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mallikarjun kharge
मल्लिकार्जुन खड़गे ने कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद संभाल लिया. बाबू जगजीवन राम के बाद वे दलित समाज से आने वाले दूसरे कांग्रेस अध्यक्ष हैं. यह बदलाव न सिर्फ़ राष्ट्रीय राजनीति, बल्कि कांग्रेस की आंतरिक राजनीति में भी अहम मोड़ है. क्योंकि जहाँ एक तरफ दलित वर्ग में संविधान प्रदत्त अधिकारों पर भाजपा सरकारों द्वारा किए जा रहे हमलों से उसमें बेचैनी है तो वहीं कांग्रेस, अस्मितावादी दलित और पिछड़ावादी राजनीति द्वारा बनाई गयी अपनी सवर्ण प्रभुत्व वाली पार्टी की छवि से भी मुक्त होती दिख रही है.
इसीलिए इस बदलाव पर व्यापक प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है. जहाँ भाजपा नेता उनके चुनाव को पहले से तय पटकथा बता रहे हैं तो वहीं बसपा प्रमुख मायावती की प्रतिक्रिया और ज़्यादा झल्लाहट और असुरक्षाबोध वाली थी.
खड़गे भाजपा-आरएसएस के लिए चुनौती क्यों हैं?
संघ और भाजपा के लिए खड़गे इसलिए चुनौती हैं कि दलितों के बीच उसने अपनी जो भी पैठ बनाई है वो हिंदुत्व और मुस्लिम विरोध जैसे नकारात्मक एजेंडे पर टिका है. उसे उसने अधिकार संपन्न करके नहीं जोड़ा है जैसा कि कांग्रेस की सरकारों ने किया था. मसलन नेहरू सरकार ने जमींदारी उन्मूलन करके दलितों पर सामंती पकड़ को कमज़ोर किया था, या फिर जैसे इंदिरा गांधी सरकार ने भूमिहीन दलितों को ज़मीन के पट्टे देकर किया था. या 1979 में दलित और आदिवासी वर्ग के लिए बजट में विशेष प्राविधान देने वाला स्पेशल कंपोनेंट प्लान बना कर दिया था.
इस सिलसिले को आप डॉ मनमोहन सिंह की सरकार की योजनाओं में भी देख सकते हैं, जिसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा दलित वर्ग को मिला था. इन सब योजनाओं ने दलितों को एक ठोस सामाजिक-आर्थिक ज़मीन उपलब्ध कराई, जिस पर वो अपनी स्वतंत्र राजनैतिक हैसियत खड़ी कर सके. जबकि मोदी सरकार ने उनके सशक्तिकरण को और अगले चरण में ले जाने के बजाए इन सभी अधिकारों में कटौती ही की है. यह सब एक रणनीति के तहत किया गया, जिसका मकसद दलितों को फिर से अधीन करना रहा है.
आप इस बारीक खेल को अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा सरकारी कर्मचारियों के पेंशन को बन्द कर देने के फैसले से भी समझ सकते हैं.
एक आम दलित कर्मचारी अपनी पेंशन से मिलने वाले आर्थिक सुरक्षा के कारण सेवानिवृत्ति के बाद भी अपने सामाजिक और राजनीतिक सक्रियता को बनाए रखता था. क्योंकि पहले से संपन्न सवर्ण तबके के मुक़ाबले उसकी पेंशन ही उसे बुढ़ापे में सक्रिय रहने का साहस देती थी. 80- 90 के दशक में दलितों और अन्य कमज़ोर तबकों के राजनीतिक सशक्तिकरण की प्रक्रिया में इन अवकाशप्राप्त कर्मचारियों की बड़ी भूमिका रही है. जबकि उनके मुक़ाबिल सामाजिक परिवर्तन को रोकने वाली सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रियाओं के हिस्सेदार अवकाशप्राप्त सवर्ण कर्मचारियों की निर्भरता सिर्फ़ पेंशन पर नहीं रही है. वे बहुत हद तक अन्य कारणों से सक्षम रहे हैं. पेंशन बन्द होने के बाद दलितों के आंतरिक सशक्तिकरण की यह प्रक्रिया बहुत हद तक रुक गयी है.
भाजपा सरकार द्वारा उन्हें कमज़ोर करने के इन षड़यंत्रों से दलित वर्ग में बेचैनी है. भाजपा के लिए भी अब इन्हें रोक पाना चुनौती बनती जा रही है. ऐसे में कांग्रेस खड़गे के चेहरे और राहुल और प्रियंका गांधी के दलितों के पक्ष में खड़े रहने वाले नेता की छवि के मिश्रण से हिंदी बेल्ट में इन्हें फिर से अपने साथ ला सकती है.
खड़गे से मायावती क्यों परेशान हैं?
वहीं मायावती को यह चिंता है कि दलितों के बीच एक नया युवा और जागरूक तबका अस्तित्व में आ गया है, जो अपनी खोखली राजनीतिक पहचान से अब और ज़्यादा की इच्छा रखता है. उसे दलितों के विरुद्ध हिंसा पर सिर्फ़ इसलिए चुप रहने वाली पार्टी अब पसंद नहीं है जिसका इन घटनाओं से वोट और मजबूत होता था. उसे अब रोहित वेमुला, उना या हाथरस जैसी दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर खुल कर मैदान में खड़े होने वाले नेतृत्व की ज़रूरत है. चार बार मुख्यमन्त्री रही बसपा नेता को पांचवी बार मुख्यमन्त्री बनाने के बजाए उसकी दिलचस्पी अब अपने उस सामाजिक और लोकतांत्रिक स्पेस को बचाने में ज़्यादा है, जो कांग्रेस की सरकारों में उसे मिले थे. बीते 8 साल के अपने तज़ुर्बे से उसे यह भी समझ में आने लगा है कि भाजपा के कांग्रेस मुक्त भारत के नारे का वास्तविक अर्थ संविधान मुक्त भारत है. जिससे सबसे ज़्यादा नुकसान दलितों को होगा.
ऐसे में राहुल गांधी या प्रियंका गांधी उसे वैचारिक और भावनात्मक लिहाज से ज़्यादा अपील करते हैं. लेकिन कोई दलित चेहरा नहीं होने के कारण यह अपील चुनावी राजनीति में कोई सार्थक परिणाम नहीं दे पाती थी. अब राष्ट्रीय अध्यक्ष के बतौर मल्लिकार्जुन खड़गे और उत्तर प्रदेश अध्यक्ष के बतौर दलित समाज से आने वाले बृजलाल खाबरी के रूप में कांग्रेस के पास यह चेहरे भी हैं.
मायावती जी की भाजपा के सामने वैचारिक पोजिशनिंग का अंदाज़ा उपराष्ट्रपति चुनाव में भाजपा प्रत्याशी जगदीप धनखड़ को समर्थन देने के साथ आए उनके बयान से लग जाता है जब उन्होंने इसे बसपा के मूवमेंट के लिए ज़रूरी बताया था. दलित वर्ग इस पर ज़रूर सोच रहा है कि बसपा के मूवमेंट के लिए भाजपा को समर्थन देते हुए कांग्रेस के प्रत्याशी के खिलाफ़ जाना कैसे ज़रूरी है, वह बसपा को संदेह से देखने लगा है.
मल्लिकार्जुन खड़गे के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के इस ऐतिहासिक अवसर पर राहुल गांधी द्वारा 2013 नई दिल्ली में आयोजित अनुसूचित वर्गों के सशक्तिकरण के कार्यक्रम में दिये गए भाषण को ध्यान में रखना चाहिए.
राहुल गांधी ने दलित वर्ग के राजनीतिक विकास को तीन चरणों में व्याख्यायित करते हुए कहा था कि पहला चरण डॉ अम्बेडकर का था, जिन्होंने कांग्रेस सरकार के सहयोग से ऐसा संविधान तय्यार किया जिसने आरक्षण की व्यवस्था दी. दूसरा चरण कांशीराम का था, जिन्होंने आरक्षण से मजबूत हुए वर्ग में संगठन बनाया. अब तीसरे चरण की ज़रूरत बड़ी संख्या में दलित नेताओं का निर्माण है लेकिन मायावती ने अपने अलावा किसी और को विकसित नहीं होने दिया. उस भाषण में राहुल गांधी ने यह भी कहा था कि कांग्रेस के पास ऐसे 40-50 दलित नेता होने चाहिए, जिनके बारे में लोग कह सकें कि ये बेहतर प्रधानमंत्री या मुख्यमन्त्री साबित होंगे. मल्लिकार्जुन खड़गे के कांग्रेस अध्यक्ष बनने को राहुल गांधी के इस परिकल्पना को ज़मीन पर उतारने की कोशिश के बतौर देखा जाना चाहिए. इसे दलित वर्ग में नए नेतृत्व के विकास के तीसरे चरण की शुरुआत भी कहा जा सकता है.
शाहनवाज़ आलम
(लेखक उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक कांग्रेस के अध्यक्ष हैं)
The third chapter of Dalit empowerment started with Mallikarjun Kharge becoming the Congress President