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सच हुआ मुहावरा; मिल गए अडानी के रंगा बिल्ला ?

ऑस्ट्रेलिया में अडानी की बढ़ी मुश्किलें, कोयला खदान की मंजूरी हो सकती है रद्द

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इतिहास के गटर में समा जाते हैं तानाशाह मगर चुटकुले रह जाते हैं

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इतिहास में तानाशाहियों को उनकी क्रूरताओं, बर्बरताओं, निर्ममताओं, पाश्विकताओं, जघन्यताओं वगैरा वगैरा के लिए याद किया जाता है, और ठीक ही याद किया जाता है। तानाशाहियां सभ्यता का ही नहीं मनुष्यता का भी निषेध होती है। मगर चूँकि तानाशाह खुद मूलतः एक भद्दा मजाक और जीता जागता चुटकुला होते हैं इसलिए यह असहनीय काल कुछ हंसाने और गुदगुदाने वाले सच्चे - गढ़े चुटकुलों का काल भी होता है। तानाशाह इतिहास के गटर में समा जाते हैं मगर चुटकुले रह जाते हैं।

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हिटलर के जीवन काल में ही उस पर बने चुटकुले खुद उससे ज्यादा मशहूर हो गए थे, आज भी हैं। इनमें से अनेक भले ब्लैक ह्यूमर वाले हैं, मगर हैं ढेर सारे; चार्ली चैपलिन की फिल्म द ग्रेट डिक्टेटर में हिटलर और मुसोलिनी के किरदार काल्पनिक नहीं थे, उनके असली जीवन और चालचलन का फिल्मांकन करते थे। हाल के समय में भी ऐसी कई मिसालें है।

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जॉर्ज बुश जूनियर और डोनाल्ड ट्रम्प की नीतियों और झगड़ों से हर तरह की मुश्किलें झेलने के लिए मजबूर अमरीकी नागरिक भी मानते हैं कि जितने मजेदार चुटकुले इन दोनों की प्रेसीडेंसी में मिले वैसे पहले कहाँ मिलते थे। पड़ोसी देश में भी जितना रसरंजन याहिया खान और ज़िया उल हक़ के राष्ट्रपतिकाल में हुआ वैसा पहले या बाद में नहीं हो पाया।

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भारत ने भी 75-77 के बीच एक तरह की तानाशाही देखी है, उस दौर में भी मनोरंजन की कमी नहीं पड़ी। इन दिनों तो जैसे बहार ही आयी हुयी है।

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दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना की तर्ज पर कहें तो चुटकुलों का पूर्णत्व पर पहुँचना है उनका सच हो जाना। चर्चिल से लेकर मुशर्रफ से ट्रम्प होते हुए मोदी तक चिपका एक राजनीतिक चुटकुला काफी प्रसिद्ध है। इसमें एक नागरिक को पुलिस इसलिए गिरफ्तार कर लेती है क्योंकि उसने कहा था कि "राष्ट्रपति / प्रधानमंत्री चोर है।" पकड़े जाने पर नागरिक सफाई देता है कि वह अपने राष्ट्रपति/प्रधानमंत्री के बारे में नहीं कह रहा था, पड़ोसी देश के लिए कहा था।" पुलिस अफसर उसे डांटते हुए कहता है कि "हमे क्या मूर्ख समझते हो ? हमें नहीं पता क्या कि किस देश का राष्ट्रपति/प्रधानमंत्री चोर है।" ठीक यही मिसाल इन दिनों हिन्दुस्तान में अमल में लाई जा रही है। बिना किसी का नाम लिए झूठा, लफ़्फ़ाज़ और ज़ुमलेबाज या कारपोरेट का गुलाम, अंग्रेजों का दलाल बोलिये, बात पूरी होने से पहले ही पूरी की पूरी भक्त बिरादरी कूद पड़ती है कि आप हमारे ब्रह्मा जी के बारे में ऐसा नहीं कह सकते। उन्हें याद दिलाने पर कि आपने तो किसी का नाम तक नहीं लिया, भक्त वही पुलिस अफसर वाला जवाब देते हैं कि, "हमें क्या मूर्ख समझते हो ? हमें नहीं पता क्या कि झूठा, लफ़्फ़ाज़ और ज़ुमलेबाज और कारपोरेट का गुलाम वगैरा वगैरा कौन है ?"

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अब बात इन विशेषणों से आगे बढ़ गयी हैं ; मुहावरों और उपमाओं से होती हुयी संज्ञा बन क्रिया में बदलती जा रही है। उत्तरप्रदेश के आगरा मंडल के रेलवे के एक अधिकारी ने ऐसा ही कारनामा लिखा पढ़ी में करके दिखा दिया। इस अधिकारी ने एक कर्मचारी की सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर विभागीय कार्यवाही शुरू करने का नोटिस अपने अधिकृत सरकारी लैटर पैड देते हुए उसमें लिखा है कि;

"आपने दिनाक 22 फरवरी 2023 को सोशल मीडिया पर निम्न वक्तव्य पोस्ट किया;

"रंगा बिल्ला ने अपनी पेंशन का इंतजाम अडानी से कर लिया और कर्मचारियों की पेंशन/नौकरी खाकर डकार तक नहीं ली .... ओपीएस (पुरानी पेंशन योजना) हमारा अधिकार है, हम लेकर रहेंगे।"

आप भारत सरकार के अधीनस्थ कार्यरत एक जिम्मेदार रेल कर्मी हैं तथा आपके द्वारा किया गया उपरोक्त पोस्ट अशोभनीय तथा आपत्तिजनक की श्रेणी में आता है जो कि किसी सरकारी कर्मचारी द्वारा किया जाना पूर्णतः अनपेक्षित है।"

ranga billa

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इसके बाद यह अधिकारी संबंधित कर्मचारी से तीन दिन के भीतर स्पष्टीकरण की मांग करता है और पूछता है कि क्यों न उसके खिलाफ अनुशासन तथा अपील नियम के तहत कार्यवाही की जाये।

कौन थे रंगा बिल्ला जो भारत में जघन्यता का पर्याय बन चुके थे?

असहाय बच्चों पर बर्बरता का मुहावरा बन चुके रंगा बिल्ला दो दुर्दांत हत्यारे थे। अगस्त 1978 में इन्होंने दिल्ली में - एकदम बीचों बीच दिल्ली में - एक नेवी अफसर के बेटे बेटी संजय और गीता चोपड़ा का अपहरण कर पहले संजय का कत्ल किया, फिर उसकी बहन गीता से बलात्कार किया। इसके बाद भी वे नहीं रुके और गीता की गर्दन भी तलवार से उड़ा दी।

देश की राजधानी में हुआ यह इतना काण्ड घिनौना था कि लोग हिलकर रह गए। गुस्सा इतना ज्यादा था कि जो प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई कहीं नहीं जाते थे उन्हें इन दोनों बच्चों के घर संवेदना देने गए थे - आक्रोशित जनता ने अटल बिहारी वाजपेयी पर भी पत्थर बरसा कर उन्हें घायल कर दिया था।

इस रेलवे अफसर को पुरानी पेंशन योजना की बहाली वाली कर्मचारी की सोशल मीडिया पोस्ट से उस रंगा बिल्ला की याद क्यों आयी ?

यदि आयी भी तो उनका जिक्र नागवार क्यों गुजरा है ? इस जगह एकाधिक बार लिखा जा चुका है, मगर बात ऐसी है कि दोहराने में कोई हर्ज भी नहीं।

मनोविज्ञान की भाषा में एक प्रवृत्ति होती है जिसे इसे बताने वाले विचारक सिग्मंड फ्रायड के नाम पर फ्रायडियन स्लिप कहते हैं। आम भाषा में इसे मन का चोर कह सकते हैं, जब मन में दबी छुपी बात किसी न किसी तरह मुंह पर आ ही जाती है। झूठों के साथ यह अक्सर होता है क्यों कि झूठ के साथ यह दिक्क्त है कि उसे याद रखना पड़ता है।

इस तरह भारतीय रेल विभाग के एक बड़े और जिम्मेदार अधिकारी ने, पूरी जिम्मेदारी से लिखा पढ़ी में वह सच स्वीकार कर लिया है जिसे आजकल जनता जोरों से दोहरा रही है। उसने मान लिया है कि अपनी पेंशन का इंतजाम अडानी से करवाकर कर्मचारियों की पेंशन/नौकरी खाकर डकार तक नहीं लेने वाले रंगा बिल्ला कौन हैं। उसने इस मुहावरे में लिखे नामो और उनके कामों के जीवित उदाहरण ढूंढ लिए हैं।

वे कौन हैं यहां लिखने की जरूरत नहीं। सब जानते हैं।

बादल सरोज

सम्पादक लोकजतन, संयुक्त सचिव अखिल भारतीय किसान सभा

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