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There was no concrete work for improvement and development of agricultural infrastructure in Modi's tenure
मोदी सरकार ने अपने लगभग छः-सात साल के कार्यकाल में देश के कृषि विकास एवं कृषि क्षेत्र के लिए ठोस अधोसंरचना सुधार एवं विकास की दिशा में कोई महत्वपूर्णं काम एवं पहल नहीं किया है। पुरानी नीतियों, योजनाओं, कार्यक्रमों एवं कानूनों को बदलने के सिवाय बदलाव के नाम मोदी कार्यकाल में एक भी ऐसा ठोस काम नहीं हुआ है जिससे खेती किसानी, किसानों एवं खेतिहर समाज के आर्थिक एवं सामाजिक स्थितियों, परिस्थितियों में महत्वपूर्णं, सकारात्मक एवं सार्थक सुधार, बदलाव एवं परिवर्तन आ सके।
2022 तक किसानों की आमदनी दुगुनी करने का मामला वैसे भी जुमलेबाजी से कम नहीं था, इसके बावजूद इस दिशा में भी कोई काम नहीं हुआ है जिससे कि किसानों की आमदनी दुगनी हो सके।
आज कृषि लागतें जिस हिसाब से बढ़ रहीं हैं, इसकी तुलना में साल में छः हजार की आर्थिक सहायता किसानों के साथ मजाक से कम नहीं है।
इस समय देश में दलहन, तिलहन, आलू, प्याज जैसी रोजाना की जरूरत की फसलों के उत्पादन के लिए सरकार के पास कोई ठोस योजना नहीं है जिसके कारण साल के आधे से अधिक दिनों में इनकी कीमतें आम आदमी के बजट के बाहर होती हैं। उत्पादन से अधिक इन वस्तुओं के भंडारण, जमाखोरी एवं कालाबाजारी रोकने के लिए सरकार ने अपने कार्यकाल में कोई ठोस नीति नहीं बनाई, बल्कि उपर इनके भंडारण की सीमा ही खत्म कर दी। सिंचाई सुविधाओं के विकास एवं विस्तार के लिए आज देश में कोई ठोस परियोजनाएं नहीं हैं। किसानों की आत्महत्याएं रोकने की दिशा में सरकार ने एक भी काम नहीं किये जिसका परिणाम यह है आज देश में दर्जनों किसान रोजाना आत्महत्या कर रहे हैं।
देश़ में यद्यपि खेती-किसानी एवं कृषि विकास की दिशा में आजादी के बाद से ही सकारात्मक प्रयास किए जा रहे हैं, हर वर्ष के बजट में सरकार द्वारा कृषि विकास से संबंधित अनेक योजनाओं एवं कार्यक्रमों की घोषणा की जाती रही है, इसके बावजूद कृषि क्षेत्र की स्थिति एवं दशा-दिशा में अपेक्षित सकारात्मक सुधार बहुत कम दिखलाई देते हैं, यही कारण है कि आज आजादी के सात दशक बाद भी किसानों को सड़कों पर उतरकर आंदोलन करना पड़ रहा है। देश में कृषि विकास की सैकड़ों बल्कि ढ़ेरों योजनाओं, कार्यक्रमों एवं नीतियों के बावजूद कृषिक्षेत्र की गंभीर चिंताएं, चुनौतियां एवं समस्याएं आज भी जस की तस हैं, जिन पर सरकार को गंभीरतापूर्वक चिंतन और विचार-विमर्श करने की जरूरत है।
देश में आवश्यकता के मुकाबले उत्पादन कई गुना बढ़ गया है।
आज सारे कृषि जिंसों एवं उत्पादों का उत्पादन आवश्यकता से इतना अधिक है कि भंडारण आदि की समुचित व्यवस्था के अभाव में प्रतिवर्ष करोड़ों का कृषि उत्पाद बर्बाद हो रहा है। इनकी उचित व्यवस्था करने के बजाय सरकार, नौकरशाह, अधिकारी एवं कर्मचारी हमेशा नये-नये बहाने बनाकर देश को गुमराह करते रहते हैं। लाखों-करोंड़ों टन कृषि उत्पादों की बर्बादी कृषि क्षेत्र की सबसे बड़ी चिंता एवं चुनौती है, जिस पर सरकार को ध्यान देने की जरूरत है।
इस समय देश में कृषिक्षेत्र में रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशक दवाईयों का अंधाधुंध प्रयोग बड़ी चिंता की बात है, जिसके कारण कृषि भूमि की गुणवत्ता एवं उर्वरता शक्ति दिनोंदिन गिरती जा रही है। देश में कृषि भूमि तेजी से जहरीली होती जा रही है। रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशक दवाईयों के अंधाधुंध उपयोग के कारण प्रति एकड़ या हैक्टेयर कुल उत्पादकता या पैदावार कुछ जगहों में बढ़ तो रही है लेकिन ज़मीन की प्राकृतिक उर्वराशक्ति लगातार गिर रही है। इसके कारण खेती में अत्यधिक मात्रा में पानी की जरूरत पड़ने से देश के भूजल स्रोतों का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। सिंचाई सुविधाओं के अभाव के कारण रबी फसलों के उतपादन पर इसका प्रभाव अब स्पष्ट तौर से दिखने लगा है।
आज भी देश की दो-तिहाई से अधिक कृषि जमीनों पर खेती-किसानी मानसूनी वर्षा पर निर्भर है। सरकारों ने इस दिशा में कोई ठोस काम नहीं किये हैं। वर्तमान सरकार के आने के बाद सिंचाई सुविधाएं बढ़ाने की दिशा में कोई ठोस कार्य नहीं किये जा रहे हैं, बल्कि सरकार किसानों सहित देष के नागरिकों को केवल गुमराह करने के काम लगी है।
इन दिनों देश में कृषि विकास के नाम पर खेतीकिसानी के लिए जो निवेश हो रहा है वह अधिकांशतया पूंजीपतियों, उद्योगपतियों एवं बड़े कार्पोरेट घरानों के द्वारा ही हो रहे हैं, जिससे सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र को दी जाने वाली आर्थिक सहायता, अनुदान इन्हीं वर्ग के खाते में जा रही है। सरकार के द्वारा दी जाने वाली आर्थिक सहायता में उर्वरक, सिंचाई, खाद, बीज, कृषि यंत्र एवं उपकरण, विद्युत, और फसल बीमा आदि पर दी जाने वाली सहायता सम्मिलित होती है। लेकिन चिंता की बात यह है कि सरकार के द्वारा दी जाने वाली आर्थिक सहायता से कृषि क्षेत्र का विकास नहीं बल्कि इस राशि का दुरूपयोग अधिक हो रहा है। सरकार के दी जाने वाली इस आर्थिक सहायता का अधिकांश हिस्सा चंद बड़े किसान ही ले पा रहे हैं, और छोटे एवं मध्यम किसानों को इसका लाभ नहीं मिल रहा है।
सरकार द्वारा दी जाने वाली आर्थिक सहायता अपना प्रभाव छोड़ने में असफल रहती है। इसलिए यह सवाल भी उठता है कि कृषि क्षेत्र में दी जाने वाली आर्थिक सहायता न तो न्याय संगत है और नहीं फलोत्पादक सिद्ध हो पा रही है।
शेनगेन फैन, अशोक गुलाटी एवं सुखदेव थोराट ने 2008 में जो शोध किया था, उसके अनुसार ‘कृषि सामग्री पर दी जाने वाली सब्सिडी से गरीबी दूर करने अथवा कृषि विकास को गति देने की दिशा में कोई विशेष लाभ नहीं होता। इसके मुकाबले ग्रामीण सड़कों या कृषि शोध एवं विकास या सिंचाई, यहां तक स्वास्थ्य और शिक्षा पर होने वाले निवेश से अधिक लाभ प्राप्त होता है।’ इसका तात्पर्य यह है कि सरकार के द्वारा दी जाने वाली आर्थिक सहायता से कुछेक व्यक्तियों को ही लाभ होता है जबकि सार्वजनिक एवं सामाजिक जन कल्याण नहीं हो पाता है। इस आर्थिक सहायता की रकम को ग्रामीण सामाजिक अधोसंरचना के विकास में खर्च करके धन को समुचित सदुपयोग एवं गांवों का पर्याप्त विकास किया जा सकता है। इस पर सरकार को गंभीरता से सोचने की जरूरत है।
इस समय कृषि क्षेत्र में फसल विविधिकरण या फसल चक्र का अभाव है जिसके भूमि की उर्वरता शक्ति प्रभावित हो रही है।
कृषि सहकारिता, कृषि साख समितियों आदि में हर राज्यों में भारी भ्रष्टाचार है। इस समय देश की अधिकांश कृषि खुदकाश्त पद्धति के अंतर्गत हो रही है, जिसके कारण कृषि में तकनीक एवं प्रौद्योगिकी का प्रयोग व्यापक रूप से नहीं हो रहा है और प्रति एकड़/हेक्टेयर उत्पादकता बहुत कम है। अधिकांश राज्यों में सिंचाई सुविधाओं का समुचित विकास नहीं हो पाया है। उत्पादों के भंडारण की अपर्याप्त व्यवस्था के कारण इसके खराब होने की समस्या आम है। कृषि मजदूरों का पलायन एक बड़ी समस्या है, इस पर सरकार बुरी तरह नाकाम रही है।
यह अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश के किसानों, खेती पर पूर्णं रूप से निर्भर रहने वाले लोगों, खेती-किसानी, एवं गांवों की हालत में कोई उल्लेखनीय सुधार या प्रगति नहीं हो पा रही है। पिछले 5-7 वर्षों से कृषि विकास का जो ढ़िंढ़ोरा पीटा जा रहा है, उससे न तो किसानों की स्थिति सुधरी और न ही गांवों की स्थिति बदली है, यहां तक कि कृषि एवं उसके सहायक कार्य-व्यवसाय पर निर्भर रहने वाले परिवारों एवं छोटे, मझोले, मध्यमवर्गीय किसानों की हालत या दशा में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है।
यह बात इससे और भी स्पष्ट एवं पुष्ट हो जाती है कि देश की जानी मानी संस्था ‘नेशनल सेम्पल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) के 70 वें दौर के सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार देश के गांवों में 55 से 58 प्रतिशत परिवारों की रोजी, रोटी एवं जिंदगी खेती-किसानी से ही चलती है, एवं इन परिवारों की औसत मासिक आय 6426 रूपया है तथा देश के 52 प्रतिशत कृषक परिवार कर्ज के बोझ से दबे हैं। देश के 42 प्रतिशत कृषक विकल्प मिलने पर हमेशा के लिए खेती-किसानी छोड़ने को तैयार हैं। देश के 52.9 प्रतिशत किसानों पर आज औसतन 47,000 रूपए का ऋण है।’
अब समय आ गया है कि सरकार जागे और कृषि, खेती-किसानी, किसानों एवं खेतीहर ग्रामीण समाज की वास्तविक समस्याओं की दिशा में उचित समाधान प्रस्तुत करने के लिए सार्थक पहल करे। देश के सभी छोटी-बड़ी नदी-नाले पर हजारों की संख्या में ‘एनीकट’ बनाये जाने की तत्काल जरूरत है, जिससे वर्षा जल का संरक्षण हो सके, गिरते भू-जल स्तर पर लगाम लगे, वहीं इस पानी से खरीफ़ एवं रबी दोंनो मौसम में सिंचाईं हो सके। इससे नदी-नालों के आसपास पेड़-पौधे पनपने लगेंगे, जिससे पर्यावरणीय-पारिस्थिकीय संतुलन भी बना रहेगा।
अब देश में रबी मौसम में धान की फ़सलों के उत्पादन को हतोत्साहित किया जाये और फ़सल विविधिकरण या ‘फ़सल चक्र’ अपनाने के लिए किसानों को तैयार किये जाने की जरूरत है।
रबी मौसम में दलहन, तिलहन, साग-सब्जियों एवं अन्य नकदी फ़सलों के उत्पादन के लिए किसानों को प्रोत्साहित किये जाने की जरूरत है। इससे देश में कृषि का संतुलित विकास होगा, गिरता भूजल स्तर रूकेगा, भूमि की उर्वराशक्ति बनी रहेगी, महंगाई रूकेगी। सार यह है कि कृषि में फ़सल चक्र अपनाकर कृषि में आत्मनिर्भरता की संकल्पना को साकार किया जा सकता है।
डॉ. लखन चौधरी
(लेखक; प्राध्यापक, अर्थशास्त्री, मीडिया पेनलिस्ट, सामाजिक-आर्थिक विश्लेषक एवं विमर्शकार हैं)
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