Advertisment

नरभक्षियों के महाभोज का चरमोत्कर्ष है यह

author-image
hastakshep
02 Apr 2020
New Update
मकर संक्रांति : पूर्वी बंगाल के किसानों के लिए वास्तू पूजा का अवसर

पलाश विश्वास वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता से अवकाशप्राप्त, अब उत्तराखंड के दिनेशपुर में स्थाई प्रवास। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं। उनकी घोषणा है कि कविता की मृत्यु हो चुकी हैउनकी यह टिप्पणी 11 सितंबर 2014 को हस्तक्षेप पर प्रकाशित हुई थी। टिप्पणी आज के संदर्भ में भी मौजूँ है। पाठकों के लिए पुनर्प्रकाशन ---

Advertisment

This is the climax of the Mahabhoj of cannibals

हम मानते हैं कि शास्त्रीयता, व्याकरण और सौंद्रयशास्त्र कला साहित्य और संगीत के निर्णायक प्रतिमान हो नहीं सकते, जब तक कि संबद्ध रचना कर्म के लिए शिल्पी  समाज वास्तव, लोक परंपरा, सांस्कृतिक विरासत, इतिहास बोध और वैज्ञानिक दृष्टि की बाधा दौड़ को पार न कर चुका हो।

आपको याद दिलाने के लिए फिर उस रोजनामचे के दोहराव की इजाजत चाहूँगा।

Advertisment

अस्थिकेशवसाकीर्णं शोणितौघपरिप्लुतं।

शरीरैर्वहुसाहस्रैविनिकीर्णं समंततः।।

महाभारत का सीरियल (Mahabharata serial) जोधा अकबर है इन दिनों लाइव, जो मुक्तबाजारी महापर्व से पहले तकनीकी क्रांति के सूचनाकाल (Information period of technological revolution) से लेकर अब कयामत समय तक निरंतर जारी है।

Advertisment

उसी महाभारत (Mahabharata live) के धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे युद्धोपरांत यह दृश्यबंध है।

उस धर्मक्षत्रे अस्थि, केश, चर्बी से लबालब खून का सागर यह। एक अर्यूद सेना, अठारह अक्षौहिणी मनुष्यों का कर्मफल सिद्धांते नियतिबद्ध मृत्युउत्सव का यह शास्त्रीय, महाकाव्यिक विवरणश्लोक।

गजारोही, अश्वारोही, रथारूढ़, राजा महाराजा, सामंत, सेनापति, राजपरिजन, श्रेष्ठी अभिजन और सामान्य युद्धक पैदल सेनाओं के सामूहिक महाविनाश का यह प्रेक्षापट है। जो सुदूर अतीत भी नहीं है, समाज वास्तव का सांप्रतिक इतिहास है और डालर येन भवितव्य भी।

Advertisment

मालिकों को खोने वाले पालतू जीव जंतुओं और युद्ध में मारे गये पिता, पुत्र, भ्राता, पति के शोक में विलाप में स्त्रियों का प्रलयंकारी शोक का यह स्थाईभाव है। नरभक्षियों के महाभोज का चरमोत्कर्ष है यह

यह है वह शास्त्रीय उन्मुक्त मुक्तबाजार का धर्मक्षेत्र जिसे कुरुवंश के उत्तराधिकारी भरतवंशी देख तो रहे हैं रात दिन चौबीसों घंटे लाइव लेकिन सत्ताविमर्श में निष्णात इतने कि महसूस नहीं रहे हैं क्योंकि धर्मोन्मादी दिलदिमाग कोमा में है। आईसीयू में लाइव सेविंग वेंटीलेशन में है। कृत्रिम जीवन में है, जीवन में नहीं हैं।

अब उत्तरआधुनिक राजसूय अश्वमेध धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे तेलयुद्ध विकास कामसूत्र मध्ये अखंड भारतखंडे की पृष्ठभूमि भी वही महाकाव्यिक। नियति भी वही। मृत्यु उपत्यका शाश्वत वही।

Advertisment

मैं अस्पृश्य, बहिष्कृत, बेनागरिक सामान्य किसान का बेटा हूँ और मैं दुस्साहस कर रहा हूँ यह कहने का कि उत्तर आधुनिक मुक्तबाजार में जो मृत्यु घोषणा का अमोघ पाठ है, वह किसी दूसरी विधा के लिए सच हो या न हो कविता के लिए निर्विवाद सत्य है।

मैं कुलीन मेधासर्वस्व नस्ली आधिपात्य के सत्तावर्चस्व का प्रतिनिधि नहीं हूँ और मेरी देह से लथपथ खेतों की कीचड़ अभी धुली नहीं है, हम श्रमजीवी श्रम निर्भर कुजात कुनस्ल के लोग हैं। इसलिए किसी समीकरण के बनने बिगड़ने से मेरा कुछ उखड़ता नहीं है।

मेरे पास त्यागने के लिए कुछ भी नहीं है और इसलिए मेरी यह सार्वजनिक घोषणा है कि कविता की मृत्यु हो चुकी है और यह घोषणा मुक्त बाजार के मंच से नहीं है।

Advertisment

मेरे कवि मित्र माफ करें मुझे कृतघ्नता के अपराध के लिए। शिखर कवियों से लेकर अब तक आम कवियों के समर्थन के दम पर साहित्य संस्कृति क्षेत्रे मेरा निरंतर अनधिकार अतिक्रमण का दुस्साहस है यह, लेकिन मुझे कहना ही होगा कि इस देश के समस्त कवियों की असमय अप्राकृतिक मृत्यु हो चुकी है।

धर्मक्षेत्रे महाभारतीय परिदृश्य में जिनकी संवेदनाएं मृत हैं, उन्हें जीवित कैसे कहा जा सकता है, बताइये प्लीज।

वे हद से हद बहुराष्ट्रीय गिफ्ट, ओहदा, पुरस्कार, सम्मान बटोरने वाले शब्द कारोबारी हैं और कारोबारियों की तरह मुक्तबाजार के सेनसेक्स निफ्टी में मुनाफा वसूली कर रहे हैं और उनका सारा दांव वहीं लगा है।

Advertisment

कविता अगर जीवित होती और किसी अंधेरे कोने में भी बचा होता कोई कवि तो इस मृत्युउपत्यका की सो रही पीढ़ियों को डंडा करके उठा देता और आग लगा देता इस जनविरोधी तिलस्म के हर ईंट में, सत्ता स्थापत्य के इस पिंजर को तोड़ कर किरचों में बिखेर देता।

दरअसल उभयलिंगियों का पांख नहीं होते और वे सदैव विमानयात्री होते हैं। पांख के पाखंड में लेकिन आग कोई होती नहीं है। विचारधारा और प्रतिबद्धताओं की अस्मितामध्ये किसी अग्निपाखी का जन्म भी असंभव है। जो कविता परोसी जा रही है कविता के नाम पर वे मरी हुई सड़ी मछलियों की तरह मुक्तबाजारी धारीदार सुगंधित कंडोम की तरह मह मह महक रही हैं अवश्य, लेकिन कविता कंडोम से हालात बदलने वाले नहीं है। यह काउच पर, सोफे पर, किचन में, बाथरूम में, बीच पर, राजमार्गे, कर्मक्षेत्रे मस्ती का पारपत्र जरूर है, कविता हरगिज नहीं।

सच तो यह भी है कि इस धर्मक्षेत्रे महाभारते कविता के बिना कोई लड़ाई भी होनी नही है क्योंकि कविता के बिना सत्ता दीवारों की किलेबंदी को ध्वस्त करने की बारुदी सुरंगें या मिसाइली परमाणु प्रक्षेपास्त्र भी कुरुक्षेत्र की दिलोदमाग से अलहदा लाशें हैं।

लोक की नस-नस में बसी होती है कविता।

हवाओं की सुगंध में रची होती है कविता।

बिन बंधी नदियां होती हैं कविता। उत्तुंग हिमाद्रिशिखरों की कोख में जनमी ग्लेशियरों के उल्लास में होती है कविता।

निर्दोष प्रकृति और पर्यावरण की गोद में होती है कविता।

कविता महारण्य के हर वनस्पति में होती है और समुंदर की हर लहर में होती है कविता।

मेहनतकशों के हर पसीना बूंद में होती है कविता।

खेतों और खलिहानों की पकी फसल में होती है कविता।

वह कविता अब सिरे से अनुपस्थित है क्योंकि लोक परलोक में है अब और प्रकृति और पर्यावरण को बाट लग गयी है।

पसीना अब खून में तब्दील है।

हवाएं अब बिकाऊ हैं।

कोई नदी बची नहीं अनबंधी।

सारे के सारे ग्लेशियर पिघलने लगे हैं और उत्तुंग हिमाद्रिशिखरों का अस्तित्व ही खतरे में है। हिमालय अब आफसा है। आपदा है।

खामोश हो गयी हैं समुंदर की मौजें और महाअरण्य अब बेदखल बहुराष्ट्रीय रिसॉर्ट, माइंनिंग है, परियोजना हैं या विकास सूत्र का निरंकुश महोत्सव है या सलवा जुड़ुम या सैन्य अभियान है।

वातानुकूलित सत्ता दलदल में धंसी जो कविता है कुलीन, उसमें शबाव भी है, शराब भी है, देह भी है कामाग्नि की तरह, लेकिन न उस कविता की कोई दृष्टि है और न उस निष्प्राण जिंगल सर्वस्व स्पांसर में संवेदना का कोई रेशां है।

अलख बिना, जीवनदीप बिना, वह कविता यौन कारोबार का रैंप शो के अलावा कुछ नहीं है और महाकवि जो सिद्धहस्त हैं भाषिक कौशल में दक्ष, शब्द संयोजन बिंब व्याकरण में पारंगत वे दरअसल मुक्तबाजार के दल्ला हैं या फिर सुपर माडल।

चाहें तो सारे कवि मिलकर मुझे सूली पर चढ़ा दें लेकिन कवियों का अपराध चूंकि सबसे बड़ा है, समाज सचेतन कला कर्म का विश्वासघातचूंक सबसे संगीन है, मैं चुप नहीं रहने वाला।

हालात जिस तेजी से बदल रहे हैं, जो कयामती हालात हैं, जो देश बेचो निरंकुश अश्वमेध है, उसके प्रतिरोध की प्रेरणा समसामयिक उत्तरआधुनिक किस कविता में है, जरा उसे पेश कीजिये।

जो समय को दिशा बदलने को मजबूर कर दें, पत्थर के सीने से झरना निकाल दें और सत्ता चालाकियों का रेशां रेशां बेनकाब कर दें, जो मुकम्मल एक युद्ध हो जनता के हक हकूक के लिए, ऐसी कोई कविता लिखी जा रही हो तो बताइये।

उस कवि का पता भी दीजिये जो मुक्तबाजारी कार्निवाल से अलग-थलग है किंतु और जनता की हर तकलीफ, हर मुश्किल में उसके साथ खड़ा है। जिसका हर शब्द बदलाव के लिए गुरिल्ला युद्ध है।

उस कविता को दीवालों पर टांग दीजिये प्लीज, जो सारी अस्मिताओं के बंधन तोड़कर मेहनतकश जमात को एक कर दें।

ऐसा कर सकें तो वही मेरी इस बदतमीजी का जवाब होगा।

पलाश विश्वास

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।

Advertisment
सदस्यता लें