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This is neither a coincidence nor an experiment but a project, universities were first targeted and now settlements are also burning
यह ना संयोग है ना प्रयोग बल्कि एक प्रोजेक्ट है जिसे बहुत तेजी से पूरा किया जा रहा है. भारत को ‘हम’ और ‘वे’ में बांट देने का प्रोजेक्ट, जिसके लिये कई दशकों से प्रयास किया जा रहा था. दिमागों में पैदा किये गये विभाजन और हिंसा अब जमीन पर दिखाई पड़ने लगी है, जिसके चलते भारत बहुत तेजी से नफरत, खौफ और निराशा की अंधी खाई में धंसता जा रहा है. सात दशक पहले विभाजन के दर्द को भूल कर सभी भारतीयों के बीच स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के सपने अब लगातार खाक होते जा रहे हैं.
This is the biggest communal violence after the 1984 anti-Sikh riots.
पिछले कुछ सालों से राजधानी दिल्ली लगातार निशाने पर है पहले विश्वविद्यालयों को निशाना बनाया गया और अब बस्तियां भी सुलग रही है. दिल्ली में 1984 में हुये सिख विरोधी दंगों के बाद यह सबसे बड़ी सांप्रदायिक हिंसा है. इस बार भी दिल्ली में बिना किसी रोकथाम के तीन से चार दिनों तक हिंसा का तांडव होता रहा जिसमें अभी तक 35 से अधिक लोगों के मारे जाने की पुष्टि हो चुकी है, ढाई से तीन सौ तक लोग घायल हुये हैं और बड़ी संख्या में सम्पतियों को निशाना बनाया गया.
इस दौरान पुलिस की निष्क्रियता के अलावा कई ऐसे वीडियो सामने आये हैं जिसमें यह शक पैदा होता है कि पुलिस के संरक्षण में भी हिंसा को अंजाम दिया गया है.
हिंसा शुरू होने के दो दिनों बाद दिल्ली में बैठी केंद्र सरकार की नींद खुली, लेकिन इसमें भी किसी निर्वाचित जन प्रतिनिधित की जगह राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल को हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में दौरे पर भेजा गया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ट्विटर के माध्यम से लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की गयी. लेकिन इसी के साथ ही दिल्ली हिंसा मामले की सुनवाई कर रहे जस्टिस मुरलीधर के ट्रांसफर का आदेश भी जारी कर दिया गया.
हालांकि सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम द्वारा 12 फरवरी को ही जस्टिस मुरलीधर सहित तीन जजों के ट्रांसफर की सिफारिश की गयी थी, लेकिन बाकी दो जजों का ट्रांसफर आदेश नहीं निकाला गया है. इसलिये इसे दिल्ली हिंसा मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस मुरलीधर के कड़े रुख के साथ जोड़ कर देखा जा रहा है जिसमें उन्होंने केंद्र सरकार व दिल्ली पुलिस को जमकर फटकार लगायी थी और सत्ताधारी पार्टी के नेताओं पर एफआईआर दर्ज करने के आदेश दिए थे.
गौरतलब है कि जस्टिस मुरलीधर ने 84 के सिख विरोधी दंगों के मामले में कांग्रेस नेता सज्जन कुमार को दोषी ठहराया था और इस बार भी उन्होंने कहा था कि ‘इस अदालत के होते हुए दिल्ली में दूसरा 1984 नहीं होने दे सकते हैं.’ ऐसे में उनकी अदालत ही बदल दी गयी और इसी के साथ ही दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा इस मामले की सुनवाई को 13 अप्रैल तक टाल दिया गया है.
Citizenship Amendment Act against the backdrop of Delhi violence
दिल्ली हिंसा के पृष्ठभूमि में नागरिकता संशोधन कानून और इसको लेकर चल रहे आन्दोलन हैं जिसका सबसे बड़ा केंद्र दिल्ली का शाहीन बाग बन चूका है.
जैसा कि शुरू से ही स्पष्ट था, नागरिकता संशोधन कानून का मकसद हमारे पड़ोसी मुस्लिम देशों के गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को शरण देने से ज्यादा नागरिकता को धर्म की पहचान से जोड़ना था, जिसके बाद इस कानून के खिलाफ देश भर में प्रदर्शन शुरू हो गए. लेकिन केंद्र सरकार में बैठे लोगों द्वारा आन्दोलनकारियों की बात सुनने और उनकी आशंकाओं को दूर करने की जगह उलटे उन्हें ही अराजक और देशद्रोही घोषित किया जाने लगा. खुद प्रधानमंत्री द्वारा झारखण्ड के एक चुनावी सभा में आंदोलनकारियों का पहनावा को देखने जैसी बातें की गयीं. इसके बाद तो जिम्मेदारी भरे पदों पर बैठे लोगों की तरफ ही नफरती, धमकी भरे और हिंसक बयानों की बाढ़ सी आ गयी.
कर्नाटक से भाजपा सरकार के मंत्री सी.टी. रवि की तरफ से 'बहुसंख्यकों ने अपना संयम खोया तो गोधरा जैसी घटनाएं दोबारा हो सकती हैं’ जैसे बयान दिये गये. दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान तो सारी हदें पार कर दी गयीं. इस दौरान खुद गृह मंत्री अमित शाह और वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ईवीएम के बटन से शाहीन बाग में करंट दौड़ाने और देश के गद्दारों को..... जैसी बातें कही गयीं.
भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा और कपिल मिश्रा जैसे नेता तो सीधे दौर पर दंगाई की भूमिका में रहे. इस दौरान दो बार ऐसा मौका आया जब जामिया और शाहीन भाग के पास नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों के आस-पास नौजवान बंदूक लहराते नजर आये और अंत में हिंसा अपने विस्फोटक रूप में सामने आई है.
दिल्ली में गुजरात की तरह कोई क्रिया की प्रतिक्रिया नहीं हुई है और ना ही कोई बड़ा पेड़ गिरा है जिसकी वजह से दिल्ली की धरती हिली है. यह निरंतर चलायी गयी प्रक्रिया का परिणाम है जिसमें लोगों के मानस को बदल दिया गया है.
दिल्ली हिन्दुस्तान की राजधानी है और शायद इस प्रोजेक्ट का आखिरी छोर भी. जाहिर है यहां जो भी होता है उसका असर पूरे देश के मनोविज्ञान पर पड़ता है. करीब 18 साल पहले जब गुजरात में “क्रिया की प्रतिक्रिया” हुई थी तो दिल्ली थू-थू कर रही थी और आज जब इसी प्रोजेक्ट को हुबहू दिल्ली में दोहराया जा रहा है तो दिल्ली उफ्फ भी नहीं कर रही है या यूं कहें कि उफ्फ करने की स्थिति में भी नहीं रह गयी है.
दिल्ली में जो हो रहा है वो डरावना और चिंताजनक है लेकिन इससे भी अधिक डरावना है राजनीतिक विकल्पहीनता की स्थिति. आज देश में आक्रमक बहुसंख्यकवादी राजनीति के खिलाफ कोई दूसरी राजनीति नजर नहीं आती है. ले देकर नागरिक प्रतिरोध ही नजर आ रहे हैं, लेकिन इनके खिलाफ भी लगातार मानस बनाते हुये जनता के एक हिस्से को खड़ा कर किया जा रहा है.
इस प्रोजेक्ट के बरक्स कोई दूसरा प्रोजेक्ट सिरे से ही गायब है, लेकिन सबसे बड़ी चिंता की बात यह है इस कमी का अहसास भी गायब है. ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब भाजपा-संघ विरोधी खेमा दिल्ली में आम आदमी की जीत से खुशी में बाग-बाग हुये जा रहा था और इसे भारतीय जनता पार्टी के “प्रोजेक्ट” के खिलाफ जनादेश मान लिया गया था.
संघ और उसके चुनावी संगठन भाजपा का अपना एजेंडा है जिसके लिये वे लंबे समय की प्लानिंग करते हैं.उनका लक्ष्य सिर्फ चुनाव जीतने तक सीमित नहीं होता है. दिल्ली चुनाव में अपने पार्टी की हार के बाद अमित शाह ने कहा था कि “भाजपा विचारधारा पर आधारित पार्टी है और वह सिर्फ जीत के लिए चुनाव नहीं लड़ती बल्कि चुनाव उसके लिए विचारधारा को आगे बढ़ाने का माध्यम भी होता है.”
यह इसी प्लानिंग का नतीजा है कि आज देश में चुनावी राजनीति का धरातल बदल दिया गया है. आज संघ द्वारा प्रस्तावित की गयी हिंदुत्व की राजनीति मुख्यधारा की राजनीति बन चुकी है.
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किसी भी विचारधारा के लिये इससे बड़ी सफलता और क्या हो सकती है कि देश के सभी चुनावी दल ख़ुशी- ख़ुशी या मजबूरी में ही उसके द्वारा प्रस्तुत किये गये पिच पर प्रतिस्पर्धा करने लगें.
बहरहाल दिल्ली की हिंसा किसी फौरी घटना की कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं है. खाई बहुत गहरी हो चुकी है और अब यह राजधानी दिल्ली में अपना तांडव दिखा रही है. इसलिये इस खाई को पाटने के लिये दीर्घकालिक प्रोजेक्ट की जरूरत पड़ेगी. ऐसा लगता है कि साल 2014 के बाद से भारत में दूसरी राजनीतिक विचारधारायें भी लम्बी छुट्टी पर चली गयी है जबकि यही समय है जब उनकी सबसे ज्यादा जरूरत है.
इन विपरीत परिस्थितियों में राजनीति और समाज दोनों से समझदारी सिरे से ही गायब दिख रहे हैं और ना ही देश में कोई एक ऐसा शख्स ही नजर आता है जिसे पूरा देश एक सुर में सुनने को तैयार हो.
जावेद अनीस