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आज है रोहित वेमुला की पुण्यतिथि
आज 17 जनवरी है. 2016 में आज ही के दिन हैदराबाद विश्वविद्यालय के निलंबित शोध छात्र रोहित वेमुला ने आत्महत्या की थी. किन्तु वह आत्महत्या नहीं, सदियों से शिक्षा से बहिष्कृत समुदाय के एक आधुनिक एकलव्य की सांस्थानिक हत्या थी, ऐसा मानकर वंचित समुदाय के छात्रों ने जो विरोध प्रदर्शन शुरू किया वह देखते ही देखते एक आन्दोलन का रूप अख्तियार कर लिया था. आन्दोलन के दबाव में रोहित के चार साथियों का निलंबन वापस लेने और घटना की जांच के लिए न्यायिक आयोग गठित करने व सभी विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को विद्यार्थियों के बीच कोई भेदभाव नहीं करने तथा ऐसी घटनाओं से बचने का आदेश जारी होने के बावजूद तब विरोध की तरंगे विश्वविद्यालयों के कैम्पस और महानगरों को पार कर भारत के छोटे –छोटे कस्बों ही नहीं, सात समंदर पार तक फ़ैल गयीं थीं. विरोध की तीव्रता इतनी थी कि एक विश्वविद्यालय में प्रधामंत्री के संबोधन के दौरान छात्रों ने ‘गो बैक मोदी’ का नारा लगा दिया था.
बहरहाल रोहित वेमुला के दुखद अंत के विरोध में जो लाखों लोग सड़कों पर उतरे; इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जो ढेरों बहसें हुईं, सोशल मीडिया में जो लाखों पोस्ट तथा अख़बारों में भूरि-भूरि लेख छपे थे, उसका एक ही मकसद था कि कल के रोहित वेमुलाओं को अध्ययन- अध्यापन का उचित माहौल मिले तथा सदियों से शिक्षालयों से बहिष्कृत समुदायों के किसी प्रतिभा का ऐसा दुखद अंत न हो. पर, सवाल पैदा होता है कि क्या रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या के बाद के वर्षों में ऐसा कुछ हुआ, जिससे आश्वस्त हुआ जा सके कि भविष्य के रोहितों का ऐसा दुखद अंत नहीं होगा!
Today is Rohit Vemula's death anniversary
तब रोहित वेमुला के दुखद अंत को कई विद्वानों ने जहां इसे दो गुटों के झगड़े की परिणिति माना था, वहीँ कुछ ने भारत की सत्ता पर काबिज हिंदुत्ववादी सरकार को इसके लिए जिम्मेवार ठहरा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लिए था. लेकिन विद्वानों का एक तबका ऐसा भी था जिसने इस घटना की गहराई में जाकर इसके निराकरण का उपाय सुझाने का प्रयास किया था. उन्होंने ऐसी घटनाओं पर अतीत में हुए एकाधिक अध्ययनों का हवाला देते हुए इस बात पर जोर दिया था कि रोहित वेमुला जैसे असाधारण छात्रों को आत्महत्या की ओर धकेलने में जातीय भेदभाव ही प्रमुख कारण है.
जातीय भेदभाव को प्रधान कारण चिन्हित हुए उन्होंने इसके खिलाफ रैगिंग जैसे कठोर कानून बनाने व नागरिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा देने जैसे सुझाव रखे थे.
इसमें कोई शक नहीं कि रोहित वेमुला के पहले भी खुद हैदरबाद विश्वविद्यालय सहित कई अन्य उच्च शिक्षण संस्थाओं में इस किस्म की कई घटनाएं हो चुकी थीं और इससे निजात दिलाले के लिए कई अध्ययन भी हुए. किन्तु उच्च शिक्षा में व्याप्त भेदभाव के कारणों की पहचान व निवारण के लिए जितने भी अध्ययन हुए हैं, उनमें दो बातों की कमी खटकती है. पहला, यह कि इन अध्ययनों से ऐसा लगता है कि भेदभाव सिर्फ एससी/एसटी के छात्रों के उत्पीड़न तक महदूद है. जबकि इसका दायरा तमाम गैर-सवर्ण समूहों के तमाम छात्र –छात्राओं तक प्रसारित है. शिक्षालयों में व्याप्त भेदभाव के कारण एससी/एसटी के साथ ओबीसी,अल्पसंख्यक समुदाय के सिर्फ छात्र-छात्रा ही नहीं, शिक्षक तक अध्ययन-अध्यापन के खुशनुमा माहौल से महरूम हैं. यह बड़ी भूल इसलिए हुई है क्योंकि अध्ययन करने वाले इस बुनियादी सत्य से नावाकिफ रहे हैं कि हजारों साल से ही सारी दुनिया में अध्ययन -अध्यापन में सामाजिक और लैंगिक विविधता का असमान प्रतिबिम्बन करा कर ही शिक्षा जगत में भेदभाव को जन्म दिया जाता रहा है. अर्थात दुनिया के तमाम शासक वर्ग ही शैक्षणिक गतिविधियों में अपने नापसंद के तबकों को न्यायोचित अवसर न देकर ही हजारों साल से शिक्षा जगत में भेदभाव की सृष्टि करते रहे हैं. अगर इस बेसिक सचाई को ध्यान में रखा गया होता तो भारत की शिक्षा, विशेषकर उच्च शिक्षा में भेदभाव की समस्या को बेहतर तरीके से समझ कर, इसके खात्मे का सम्यक उपाय सुझाया जाता, जो न हो सका.
मानव संसाधन मंत्रालय की कुछ वर्ष पूर्ण की एक रिपोर्ट बताती है कि देश के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में 1094 प्रोफ़ेसर हैं, जिनमें 1039 सामान्य वर्ग से शेष एससी/एसटी, ओबोसी और विकलांग कोटे से हैं. देश के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में 2535 एसोसियेट प्रोफ़ेसर हैं. इनमें केवल दो ओबीसी,124 एससी, 28 एसटी से जबकि 2365 सामान्य वर्ग से हैं. इसी तरह इन विश्वविद्यालयों में सहायक प्रोफेसरों के पद पर एससी के 802, एसटी 374 तथा ओबीसी के 859,जबकि 4907 पदों पर सामान्य वर्ग के लोग काबिज हैं. केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के शिक्षकों की नियुक्ति में हजारों साल के शिक्षा के बहिष्कृतों की दयनीय उपस्थिति उच्च शिक्षा में भेदभाव की एक बानगी है. यही भेदभाव राज्यों द्वारा चलाये जाने वाले विश्वविद्यालयों में दिखती है. निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जाने वाले मेडिकल-इंजीनियरी कालेजों/विश्वविद्यालयों भेदभाव की भयावहता तो कल्पना से परे है. अगर अध्ययन के दायरे में उपरोक्त क्षेत्रों को भी लाया गया होता तब पता चलता शिक्षा के क्षेत्र में भारत जैसा भेदभाव पूरी दुनिया में कहीं नहीं है; लोगों के विभिन्न तबकों को अध्ययन-अध्यापन का अवसर देने के मामले में यह देश प्राचीन युग में वास कर रहा है.
उच्च शिक्षा में भेदभाव के व्याप्ति में विविधता की अनदेखी से भी बड़ा ब्लंडर दैविक अधिकारी की भयावह उपस्थिति की अनदेखी करके किया गया है. यदि ऐसा नहीं किया गया होता तो तमाम अध्ययन ही यह चीख-चीख कर बताते कि शिक्षा में हाशिये पर पड़े समूहों के छात्र-गुरुजनों के प्रति भेदभाव के पृष्ठ में जो असफलता, असफल होने का भय, प्रशासनिक उदासीनता, प्रतिकूल नियम-कायदे, अपमान, सामाजिक-अकादमिक निंदा और बहिष्कार इत्यादि कारण क्रियाशील हैं, उसके लिए सिर्फ और सिर्फ जिम्मेवार है शिक्षा का दैविक अधिकारी वर्ग, जो सदियों से ही एकलव्यों की शिक्षा की राह में बाधा-विघ्न सृष्टि करना एक पवित्र कर्तव्य मानता रहा है. शिक्षा का दैविक-अधिकारी कौन? ब्राहमण वर्ग ! इसी के वजह से शैक्षणिक परिसरों में भेदभाव पसरा है, जिसमें सवर्णों की लिस्ट में शामिल क्षत्रिय, विषयों की भूमिका सहयोगी मात्र की है. इसी वर्ग की पूर्वाग्रही मनोवृत्ति के चलते न सिर्फ रोहित वेमुलाओं को आत्महत्या के लिए विवश होना पड़ता है, बल्कि समस्त आरक्षित वर्ग के छात्र-शिक्षकों सहित अल्पसंख्यकों और महिलाओं तक को अध्ययन-अध्यापन के खुशनुमा माहौल के लिए तरस कर रह जाना पड़ता है. इस वर्ग के अपवाद रूप से कुछेक को छोड़कर, प्रायः सभी में ही द्रोणाचार्य क्रियाशील हैं.
सामाजिक मनोवज्ञान का अध्ययन बतलाता है कि दैविक अधिकारी वर्ग में क्रियाशील द्रोणाचार्यों के ख़त्म होने की दूर-दूर तक सम्भावना नहीं है.
ऐसे में राष्ट्र अगर कल के रोहित वेमुलाओं को दुखद अंत से बचाना चाहता है तो उसे शिक्षालयों को दैविक अधिकारी वर्ग के वर्चस्व से निजात दिलाने की दिशा में आगे बढ़ना पड़ेगा, जिसके लिए एकमेव उपाय है ‘एजुकेशन डाइवर्सिटी’.
वास्तव में शिक्षालयों में व्याप्त भेदभाव को ख़त्म करने में एजुकेशन डाइवर्सिटी से बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता. एजुकेशन डाइवर्सिटी का मतलब शिक्षण संस्थानों के प्रवेश, अध्यापन व संचालन में विभिन्न सामाजिक समूहों के स्त्री और पुरुषों का संख्यानुपात में प्रतिनिधित्व.एजुकेशन डाइवर्सिटी के जरिये ही दुनिया के लोकतान्त्रिक रूप से परिपक्व देशों में शिक्षा पर समूह विशेष के वर्चस्व को शेष कर सभी सामाजिक समूहों को अध्ययन-अध्यापन का न्यायोचित अवसर सुलभ कराया गया है. डाइवर्सिटी अर्थात विविधता नीति के जरिये ही तमाम सभ्यतर देशों में शिक्षा का प्रजातान्त्रिकरण मुमकिन हो पाया है. अमेरिका में भूरि-भूरि नोबेल विजेता देने वाले हार्वर्ड विश्वविद्यालय से लेकर नासा जैसे सर्वाधिक हाई प्रोफाइल संस्थान तक सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू कर वहां के तमाम वंचित समूहों और महिलाओं को अध्ययन-अध्यापन का अवसर मुहैया कराते रहते है.
इसमें कोई शक नहीं कि डाइवर्सिटी के जरिये ही उच्च शिक्षा में भेदभाव का मुकम्मल खात्मा और दैविक अधिकारी वर्ग का वर्चस्व ध्वस्त किया जा सकता है. लेकिन भारी अफ़सोस की बात है कि कई विद्वानों द्वारा ‘एजुकेशन डाइवर्सिटी’ की राह सुझाये जाने के बावजूद केंद्र या राज्य सरकारें इस दिशा में जरा भी अग्रसर नहीं हुईं. उलटे विगत वर्षों में दैविक अधिकारी वर्ग का दबदबा और बढ़ा ही है.
शिक्षा जगत में दैविक अधिकारी वर्ग के भयावह वर्चस्व के प्रति सरकारों के उदासीन रवैया देखते हुए, जिस तरह रोहित वेमुला के भयावह अंत से बहुजन छात्रों में आक्रोश पनपा था, उसे देखते हुए उनसे कुछ उम्मीद बंधी थी.
किन्तु विगत वर्षों में बहुजन छात्रों में कुछ उद्वेलन तो हुआ है,पर वे एजुकेशन डाइवर्सिटी लागू करवाने की दिशा में प्रयासरत होते नहीं दिखे.चूंकि शैक्षणिक परिसरों में पसरे भेदभाव के खात्मे और दैविक अधिकारी वर्ग के वर्चस्व को ध्वस्त करने का सर्वोत्तम उपाय ‘एजुकेशन डाइवर्सिटी’ है और इसे लागू करवाने के प्रति सरकारें तो उदासीन हैं ही,वंचित वर्ग के छात्र संगठनों में भी इसकी मांग नहीं उठ रही है,इसलिए हम भविष्य के रोहित वेमुलाओं को दुखद अंत से बचाने के प्रति खूब आशावादी नहीं हो सकते।
-एच.एल.दुसाध
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