों को, बेहद मन से

अपनी यह कृति सौंपती हूँ।

यूँ तो  महीनों पहले ही  काम पूरा हो गया था, पर बीते दिनों अजीब सा माहौल था- ज़िंदगी मौत की जंग, चारों तरफ़ हाहाकार, लोगों की आँखो में बारिशें ठहर गयीं। कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या कहें क्या लिखें, सहमी सहमी आँखों से भाव टप टप बहे जा रहे थे। किताब का क्या सोचती, क़लम की सांसें ही थमी थमी सी थीं। शायद ऑक्सीजन कम हो गयी थी ...

असमय

काल के गाल में समाये 

लोगों को

विनम्र श्रद्धांजलि

डॉ कविता अरोरा

(डॉ कविता अरोरा के सद्यः प्रकाशित काव्य संग्रह “पैबंद की हँसी” की भूमिका)

बदरी बाबुल के अंगना जइयो

(The preface of Dr Kavita Arora's published poetry collection "Paiband ki hansi")

Subscribe