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vladimir putin
यूक्रेन : बदलता वैश्विक परिदृश्य, कमजोर होती साम्राज्यवादी शक्तियां और विकसित होती क्रांतिकारी परिस्थितियां
यूक्रेन की जनता 24 फरवरी से रूसी हमले के बाद से, तबाही और बरबादी से जूझ रही है। शिकार वह अमेरिका व अन्य यूरोपीय देशों के सैन्य संगठन नाटो (उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन) की साजिशों की भी है। इन्होंने ही रूस की घेराबंदी के लिए यूक्रेन की आंतरिक राजनीति में दखलंदाजी (Interference in Ukraine's internal politics) करके सत्ता पर काबिज दलाल नौकरशाह शासक वर्ग को प्रलोभित किया, युद्ध भड़काया और यूक्रेन के समर्थन के नाम पर घातक हथियारों की अपूर्ति कर रहे हैं।
कितने देशों के पास परमाणु बम हैं? | How many countries have atomic bombs?
परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की धमकियां और तीसरे महायुद्ध की संभावनाओं की चर्चाएं आम हैं। इन आशंकाओं को सहज नकारा नहीं जा सकता।
स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (Stockholm International Peace Research Institute) के अनुसार दस देश हैं, जिनके पास परमाणु बम हैं। उनमें रूस के पास 6200, अमेरिका के पास 5800, ब्रिटेन के पास 225, फ्रांस के पास 290, चीन के पास 320, भारत के पास 150, पाकिस्तान के पास160, इजरायल के पास 90उत्तरी कोरिया के पास 30-40 परमाणु बम हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के अंत में 6 अगस्त 1945 को अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा नगर पर 15 किलो टन वाला परमाणु बम गिराया गया था। इससे 1.46 लाख लोग मरे थे। उस समय वहां की कुल आबादी 3.45 लाख थी।
सोवियत संघ के विघटन और वारसा संधि के खात्मे के बाद अमेरिका ने नाटो का और अधिक विस्तार किया है। उसने 1999 में पूर्वी यूरोप के देश चेक गणराज्य, हंगरी और पोलैंड, 2004 में बल्गेरिया, एस्टोनिया, लातविया, लिथुआनिया, रोमानिया, स्लोवाकिया, 2009 में अल्बानिया और क्रोएशिया, 2017 में मोंटेनेग्रो और 2020 में उत्तर मैसेडोनिया को इस सैन्य संधि में सम्मिलित कर लिया है।
अब यूक्रेन को नाटो में सम्मिलित करने की कोशिश से भड़के इस युद्ध के दौरान फिनलैंड और स्वीडन को भी नाटो का सदस्य बनाने की प्रक्रिया काफी हद तक पूरी की जा चुकी है। ये दोनों अभी तक नाटो और रूस के मध्य बफर देश रहे हैं। फिनलैंड के साथ तो रूस की 1340 किलोमीटर सीमा लगती है। यही नहीं, बाल्टिक सागर में सुरक्षा के नज़रिए से भी रूस के लिए यह चिंता का सबब है।
बाल्टिक सागर के किनारे स्थित कलिनिनग्राद में रूस का खास सैन्य अड्डा है। हाल ही में रूस ने यहां छद्म परमाणु मिसाइल हमले का एक अभ्यास किया था।
रूस-यूक्रेन युद्ध (Russo-Ukraine War) के साथ वैश्विक अर्थ व्यवस्था का संकट और गहरा हो गया है।
रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों की वजह से कोयला, तेल और प्रकृतिक गैस की आपूर्ति बाधित हुई है। खासतौर से यूरोपीय देशों में उद्योगों और आने वाली सर्दियों में घरों को गर्म रखने के लिए गम्भीर ऊर्जा संकट की स्थिति है। इसके अतिरिक्त खाद्यान्न संकट भी दुनिया के लिए चिंता का सबब बन गया है। दुनिया में गेहूं के कुल निर्यात में से 25 प्रतिशत गेहूं रूस और यूक्रेन से आता है।
भारत के उत्तर प्रदेश और राजस्थान दो प्रांत के बराबर आकार और लगभग 4 करोड़ आबादी वाला यूक्रेन, दुनिया में कुल निर्यातित गेहूं का 10 से 12 फीसदी निर्यात करता है। वहां 2021-22 में तकरीबन 33 मिलियन मीट्रिक टन गेहूं का उत्पादन हुआ था। उसने इसमें से लगभग 20 मिलियन मीट्रिक टन गेहूं अन्य देशों को बेचा। अब, फसल की बरबादी तथा रूस व यूक्रेन से गेहूं के निर्यात न होने की स्थिति में खाद्य मंहगाई बढ़ना तय है। इस कमी को पूरा करने के लिए जिन देशों से गेहूं खरीदा जाएगा वहां गेहूं महंगा होगा, इसकी झलक भारत में देखी जा चुकी है।
प्रभाव क्षेत्र के विस्तार के लिए रूस-अमेरिका का यह द्वंद्व, साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच जारी उस जंग का हिस्सा है, जो अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की हार के बाद वैश्विक व्यवस्था के पुनर्गठन के लिए जारी है।
अमेरिका बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था में अपनी सरगनाई बरकरार रखने के लिए जी तोड़ कोशिश कर रहा है। रूस जारकालीन विशाल साम्राज्य की पुनर्स्थापना का सपना संजोए आक्रामक तेवर में है।
यूरोपीय देशों का रूस के साथ मुख्य अंतर्विरोध क्या है?
यूरोपीय संघ के देश, अमेरिका के दबाव तथा नाटो का सदस्य होने की स्थिति में यूक्रेन को हथियार तो दे रहे हैं, उनकी स्थिति सांप-छछूंदर जैसी है। ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से बाहर हो जाने के बाद, यहां फ्रांस और जर्मनी मुख्य भूमिका में हैं।
यूरोपीय देशों का रूस के साथ मुख्य अंतर्विरोध (The main conflicts of European countries with Russia) पूर्वी यूरोप के देशों के बाजार और संसाधनों को लेकर है। वे चाहते हैं वार्ता के जरिए समधान के रास्ते से रूस को झुकाया जाए। युद्ध का विस्तार या इसे लम्बा खींचने में उनकी रुचि नहीं हैं, ऐसा करना उनकी अर्थ व्यवस्था के हित में नहीं होगा। ये देश नाटो के सदस्य जरूर हैं परंतु अमेरिका से स्वतंत्र नीति अपनाना चाहते हैं। बहरहाल, रूस के मुकाबले के लिए अमेरिका पर निर्भरता इनकी मजबूरी है।
फ्रांस में तीन प्रमुख राजनीतिक दल (गठबंधन) सत्ता की दौड़ में हैं। इनमें से नेशनल रैली दक्षिणपंथी दल है। वह रूस के साथ संबंधों के बिगाड़ के पक्ष में नहीं है। बेरोजगारी और महंगाई से परेशान फ्रांस में यूक्रेन से आने वाले शरणार्थियों को पनाह देने और यूक्रेन को हथियार देने का नेशनल रैली ने मुखर विरोध किया है। इसकी नेता मरिन ली पेन अप्रेल में हुए राष्ट्रपति पद के चुनाव में ला रिपब्लिक एन मोर्चे (गठबंठन) के प्रत्याशी इमैनुएल मैक्रों से हार गई हैं फिर भी, उनकी पार्टी ने नेशनल असेम्बली में बेहतर प्रदर्शन करके 89 स्थानों पर जीत दर्ज की है। वामपंथियों की संख्या नेशनल असेम्बली में दूसरे नंबर पर है, 131 सांसद चुनाव जीते हैं, जबकि 2017 में इनकी संख्या 45 थी।
यूक्रेन को हथियरों की आपूर्ती करने वाले इमैनुएल मैक्रों दूसरी बार राष्ट्रपति का चुनाव जरूर जीत गए परंतु 577 सीट वाले सदन में उनके गठबंधन को 245 स्थान पर ही कामयाबी हासिल हो सकी है। पिछली बार उनके सांसदों कि संख्या 350 थी।
फ्रांस में राष्ट्रपति का चुनाव आम जनता चुनती है और वह कार्यपालिका का प्रधान होता है। इसके बावजूद, नेशनल असेम्बली में स्पष्ट बहुमत के अभाव में महत्वपूर्ण फैसलों के लिए मैक्रों को वाम या दक्षिण में से किसी एक पर निर्भर होना होगा। बेरोजगारी, महंगाई के कारण फ्रांस की जनता में भारी असंतोष है। यूक्रेन से आ रहे शरणारणार्थियों की भारी तादाद और ऊर्जा के बढ़ते संकट ने समस्या को जटिल कर दिया है। मैक्रों मध्यमार्गी हैं, वैसे भी वे अमेरिका पर निर्भरता कम करने तथा यूरोप के स्वतंत्र सैन्य संगठन के हिमायती रहे हैं। राष्ट्पति के रूप में उनका यह अंतिम कार्यकाल है, फ्रांस में कोई व्यक्ति लगातार दो बार से अधिक राष्ट्रपति नहीं रह सकता।
जर्मनी में भी फ्रांस की तरह त्रिशंकु स्थिति है।
जर्मनी की संसद (बुंडेस्टाग) के लिए 2021 के चुनाव में किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने के कारण वहां भी तीन प्रमुख गठबंधन सोशल डेमोक्रेट (206), ग्रीन(118) और फ्री डेमोक्रेट(92) ने मिलकर सरकार बनाई है। सत्तारूढ़ क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी/ क्रिश्चियन सोशल यूनियन (SDP/SCU) 197 स्थान पर सिमट कर मुख्य विपक्षी दल है। इसके नेता फ्रेडरिक मर्ज़ ने हाल ही में यूक्रेन का दौरा किया।
जर्मनी हालांकि यूक्रेन को हथियार देकर मदद कर रहा है परंतु भारी हथियार जो रूस के सुदूर भीतरी इलाकों तक मार कर सकें, देने में परहेज कर रहा है, जबकि फ्रेड्रिक मर्ज़ यूक्रेन को भारी हथियार देने के पक्ष में हैं।
जर्मनी के चांसलर ओलाफ़ स्कोल्ज़ ने भारी हथियार देने से युद्ध के विस्तृत होने व अन्य देशों के भी इसमें संलिप्त होने की संभावना व्यक्त करते हुए, तीसरे विश्वयुद्ध व परमाणु युद्ध छिड़ सकने के प्रति सतर्क किया है। वे यूक्रेन और रूस के बीच समझौता वार्ता के पक्ष में है।
जर्मनी-फ्रांस-इटली के नेतृत्व में यूरोप (पुराना यूरोप) नाटो कि सदस्यता के बावजूद अमेरिका से सवतंत्र नीति का पक्षधर है। रूस के साथ इनका अंतर्विरोध पूर्वी यूरोपीय देशों को लेकर है। वे वहां के बाजार और संसाधनों के प्रति लालायित हैं।
क्या है अमेरिका की "नए यूरोप" की रणनीति का मकसद?
अमेरिका की "नए यूरोप" की रणनीति का मकसद रूस-पश्चिम यूरोप के अंतर्विरोध को हवा देना है। वह समझता है यूरोपीय देशों का रूस के साथ जितना अंतर्विरोध बढ़ेगा, अमेरिका के साथ उनका अंतर्विरोध उतना ही कम होगा। वह यूक्रेन युद्ध को लंबा खींचकर रूस को कमजोर और यूरोपीय देशों को अपने अनुकूल करना चाहता है। इस तरह बहुध्रुवीय व्यवस्था में अपनी सरगनाई बनाए रखना उसकी रणनीति है।
ब्रिटेन यूरोपीय संघ के देशों में अमेरिका के घुसने में सहायक है। वह समझता है कि अमेरिका की मदद से उत्तरी आयरलैंड प्रोटोकाल की बंदिशों को शिथिल करने में उसे मदद मिलेगी। उत्तरी आयरलैंड प्रोटोकॉल यूरोपीय संघ (ईयू) और यूनाइटेड किंगडम (यूके) के बीच लगातार तनाव का विषय बना हुआ है।
ब्रिटेन चाहता है उसके और आयरलैंड गणराज्य के बीच व्यापार में यूरोपीय संघ की शर्तों से आजादी, जबकि यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के हट जाने के बाद आयरलैंड गणराज्य यूरोपीय संघ का सदस्य है, उत्तरी आयरलैंड ब्रिटेन के अंतर्गत है। यूरोपीय संघ के देशों में एकीकृत बाजार व मुक्त आवागमन की व्यवस्था है।
चीन सिर्फ हिंद-प्रशांत क्षेत्र में ही अमेरिका के लिए चुनौती नहीं है। अमेरिका और चीन के बीच व्यापारिक युद्ध (ट्रेड वार) भी चल ही रहा है। चीन में पूंजीवाद की पुनर्स्थापना, समाजवादी व्यवस्था को राजकीय पूंजीवादी व्यवस्था में बदला गया। "खुले दरवाजे की नीति" के जरिए अमेरिका और अन्य पूंजीवादी देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आमंत्रित किया गया। मुनाफा बढ़ाने की गरज से ये कंपनियां सस्ते श्रम से यहां माल तैयार करवाकर दुनिया में बेचने लगी। इस तरह से चीन "दुनिया के वर्कशॉप" में तब्दील होता गया। इस प्रक्रिया में पूंजी और विदेशी मुद्रा का अर्जन हुआ। चीन में विकसित पूंजीवादी अभिजात्य वर्ग, जिसमें चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेता और नौकरशाह शामिल थे, इस शोषण और मुनाफे की लूट में भागीदार बने। शासक वर्ग ने यहां अब उच्च उच्च तकनीक और पूंजीगत माल के उत्पादन पर ध्यान दिया। सेना का आधुनिकीकरण और सशक्तिकरण किया। जमा पूंजी का उपयोग करके अपने उद्योगों के लिए पेट्रोलियम उत्पादों और खनिजों को खरीदा। अपने यहां तैयार माल को दुनिया के बाजारों में बेच कर भारी मुनाफा कमाना शुरू किया। उन्होंने रूस में पेट्रोलियम की खोज और मध्य एशिया में खनिज दोहन के अलावा पश्चिम एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में बड़े स्तर पर पूंजी निवेश करने की शुरुआत की।
स्थिति यह है कि लैटिन अमेरिका, जिसे अमेरिका का पिछवाड़ा कहा जाता है, चीन वहां सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है। उसने रूस और मध्य एशियाई देशों के साथ अपने आर्थिक संबंध घनिष्ठ किए हैं। वहां प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में निवेश किया है और उन्हें तैयार माल की आपूर्ति कर रहा है।
बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के माध्यम से बड़े पैमाने पर निवेश कर चीन अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार कर रहा है। दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद में (GDP) में अमेरिका का योगदान24 प्रतिशत है। उसके बाद चीन का ही नंबर आता है, जिसका सकल घरेलू उत्पाद 17 प्रतिशत है।
चीन सिर्फ आर्थिक क्षेत्र में ही अमेरिका का मुख्य प्रतिस्पर्धी नहीं है, वह सैन्य क्षेत्र में भी चुनौती है। हिंद प्रशांत क्षेत्र में उसने जवाबी व्यूहबंदी कर ली है। महत्वपूर्ण रणनीतक ठिकानों, बंदरगाहों पर उसकी उपस्थिति है। अफ्रीकी श्रंग के देश जिबूती में चीन का पहला सैन्य अड्डा है।
दुनिया निरंतर बदल रही है।
यह परिवर्तन सीधी रेखा में नहीं, घुमाव-फिराव के साथ है, परिवर्तन की गति ऊपर-नीचे, आगे-पीछे होती रहती हैं। इसके बावजूद परिवर्तन की दिशा यही है कि साम्राज्यवाद लगातार पतनोन्मुख है। साम्राज्यवाद के अंतर्विरोध और उसका संकट (Contradictions and Crisis of Imperialism) लगातार गहरा हो रहा है। साम्राज्यवाद और शोषित देशों का टकराव लगातार बढ़ रहा है। विकसित पूंजीवादी देश भी आर्थिक-राजनीतिक संकट और अस्थरता के दौर में हैं।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद दुनिया में मजदूर वर्ग के संघर्ष और शोषित राष्ट्रों में आजादी की लड़ाई तेज हुई। साम्राज्वादी रूस में मजदूर वर्ग ने क्रांति कर मजदूर वर्ग का राज कायम किया। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अनेक देश आजाद हुए। वे पूंजीवाद की जगह समाजवाद की दिशा में बढ़े। विश्व मानवता ने युद्ध और शोषण की व्यवस्था की जगह समता व भेदभाव रहित समाज की दिशा में कदम बढ़ाए।
आज समाजवादी रूस (पूर्व सोवियत संघ) और चीन दोनों पूंजीवादी बन चुके हैं। विकास के नाम पर नए आजाद देशों के शासक वर्ग बहुराष्ट्रीय कंपनियों के माध्यम से साम्राज्यवाद के मकड़जाल में फंसे हुए हैं। इस सबके बावजूद, साम्राज्यवादी व्यवस्था का संकट कम नहीं हुआ। दुनिया में भूख की समस्या, गरीबों कि संख्या और असमानता बढ़ रही है। भेदभाव, हिंसा और युद्ध का दावानल फैलता जा रहा है।
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन कह रहे हैं कि 1900 से 1945 तक (दो विवयुद्ध) के अंतराल में 6 – 6 करोड़ लोगों की जान की कीमत पर वर्तमान "सभ्य" "लोकतांत्रिक" समाज बन सका है।
अब जब तीसरे युद्ध और परमाणु हथियारों का जखीरा है, तो जाहिर है फिर वे करोड़ों की जान के बदले संकट से निकलने की मानसिकता में हैं। लोकतंत्र और सभ्यता की दुहाई देने वाले श्वेत नस्लवादी, फासीवादी, दक्षिणपंथी तानाशाही के रास्ते पर हैं।
प्रतिक्रियावाद और क्रांति के बीच यथास्थिति की दुहाई देकर बीच का रास्ता निकालने वाले समझौतापरस्तों के लिए गुंजाइश खत्म होती जा रही है। स्थितियां जिस दिशा में हैं, क्रांति के जरिए शोषण औेर लूट की व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। बिना किसी हीलाहवाले कुरबाइयों के इंकलाबी रास्ते पर आगे बढ़ना ही होगा। अन्य रास्ते भूल-भुलैया के अलावा कुछ और नहीं हैं। इंकलाब ही एकमात्र रास्ता है।
कमल सिंह
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The world is at a new turning point with the ongoing war in Ukraine