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भारतीय लोकतंत्र (Indian democracy) ने 75 वर्षों में अपनी सम्प्रभुता को भी सुदृढ़ किया है जो पाकिस्तान या अन्य देश नहीं कर पाए जहाँ लोकतंत्र कमज़ोर हुआ (where democracy has weakened) और फौज का शासन कायम हुआ।
पश्चिम से आई है आधुनिक लोकतंत्र की अवधारणा
इंदौर (मध्य प्रदेश), 8 मई 2022 (हरनाम सिंह और सारिका श्रीवास्तव)। भारत में लोकतंत्र का आधार (Basis of Democracy in India) मध्ययुगीन संत परंपरा में भी विद्यमान था। भारतीय लोकतंत्र की जड़ें संत परम्परा तक जाती हैं। आधुनिक लोकतंत्र की अवधारणा पश्चिम से आई है, जहां ज्ञान और राज्य की निर्णायक शक्तियां चर्च के पास थीं। विविधता के चलते भारत में कोई भी एक धर्म सांगठनिक रूप से ताकतवर और शासक नहीं बन पाया।
ये विचार व्यक्त किए प्रख्यात लेखक एवं सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एण्ड सेक्युलरिज्म, मुंबई के निदेशक इरफान इंजीनियर ने।
श्री इंजीनियर आजादी की 75 वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में भारतीय लोकतंत्र के मजबूत आधार विषय पर बोल रहे थे।
सामाजिक संगठन संदर्भ केंद्र द्वारा आयोजित इस व्याख्यान में नगर के अनेक प्रबुद्ध जनों ने शिरकत की।
इरफान इंजीनियर ने कहा कि भारत का लोकतंत्र बुर्जुआ लोकतंत्र माना गया है, जिस पर पूंजीवाद का कब्जा है। देश में जातिवाद के बावजूद दर्शन व ज्ञान की विविधता ने लोकतांत्रिक मूल्यों को विकसित किया। यहां पश्चिम जैसी चर्च व्यवस्था नहीं बन पाई। देश में जहां धर्म की आजादी रही है वही नास्तिकता को भी स्वीकारा गया है। सूफी संत परंपरा, अकबर का दीन ए इलाही का प्रयोग, दारा शिकोह का दर्शन जैसे कई प्रयासों ने लोकतांत्रिक मूल्यों समानता, सहिष्णुता को प्रश्रय दिया। अलग-अलग जातियों के बावजूद संत परंपरा का समग्र भाव एक ही था।
क्या भारत में इस्लाम का विस्तार ताकत के बल पर हुआ?
उन्होंने कहा कि भारत में इस्लामी शासकों की बादशाहत के बावजूद ताकत के बल पर धार्मिक विस्तार नहीं हुआ। राजा जानते थे कि सबको साथ लेकर चलने पर ही वह शासन व्यवस्था चला पाएंगे। भारत में सांस्कृतिक आधार पर कला, साहित्य, संगीत, गायन परंपरा विकसित हुई। इसलिए वर्तमान शासक चाह कर भी देश से लोकतंत्र को समाप्त नहीं कर पा रहे हैं।
समाजवादी और पूंजीवादी लोकतंत्र में अंतर (difference between socialist and capitalist democracy) बताते हुए इरफान ने कहा कि बुर्जुआ लोकतंत्र में कानून (law in bourgeois democracy) के सामने सब समान होते हैं। कानून वर्ग, जाति, धर्म, भाषा इन आधारों पर बंटा हुआ नहीं रहता। चाहे कैसी भी परिस्थिति हो एक ही कानून सब पर लागू होता है। इस लोकतंत्र में अवसर की समानता है मतलब सभी को समान अवसर मिले। जबकि समाजवाद बराबरी या समानता को अलग तरह से देखता है। जिसमें अवसर की समानता को एकमात्र समानता नहीं माना जाता। समाजवाद के अनुसार समान वर्गों में समान अवसर ही समाज में समानता ला सकते हैं लेकिन यदि वर्गों में असमानता है तो उन्हें असमान अवसर होने चाहिए। समाजवाद के अनुसार समाज समानता के तरफ जाये और समाज को समानता की तरफ लाने के लिए राज्य व्यवस्था असमान व्यवहार करेगी। जैसे मजदूरों, शोषित एवं पीड़ितों के हित में कानून बनाये जाएँगे जिससे उन्हें समाज में बराबरी का दर्जा हासिल हो सके। समाजवाद में पूँजीवाद के हितों के लिए जगह नहीं है।
आयोजन का संचालन करते हुए वरिष्ठ अर्थशास्त्री डॉ जया मेहता ने इरफान इंजीनियर का परिचय देते हुए उनके पिता एवं विख्यात सामाजिक कार्यकर्ता डॉक्टर असगर अली इंजीनियर से अपने और इंदौर के संबंधों को याद किया।
जया ने बताया कि देश में सामाजिक सौहार्द और धर्म निरपेक्षता को बचाए रखने के लिए भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) द्वारा पांच राज्यों में ढाई आखर प्रेम के... यात्रा निकाली जा रही है।
परिचर्चा में अपनी बात रखते हुए जया ने कहा कि विश्व में समाजवादी राष्ट्रों पर एक दलीय शासन होने का आरोप लगाया जाता है। जबकि उन देशों ने अपनी जनता को भोजन, रोजगार और आत्मसम्मान का समान अवसर प्रदान किया है। बुर्जुआ लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी के बावजूद कितने लोग इस आजादी का उपयोग कर पाते हैं? ऐसे उपयोग का कोई सार्थक परिणाम भी सामने नहीं आया है। भारत में पूंजीवादी लोकतंत्र ने भूख, गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता दी है। ऐसे लोकतंत्र के क्या मायने? बहुदलीय लोकतंत्र के बावजूद देश की बहुसंख्यक आबादी जहालत भरा जीवन जीने पर विवश है।
साथ ही जया मेहता ने कहा कि रूस और यूक्रेन के युद्ध के बीच जब पकिस्तान में इमरान खान ने रूस के पक्ष में अपनी रायशुमारी की तो अमेरिका ने नाराज़ होकर पाकिस्तान में तख़्ता पलट करवा दिया। भारत ने भी अमेरिकी दबाव को दरकिनार करके और अपने परपम्परिक संबंधों और पारस्परिक हितों का ख्याल रखकर रूस से अपने सम्बन्ध नहीं तोड़े, लेकिन भारत का अमेरिका कुछ नहीं कर सका। भारतीय लोकतंत्र ने 75 वर्षों में अपनी सम्प्रभुता को भी सुदृढ़ किया है जो पाकिस्तान या अन्य देश नहीं कर पाए जहाँ लोकतंत्र कमज़ोर हुआ और फौज का शासन कायम हुआ।
विनीत तिवारी ने कहा कि इक़बाल ने लिखा था कि "मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना", और इसके बरसों बाद हिंदी के महत्त्वपूर्ण कवि कुमार विकल ने लिखा, "मज़हब ही है सिखाता आपस में बैर रखना।"
उन्होंने कहा कि मेरे लिहाज से दोनों ही मान्यताएँ ग़लत हैं। मज़हब हो या नस्ल, भाषा हो या वेशभूषा, त्वचा का रंग हो या भौगोलिक भिन्नताएँ - उनका इस्तेमाल लोगों को जोड़ने के लिए करना है या लोगों को आपस में लड़ाने के लिए, ये उस वक़्त की राजनीति तय करती है। अगर कहीं एक मंदिर, मस्जिद और चर्च व गुरुद्वारा आसपास में बने हुए हैं तो एक वक़्त ऐसी जगह को लोगों के आपसी सांप्रदायिक सद्भाव के सबूत के तौर पर देखा जाता था लेकिन अब ऐसी जगह को देखकर यह ख़्याल आता है कि कल इसी जगह को दंगे कराने के बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया जाएगा। पहले और अब में क्या फ़र्क़ है? फ़र्क़ है राजनीति का। जो राजनीति देश और समाज में प्रभावशाली होती है, उसी से तय होता है कि समाज में मौजूद विभिन्नताओं का उत्सव मनाया जाए या उन भिन्नताओं के आधार पर लोगों को आपस में दुश्मन बनाया जाए। लेकिन हमारी आज़ादी हिन्दू-मुसलमानों की एकता, महिलाओं की भागीदारी और जातीय एकता के तीन मज़बूत आधारों पर खड़ी हुई है। इसी में हमने लोकतंत्र को अपनाया है और इसीलिए हमारा लोकतंत्र मज़बूत है।
इस परिचर्चा में चुन्नीलाल वाधवानी, विजय दलाल, विवेक मेहता, हरनाम सिंह, प्रमोद बागड़ी, शफ़ी शेख, मशीद बेग, केसरीसिंह चिढ़ार, सारिका श्रीवास्तव, अंजुम पारेख, जहाँआरा, प्रमोद नामदेव, अजीज इरफान, रामआसरे पांडे, अभय नेमा, तौफीक शेख ने भी भाग लिया।
Web title : The roots of Indian democracy go to the saint tradition