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The virus called 'civilization and development' is killing the tribals but they are not dying at all!
करीब दो हफ्ते से हम तराई के गांवों में प्रेरणा अंशु का मई अंक और मास्साब की किताब गांव और किसान लेकर जा रहे हैं। आज घर के कामकाज और आराम की गरज से नहीं निकला।
मैंने पहले ही लिखा है कि जिन गांवों में मेरा बचपन बीता है, जहां कॉलेज के दिनों में मेरा अक्सर डेरा रहता था आंदोलन के साथियों के साथ, उन गांवों में हमारे लिए अब भी उतनी ही मुहब्बत है, इसका अहसास मुझे हैरान कर रहा है।
डीएसबी में पढ़ते हुए या कोलकाता तक नौकरी करते हुए कभी नैनीताल मेरा होम टाउन हुआ करता था। पहाड़ के गांवपन में छात्र जीवन में नैनीताल समाचार लेकर खूब घूमता रहा हूँ। अब नैनीताल दूर किसी दूसरे अंतरिक्ष में बसा लगता है। गिरदा और दूसरे साथियों के बिना पहाड़ अब अनजाना सा लगता है।
तराई के हर गांव में मेरे प्रवास के दैरान कई पीढ़ियां बदल गई हैं। पुराने साथियों, दोस्तों में बहुत कम लोग बचे हैं। लेकिन वे मुझे भूले नहीं हैं। जो लड़कियां दिनेशपुर स्कूल में मुझसे नीचे की कक्षाओं में पढ़ती थीं, जिन्हें कभी मैं जाना ही नहीं, अब बूढ़ी हो गई हैं। जहां भी जा रहा हूँ, वे चली आती हैं और उन दिनों के याद से मुझे जोड़ती हैं।
भूले बिसरे दिनों की सुलगती यादों के दरम्यान एक गंगा सी भी निकलती है हर गांव में।
मास्साब को हर गांव में लोग जानते हैं।
हर गांव में पुलिनबाबू अभी ज़िंदा हैं।
उनके सारे रिश्ते और उनकी सारी गतिविधियों के बीच लोग हमें भी शामिल मान रहे हैं।
विकास और मै, विकास रूपेश और मैं, मैं और रूपेश, रवि और विकास, विकास और असित अलग-अलग टीम बनाकर गांव गांव जा रहे हैं।
शाम सात बजे तक लौटना होता है।
कोरोना काल है।
सरकारी कोरोना दिशा निर्देश भी मानने होते हैं।
रोज़ी रोटी का अभूतपूर्व संकट है।
कारोबार ठप है।
युवा नौकरी से बेदखल हैं।
प्रवासी मज़दूर क्वारंटाइन सेंटरों में हैं।
ऐसे माहौल में बुनियादी मुद्दों और जरूरतों के अलावा तराई बसने की कथा, पुराने दिनों की याद में डूबे स्त्री पुरुष की गर्मजोशी और बेइंतहा प्यार से सम्मोहित हूँ।
हम दिनेशपुर, गदरपुर, गूलरभोज और रुद्रपुर के गांवों में घूम चुके हैं। आगे यह सिलसिला लगातार चलता रहेगा।
रूपेश ने रोविंग रीपोर्टिंग का सिलसिला शुरू कर दिया है।
गावों से ही देश, प्रकृति और पृथ्वी को बचाने का रास्ता निकलेगा।
मास्साब और पुलिनबाबू दोनों यही कहते थे कि राजधानियों के मठों से नहीं, गांवों के मेहनतकश किसानों और मज़दूरों के मजबूत हाथों से ही बदलाव का रास्ता निकलेगा।
धूल और कीचड़, खड्डों से लबालब, खेतों की हरियाली से सरोबार जंगल की आदिम गन्ध से लिपटा उस सड़क की खुशबू हमें गांव-गांव खींचकर ले जा रही है।
चंडीपुर के सन्यासी मण्डल तराई बसाने वाले लोगों की पीढ़ी से हैं। हाल में उनके बेटे का निधन हुआ है। फिर भी अद्भुत जोश हैं उनमें। कहते हैं, फिर आना पूरे इलाके के लोगों को बुला कर बात करेंगे।
गूलर भोज लालकुआं रेल लाइन के पास बुजुर्ग गणेशसिंह रावत ने तराई बसने की कथा सिलसिलेवार बताई और पंडित गोविंद बल्लभ पंत, जगन्नाथ मिश्र और पुलिनबाबू को तराई बसाने का श्रेय दिया।
हरिपुरा में मेरे बचपन के दोस्त राम सिंह कोरंगा और उनके छोटे भाई मानसिंह मिले। उनका बड़ा भाई मोहन मेरा खास दोस्त था,जो याब नहीं हैं। उनके पिता नैन सिंह दिनेशपुर हाईस्कूल में हमारे गुरुजी और पुलिनबाबू उनके मित्र थे। राम सिंह के घर मास्साब और पुलिनबाबू जब तब पहुंच जाते थे। मेरा भाई पद्दोलोचन भी मास्साब के साथ थारू बुक्सा और तराई के गांव-गांव घूमता रहा है।
दिनेशपुर, बाजपुर, गदरपुर और रूद्रपुर पोस्ट आफिस के पोस्ट मास्टर समीर राय ने रुद्रपुर के नन्दबिहार के अपने घर में हमसे कहा, पुलिनबाबू और मास्साब कहाँ नहीं जाते थे, यह पूछो।
समीर ने प्रेरणा अंशु का आजीवन सदस्यता शुल्क दो हजार रुपये तुरन्त दे दिए। उसके बड़े भाई बिप्लव दा का निधन गांव हरिदास पुर में हुआ तो मैं और रूपेश पहले घर गए, फिर श्मशानघाट। हम तेरहवीं में भी उनके साथ थे।
गांव सुंदरपुर में तराई बसाने वालों में सबसे खास राधाकांत राय के बेटे प्रदीप राय से बातचीत हुई। तराई में जनता के हक़हकूक के लिए आंदोलन करने वाली उदवास्तु समिति के अध्यक्ष थे राधाकांत बाबू, जो अपढ़ अपने साथियों में एकमात्र पढ़े लिखे थे। पुलिनबाबू तब समिति के महासचिव थे और वे कक्षा दो तक पढ़े थे।
राधाकांतबाबू के छोटे भाई हेमनाथ राय अभी नहीं हैं, जिनसे मेरी बहुत घनिष्ठता थी।
सुन्दरपुर से दिनेशपुर हाई स्कूल में सबसे ज्यादा लड़के पढ़ते थे, जिनमें जगदीश मण्डल बागेश्वर से सीएमओ पद से हाल में रिटायर हुए। कमल कन्नौज के एसीएमओ है।
ननीगोपाल राय बहुत बीमार हैं। उनसे मिलने गए तो पता चला उनके बड़े भाई डॉ फणीभूषन राय का निधन हो गया।
राधकांतपुर नें तराई नें बसे बंगालियों में पहले ग्रेजुएट रोहिताश्व मल्लिक घर में अकेले थे। लेकिन उन्होंने हमें बिठाया और सिलसिलेवार बात की। वे तराई की बसावट के चश्मदीद गवाह हैं।
लक्खीपुर में तराई बसाने वालों में खास हरिपद मास्टर के घर गए। उनके बेटे दिवंगत अमल दा सरपंच थे।
हरिपद मास्टर जी के बेटे पीयूष दा 77 साल के हैं और बचपन से हमारे वैचारिक मित्र हैं। वहीं मुहम्मद शाहिद से मुलाकात हो गई। वह भी हमारा वैचारिक साथी है। उसके साथ अलग से गांवों में निकलना है।
लक्खीपुर से प्रफुल्लन गर गए। शिवपद जी पुराने मित्र निकले। फिर दीपक चक्रवर्ती के घर गये। उनकी बेटी अंकिता ने बारहवीं में उत्तराखण्ड टॉप किया था और इस वक्त दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ रही है। विज्ञान पर शोध करना चाहती है लेकिन कविता भी लिखती है।
दीपक के घर मेरे गांव की शीला करीब चालीस साल बाद मिली। वहां महिलाओं से खूब बातें हुईं।
सर्वत्र प्रेरणा अंशु और गांव और किसान का स्वागत हुआ। किताब को लेकर बुजुर्गों में ज्यादा गर्मजोशी है। सबने किताब के सौ-सौ रुपये दिए।
पूर्वी बंगाल में पाकिस्तानी सैन्य दमन से पहले प्रोफेसरों, पत्रकारों, साहित्यकारों और छात्रों को उनके विश्वविद्यालयों और हॉस्टलों के साथ टैंक की गोलाबारी से उड़ाया गया था। हमारे यहां क्या आगे वही होना है?
अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कार्यकर्ता व पत्रकार गौतम नवलखा की भीमा कोरेगांव मामले में गिरफ़्तारी से कैसे जूझ रही हैं उनकी जीवन साथी सहबा हुसैन, यह जानने के लिए वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह पहुंची उनके घर। बातचीत में सहबा ने बताया कि आज UAPA को तमाम एक्विस्टों पर जिस तरह से लगाया जा रहा है, उससे लगता है कि यह एक नया औज़ार मिल गया है असहमति के स्वर को कुचलने का। साथ ही उन्होंने कहा कि गौतम सहित बाक़ी तमाम 11 लोगों की रिहाई के लिए बड़ा आंदोलन करना होगा। इस पर भाषा सिंह का वीडियो साझा कर चुका हूं।
एके पंकज के शब्दों में
तीन हजार साल से
‘सभ्यता और विकास’ नामक वायरस
आदिवासियों को मार रहा है
पर वे हैं कि मरते ही नहीं!
पलाश विश्वास