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आरएसएस की तिरंगे से नफ़रत और इस के प्रचारक प्रधानमंत्री मोदी का तिरंगे से प्यार का राज़!

आरएसएस की तिरंगे से नफ़रत और इस के प्रचारक प्रधानमंत्री मोदी का तिरंगे से प्यार का राज़!

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ख़ुद को हिन्दू राष्ट्रवादी बताया था पीएम मोदी ने

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मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी ने, जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे, विश्व की एक नामी समाचार एजेंसी राइटर्स से 12 जुलाई 2013 को एक साक्षात्कार में ख़ुद को हिन्दू राष्ट्रवादी बताया था। उन्होंने यह सच भी साझा किया था कि उन्होंने हिन्दू राष्ट्रवाद के सबक़ आरएसएस में रहकर सीखे और उनको राजनैतिक नेता के तौर पर गढ़ने में आरएसएस के महानतम दार्शनिक और दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर की सब से बड़ी भूमिका थी।  

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आरएसएस ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हर उस चीज से नफ़रत की, जो ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारतीय जनता के एकताबद्ध संघर्ष का प्रतीक थी। इसे समझने के लिए तिरंगा, राष्ट्रीय-ध्वज, एक सही मामला है।

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तिरंगे का खुला विरोध किया हेडगेवार ने

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दिसंबर 1929 में कांग्रेस ने अपने लाहौर अधिवेशन में पूर्ण-स्वराज का राष्ट्रीय लक्ष्य निर्धारित कर दिया और जनता से अपील की कि 26 जनवरी,1930 को तिरंगा फहराकर उसका सम्मान करते हुए स्वतंत्रता दिवस मनायें और ऐसा हर साल करें। तब तक तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज मानने पर आम सहमति हो गयी थी। उस समय तिरंगे के बीच में चरखा होता था। इसकी खुली अवहेलना करते हुए सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार ने आरएसएस की सभी शाखा संचालकों के नाम 21 जनवरी 1930 को एक परिपत्र जारी किया जिस में आदेश दिया गया था कि: “आरएसएस की तमाम शाखायें सब स्वयंसेवकों की संघस्थान पर 26 जनवरी 1930 शाम को सभा करें और हमारे राष्ट्रीय-ध्वज अर्थात भगवे झंडे को सलामी दें।”  

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डॉ हेडगेवार पत्र-रूप व्यक्ति दर्शन (हेडगेवार के पत्रों का संकलन), अर्चना प्रकाशन इंदौर, 1989, प्रष्ठ 18>

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गोलवलकर ने भी तिरंगे के प्रति नफ़रत का इज़हार किया

तिरंगे के प्रति इस नफ़रत की परिपाटी का गोलवलकर ने भी वफ़ादारी से परिपालन किया। 14 जुलाई,1946 को गुरु पूर्णिमा के अवसर आरएसएस के नागपुर मुख्यालय पर इकट्ठे लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि भगवा ध्वज संपूर्णता के साथ हमारी महान संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है। यह ईश्वर का प्रतिरुप हैः "हमें पक्का विश्वास है कि अंत में पूरा देश भगवे ध्वज को नमन करेगा।" <श्री गुरुजी समग्र दर्शन, vol. 1, p. 98.>

आरएसएस के अंग्रेजी मुखपत्र 'आर्गेनाइज़र' ने संविधान सभा की समिति में सभी दलों और सभी समुदायों को मंजूर तिरंगे को राष्ट्रीय-ध्वज के रुप में मान लेने के फ़ैसले की ख़बर पर ज़बर्दस्त ग़ुस्सा ज़ाहिर करते हुए 'दि नेशनल फ्लैग’ शीर्षक से 17 जुलाई,1947 के अपने संपादकीय में लिखा-

"हम इस बात से बिल्कुल सहमत नहीं हैं कि राष्ट्रीय झंडा 'देश के सभी दलों और समुदायों को स्वीकारिये होना चाहिए'। यह शुद्ध बेवक़ूफ़ी है। झंडा राष्ट्र का प्रतीक है और देश में केवल एक राष्ट्र है, हिन्दू राष्ट्र, जिसका लगातार चलने वाला 5000 साल का इतिहास है। हमारा झंडा इसी राष्ट्र और केवल इसी राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करना चाहिए। हमारे लिए यह मुमकिन नहीं है कि हम एक ऐसा झंडा चुनें जो कि सभी समुदायों की इच्छाओं और आकाँक्षाओं को संतुष्ट कर सके। यह बिल्कुल ग़ैरज़रूरी, अनुचित है और पूरे मामले को और उलझा देता है।...हम अपने झंडे को उस तरह नहीं चुन सकते हैं, जैसे कि हम एक दर्ज़ी को एक क़मीज़ या कोट तैयार करने लिए कहते हैं...

"अगर हिन्दुस्थान के हिन्दुओं की एक साझी सभ्यता, संस्कृति, रीति-रिवाज और शिष्टाचार, एक साझी भाषा और साझी परम्पराएं थीं तो उनका एक झंडा भी था। एक ऐसे झंडा जो सब से पुराना और महान था बिलकुल उसी तरह जैसे कि वे और उनकी सभ्यता है। हमारे राष्ट्रीय झंडे के बारे में किसी भी फ़ैसले से पहले हमें इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का ध्यान रखना चाहिए, ना की उस ग़ैर ज़िम्मेदारी से जैसे हाल ही में किया जा रहा है।

यह सच है कि विदेशी आक्रमणों के कारण जो भयावहता उन के साथ आई, अस्थायी विफलताओं ने हिन्दुओं के राष्ट्रीय ध्वज को अन्धकार में धकेल दिया। लेकिन हम सब इस बात को जानते थे कि एक दिन यह ज़रूर महानता और प्राचीन महिमा को छुएगा और लहरायेगा। इस ध्वज के अद्वितीय रंग में ऐसा कुछ है जो देश के प्राण औऱ आत्मा के लिए अत्यंत प्रिय है और यह रंग भोर का अद्भुत रंग है, जो पूर्व की दिशा में धीरे किंतु राजकीय सूर्योदय के वक्त प्रकट होता है।

इसी तरह हमारे पूर्वजों ने हमें विश्व को जीवनी शक्ति देने वाला यह ध्वज सौंपा है। वे सिर्फ अज्ञानी और दुष्ट हैं जो इस ध्वज के अद्भुत आकर्षण, उसकी महानता और भव्यता को देख नहीं सकते। यह आकर्षण, महानता और भव्यता उतना ही गौरवशाली है जैसा कि स्वयं सूर्य है। यह ध्वज हिंदुस्तान का एकमात्र सच्चा ध्वज बन सकता है। राष्ट्र को यही और एकमात्र यही स्वीकार होगा।"

भारत की स्वतंत्रता से मात्र एक दिन पहले आरएसएस के अंग्रेज़ी मुखपत्र आर्गेनाइज़र (14 अगस्त,1947) में तिरंगे को शर्मनाक हद तक अपमानित करते हुए लिखा:

“वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा, अपनाया जा सकेगा। तीन का आंकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झण्डा, जिसमें तीन रंग हों बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुक़सानदेय होगा"

स्वतंत्रता के बाद जब तिरंगा झंडा राष्ट्रीय ध्वज बन गया, तब भी आरएसएस ने इसको स्वीकारने से मना कर दिया। गोलवालकर ने राष्ट्रीय झंडे के मुद्दे पर अपने लेख ‘पतन ही पतन’ <‘विचार नवनीत’ 1966 में आरएसएस द्वारा प्रकाशित प्रकाशित गोलवलकर के लेखों/भाषणों का संग्रह, पृष्ठ 237> में अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा-

उदाहरण स्वरूप, हमारे नेताओं ने हमारे राष्ट्र के लिए एक नया ध्वज निर्धारित किया है। उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह पतन की ओर बहने तथा नक़लचीपन का एक स्पष्ट प्रमाण है"

श्री गुरूजी आगे चलकर अपने लेख में उस सोच की खिल्ली उड़ाते हैं जिसके अंतर्गत तिरंगे झंडे को भारत की एकता का प्रतीक मानकर राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकारा गया। तिरंगे झंडे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में पसन्द किए जाने पर उनका कहना है-

‘‘कौन कह सकता है कि यह एक शुद्ध तथा स्वस्थ् राष्ट्रीय दृष्टिकोण है? यह तो केवल एक राजनीति की जोड़तोड़ थी, केवल राजनीतिक कामचलाऊ तत्कालिक उपाय था। यह किसी राष्ट्रीय दृष्टिकोण अथवा राष्ट्रीय इतिहास तथा परम्परा पर आधारित किसी सत्य से प्रेरित नहीं था। वही ध्वज आज कुछ छोटे से परिवर्तनों के साथ राज्य ध्वज के रूप में अपना लिया गया है।

हमारा एक प्राचीन तथा महान राष्ट्र है, जिसका गौरवशाली इतिहास है। तब, क्या हमारा अपना कोई ध्वज नहीं था? क्या सहस्त्रों वर्षों में हमारा कोई राष्ट्रीय चिह्न नहीं था? निःसन्देह, वह था। तब हमारे दिमागों में यह शून्यतापूर्ण रिक्तता क्यों?’’

आज़ादी के बाद भी यह सब लिखकर आरएसएस ने उन शहीदों का घोर अपमान किया जो वतन के लिये शहीद हो गए और जिन की लाशें तिरंगे में लपेट कर सम्मानित की गयीं।

तिरंगे के प्रति सावरकर की नफ़रत

आरएसएस की तरह सावरकर भी ब्रिटिशराज के ख़िलाफ़ भारतीय जनता के एक-जुट संघर्ष के सभी प्रतीकों से नफ़रत करते थे।उन्होंने तिरंगे को राष्ट्र-ध्वज या स्वतंत्रता संघर्ष का झण्डा मान ने से मना कर दिया था।हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं के नाम 22 सितंबर 1941 को जारी बयान में उन्होंने घोषणा की –

"जहाँ तक झंडे का सवाल है, हिंदू लोग समग्र हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व करने वाले उस झंडे के सिवा और किसी झंडे को नहीं जानते, जो कुंडलिनी कृपाणांकित महासभा का झंडा है, जिस पर ओम् और स्वास्तिक अंकित हैं, जो हिंदू जाति और नीति के प्राचीनतम प्रतीक हैं और हिंदुस्थान में युगों-युगों से सम्मानित हैं। वास्तव में यह हरिद्वार से लेकर रामेश्वरम तक लाखों लाख हिंदुओं के लिएमान्य है और वे उसे फहराते हैं। यह हिंदूमहासभा की हर शाखा पर हज़ारों केन्द्रों पर फहराते हैं। इसलिए जिस स्थान या आयोजन में इस हिंदू झंडे का सम्मान नहीं किया जाता, उसका हिंदू-संगठनवादी हर क़ीमत पर बहिष्कार करें...चरख़े वाला झंडा खादी भंडार का भले प्रतिनिधित्व कर सकता है, लेकिन चरख़ा हिंदुओं की गौरव-पूर्ण भावना और प्राचीन राष्ट्र का कभी प्रतीक नहीं बन सकता। फिर भी जो लोग चाहें, वे इस के साथ खड़े हो सकते हैं, लेकिन हम हिंदू-संगठनवादी अपने प्राचीन हिंदू झंडे के अलावा किसी और झंडे के नीचेन खड़े हो सकते हैं और न उस की रक्षा कर सकते हैं।"

फ़िलहाल आरएसएस में सब से शक्तिशाली व्यक्ति, प्रधानमंत्री मोदी ने ज़बरदस्त पलटी खायी है। तिरंगे से जानी दुश्मनी रखने वाली संस्था आरएसएस से जुड़े होने के बावजूद वे तिरंगे पर प्यार उड़ेल रहे हैं। 13 से 15 अगस्त के बीच ‘हर घर तिरंगा’ लहराया जाएगा और उन्होंने अपने सोशल मीडिया ‘हैंडल्स’ पर भी तिरंगा लगा दिया है। अगर यह सब ईमानदारी से किया जा रहा है तो उन्होंने ख़ुद और आरएसएस के पूरे नेतृत्व को पूरे देश से तिरंगे के लगातार किए गए अपमान और भर्त्सना के लिये माफ़ी मंगनी चाहिये।

अगर ऐसा नहीं किया जाता तो आरएसएस से जुड़े लोगों का, प्रधानमंत्री समेत तिरंगे से प्यार एक धोखा और बदचलनी ही माना जाएगा। इस का साफ़ मतलब होगा कि आरएसएस-भाजपा शासक दमनकारी और लूट पर टिके राज पर पर्दा डालने के लिये तिरंगे का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस के लिये इतिहास उन्हें कभी माफ़ नहीं करेगा!

शम्सुल इस्लाम

14-08-2022   

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