आईपीसीसी के वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन के भौतिक विज्ञान पर आधारित तीन भागों वाली रिपोर्ट का पहला हिस्सा जारी किया। इसके निष्कर्षों से यह साफ जाहिर होता है कि भारत अब जलवायु परिवर्तन से जुड़े मामलों को पर्यावरण एवं वन मंत्रालय का पिछलग्गू नहीं बनाये रख सकता।
संयुक्त राष्ट्र की इकाई द इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) जलवायु परिवर्तन प्रक्रिया मैं आए नए बदलावों से संबंधित जानकारी इकट्ठा कर उनका विश्लेषण करती है। आईपीसीसी की विभिन्न रिपोर्टों का बार-बार आकलन किया जाता है और व्यापक चक्र में यह कवायद 5-7 साल तक की जाती है। छठा आकलन चक्र इस समय चल रहा है और इसकी पूरी रिपोर्ट वर्ष 2022 तक जारी होगी। पिछली रिपोर्ट 8 साल पहले प्रकाशित की गई थी। जलवायु परिवर्तन के भौतिक विज्ञान आधार से संबंधित आईपीसीसी की पहली रिपोर्ट कल जारी हुई है और यह सरकार से विचार विमर्श के जरिए पारित की गई है।
नए निष्कर्ष बताते हैं कि वैश्विक तापमान में वृद्धि को डेढ़ डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने का लक्ष्य हासिल करने का वक्त हाथों से फिसलता जा रहा है!
आईपीसीसी की रिपोर्ट बताती है कि पिछले 8 वर्षों के दौरान बहुत से बदलाव हुए हैं। पिछले तीन दशकों के डेटा का आकलन करने के बाद आईपीसीसी के वैज्ञानिकों ने दुनिया की जलवायु में आए बड़े बदलावों के तीन प्रमुख पहलुओं को लेकर चेतावनी जारी की है।
पहला, इसमें जरा भी संदेह नहीं है कि इंसान की गतिविधियां ही जलवायु में तेजी से हो रहे बदलाव के लिए जिम्मेदार हैं। दूसरा, धरती का तापमान उस रफ्तार से बढ़ रहा है जितना कि पिछले 2000 साल के दौरान भी नहीं बढ़ा था। कार्बन डाइऑक्साइड के साथ-साथ मीथेन को भी ग्रीन हाउस गैस के तौर पर पहचाना गया है जो ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार है। साल दर साल बढ़ती तपिश और उसे लेकर मौजूदा रवैये को देखते हुए इस सदी के अंत तक धरती के तापमान में बढ़ोत्तरी को डेढ़ डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना बेहद मुश्किल हो जाएगा। तीसरा, मानवता के सामने दुनिया के तापमान में वृद्धि को औद्योगिक युग से पूर्व की स्थिति के मुकाबले डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने का यह आखिरी मौका होगा। चेतावनियों का छोटे सा छोटा अंश भी हमारे लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग ग्लेशियर के पिघलने, तपिश बढ़ने, महासागरों का तापमान बढ़ने (जिससे चक्रवाती तूफानों की भी क्षमता और आवृत्ति में वृद्धि होती है) जैसी घटनाओं में सक्रिय योगदान कर रही है।
अगले 10 साल मानवता के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। हमें प्रदूषणकारी तत्वों के उत्सर्जन में कमी करने के लिए सामूहिक प्रयास करने ही होंगे और वर्ष 2050 तक शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए चरणबद्ध ठोस कदम उठाने पड़ेंगे।
भारत पर किस प्रकार असर पड़ रहा है
पिछले कुछ महीनों के दौरान भारत में मौसमी स्थितियां चरम पर पहुंच गई हैं। इसे जलवायु संबंधी स्थितियों में बहुत तेजी से हो रहे बदलावों से जोड़कर देखा जा सकता है। चाहे वह चमोली में आई आपदा हो, सुपर साइक्लोन ताउते और यास हों और देश के कुछ हिस्सों में हो रही जबरदस्त बारिश हो, भारत जलवायु से संबंधित लगभग हर पैमाने से जुड़ी गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है। भारत की कृषि-पारिस्थितिकी का दायरा रेगिस्तान से लेकर ठंडी जलवायु वाले इलाकों तक, तटीय क्षेत्रों से पर्वतीय पर्यावरण वाले इलाकों तक और अर्द्ध- शुष्क मौसम वाले बड़े इलाकों तक फैला हुआ है। इन सभी क्षेत्रों में हमारे सामने चुनौतियां खड़ी हैं। चाहे वह अप्रत्याशित मानसून और बाढ़ हो, समुद्र के जलस्तर में बढ़ोत्तरी हो, हिमालय के पिघलते हुए ग्लेशियर हों, चक्रवातों की बढ़ती तीव्रता और आवृत्ति हो या जबरदस्त तपिश हो।
भारत को जलवायु परिवर्तन से संबंधित एक अलग मंत्रालय की जरूरत है
आईपीसीसी की ताजातरीन रिपोर्ट जारी होने के बाद जलवायु परिवर्तन एक बार फिर चर्चा में है। कुछ साल पहले के ढर्रे के विपरीत जलवायु परिवर्तन अब अखबार के छठे पेज की खबर नहीं है। अब यह फ्रंट पेज पर सुर्खियों में छा रहा है। अब इस पर रोजाना चर्चा हो रही है जिससे जाहिर होता है कि यह चिंता अब मुख्यधारा के विमर्श का हिस्सा बन गई है। इसके लिए वर्ष 2021 में भारत में आई कुछ चरम मौसमी आपदाओं और बड़ी घटनाओं को जिम्मेदार माना जा सकता है।
जब जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दे मुख्य चर्चा का विषय बन चुके हैं, ऐसे में जलवायु परिवर्तन अब भी पर्यावरण एवं वन मंत्रालय का हिस्सा क्यों बना हुआ है? इस वक्त जलवायु परिवर्तन से संबंधित मुद्दे पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के एक प्रभाग या डिवीजन द्वारा देखे जाते हैं। यह एक नोडल एजेंसी की तरह काम करता है जो जलवायु परिवर्तन सहयोग, वैश्विक विचार विमर्श तथा जलवायु परिवर्तन से संबंधित राष्ट्रीय कार्य योजना जैसे विषयों को देखता है। जलवायु परिवर्तन आज के वक्त में पर्यावरण और वन से कहीं ज्यादा बड़ा विषय है और मंत्रालय में सिर्फ एक डिवीजन या डेस्क मात्र के जरिए इस विकराल होती समस्या से नहीं निपटा जा सकता है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को न्यूनतम करने के लिए भारत को अनुकूलन और न्यूनीकरण के प्रयासों पर एक साथ ध्यान देने की जरूरत है। इस वक्त जलवायु संबंधी जोखिमों से बचने के लिए भारत मौसम संबंधी पूर्वानुमान पर निर्भर करता है और प्रभावित क्षेत्रों से ज्यादा से ज्यादा लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने की प्रणाली को अपनाता है। राहत और बचाव कार्य तो मौसम संबंधी आपदाओं के होने के बाद का मामला है लेकिन लोगों को हालात के मुताबिक ढालने के लिए अभी बहुत सा काम किया जाना बाकी है। जलवायु संबंधी प्रभावी कदम उठाने के लिए अन्य क्षेत्रों के साथ तालमेल बैठाना जरूरी है। इनमें मूलभूत ढांचा, ऊर्जा, सिंचाई, जल संसाधन ग्रामीण विकास, नगर विकास और महिला एवं बाल विकास इत्यादि क्षेत्र शामिल हैं। भारत जैसे देश के आकार और उसकी आबादी को देखते हुए यह काम बहुत जटिल है दीर्घकालिक समाधानों की बात करें तो इसमें शहरों की योजना का फिर से खाका खींच कर या उसे फिर से बना कर उन्हें जलवायु के प्रति सतत बनाया जा सकता है। नगरीय तथा ग्रामीण इलाकों में झीलों और तालाबों का पुनरुद्धार करके प्राकृतिक जल निकासी प्रणालियों को मजबूत बनाने की दिशा में काम करने, नगरीय क्षेत्रों में जलभराव रोकने के लिए निकासी की व्यवस्था करने, जंगलों के पुनरुद्धार तथा प्रदूषणकारी तत्वों के उत्सर्जन में कमी लाने से संबंधित अन्य प्रयास भी इस दीर्घकालिक समाधान का हिस्सा हैं। इसके अलावा इस सदी के मध्य तक नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करने के लिए भारत को उद्योगों और कारोबारियों के साथ आम राय बनाने की दिशा में भी काम करने की जरूरत है।
जलवायु संबंधी कदमों को आगे बढ़ाने के लिए भारत को अभी बहुत काम करना होगा और वह अंतर्राष्ट्रीय विचार विमर्शों में जलवायु परिवर्तन के विषय को आगे बढ़ाने के मामले में विश्व नेता बन सकता है। यह दुनिया के दक्षिणी हिस्से में स्थित देशों के लिए है जहां नेतृत्व का अभाव है। ऊर्जा दक्षता और इंटरनेशनल सोलर एलाइंस के गठन की पहल से यह जाहिर होता है कि भारत के पास अनुकूलन और न्यूनीकरण के प्रयासों की दिशा में नेतृत्व करने का दमखम है लेकिन हमारी विश्वसनीयता तभी बनेगी जब हम अपने घर में ही चीजों को बेहतर करने में सफल होंगे।
जलवायु परिवर्तन की बढ़ती विकरालता के बीच ये बड़े-बड़े काम किसी मंत्रालय का पिछलग्गू बनकर अंजाम नहीं दिया जा सकते। यही सही समय है कि भारत जलवायु परिवर्तन से संबंधित एक अलग मंत्रालय बनाए और अपने लोगों के बेहतर भविष्य के लिए कार्य योजना का खाका तैयार करके दुनिया को दिखाए कि धरती और उस पर रहने वाले लोगों के हितों, कारोबारी मुनाफा और हरित अर्थव्यवस्था में संतुलन बनाना अब भी मुमकिन है।
डॉक्टर अंजल प्रकाश इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस में भारती इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी में शोध निदेशक हैं। वह शहरों, बसावटों तथा मुख्य मूलभूत अवसंरचना से जुड़े अध्याय और आईपीसीसी के छठे आकलन चक्र के हिस्से के तौर पर शामिल पर्वतों से सम्बन्धित क्रॉस चैप्टर पेपर के प्रमुख लेखक हैं। यहां व्यक्त किये गये विचार उनके निजी हैं।
Dr. Anjal Prakash; Research Director and Adjunct Associate Professor, Bharti Institute of Public Policy, Indian School of Business, Hyderabad, India
Dr. Anjal Prakash is Research Director and Adjunct Associate Professor, Bharti Institute of Public Policy, Indian School of Business (ISB), Hyderabad India. Before joining ISB, Dr. Prakash worked with TERI- School of Advanced Studies, New Delhi, India as an Associate Professor in the Department of Regional Water Studies. His earlier association was with International Center for Integrated Mountain Development (ICIMOD), in Kathmandu, Nepal where he was the Coordinator of the programme - Himalayan Adaptation, Water and Resilience (HI-AWARE) Research on Glacier and Snowpack Dependent River Basins. Dr. Prakash is coordinating lead author for the IPCC Special Report on the Ocean and Cryosphere in a Changing Climate (SROCC). He has also a Lead author in the chapter on cities, settlements and key infrastructure in the Working Group II of IPCC’s 6th Assessment Report. Recently he was nominated as member of the Gender Task Group of IPCC to develop a framework of goals and actions to improve gender balance and address gender-related issues within the IPCC. Dr Prakash’s work focusses on water and climate change, urban resilience, gender and social inclusion issues covering south Asia.