स्व. धर्मवीर भारती एक प्रसिद्ध हिंदी कवि, लेखक, नाटककार और भारत के एक सामाजिक विचारक थे। वह 1960 से 1987 तक लोकप्रिय हिंदी साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग के मुख्य संपादक थे। भारती को 1972 में भारत सरकार द्वारा साहित्य के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। उनका उपन्यास गुनाहों का देवता एक क्लासिक बन गया।
राजकमल प्रकाशन ने धर्मवीर भारती का स्मरण करते हुए ट्वीट किया,
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“धर्मवीर भारती : सादर स्मरण
"जगत माया-मरीचिका है, गन्धर्वनगर के समान केवल भ्रान्ति है, स्वप्नवत् है। वास्तव में चित्त इन कल्पनाओं से रंजित हो जाता है जैसे स्वच्छ वर्णहीन स्फटिक दूसरे के रंग की आभा ग्रहण कर ले।"
- सिद्ध साहित्य”
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इयान वूलफोर्ड (Ian Woolford), ला ट्रोब विश्वविद्यालय (La Trobe University) में हिंदी के व्याख्याता हैं, जहां वे हिंदी भाषा के कार्यक्रम के प्रमुख हैं, और दक्षिण एशियाई संस्कृति में पाठ्यक्रम पढ़ाते हैं, उन्होंने ट्वीट किया -
“हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक, कवि, एवं नाटककार धर्मवीर भारती की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजलि।
"थके हुए हैं हम
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पर घूम-घूम पहरा देते हैं
इस सूने गलियारे में…"
(’अंधा युग’)”
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कोलकाता विश्वविद्यालय के अवकाशप्राप्त प्रोफेसर जगदीस्वर चतुर्वेदी ने इस अवसर पर धर्मवीर भारती की कविता “तुम्हारे चरण” फेसबुक पर पोस्ट की -
“तुम्हारे चरण / धर्मवीर भारती
ये शरद के चाँद-से उजले धुले-से पाँव,
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मेरी गोद में !
ये लहर पर नाचते ताज़े कमल की छाँव,
मेरी गोद में !
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दो बड़े मासूम बादल, देवताओं से लगाते दाँव,
मेरी गोद में !
रसमसाती धूप का ढलता पहर,
ये हवाएँ शाम की, झुक-झूमकर बरसा गईं
रोशनी के फूल हरसिंगार-से,
प्यार घायल साँप-सा लेता लहर,
अर्चना की धूप-सी तुम गोद में लहरा गईं
ज्यों झरे केसर तितलियों के परों की मार से,
सोनजूही की पँखुरियों से गुँथे, ये दो मदन के बान,
मेरी गोद में !
हो गये बेहोश दो नाजुक, मृदुल तूफ़ान,
मेरी गोद में !
ज्यों प्रणय की लोरियों की बाँह में,
झिलमिलाकर औ’ जलाकर तन, शमाएँ दो,
अब शलभ की गोद में आराम से सोयी हुईं
या फ़रिश्तों के परों की छाँह में
दुबकी हुई, सहमी हुई, हों पूर्णिमाएँ दो,
देवताओं के नयन के अश्रु से धोई हुईं ।
चुम्बनों की पाँखुरी के दो जवान गुलाब,
मेरी गोद में !
सात रंगों की महावर से रचे महताब,
मेरी गोद में !
ये बड़े सुकुमार, इनसे प्यार क्या ?
ये महज आराधना के वास्ते,
जिस तरह भटकी सुबह को रास्ते
हरदम बताये हैं रुपहरे शुक्र के नभ-फूल ने,
ये चरण मुझको न दें अपनी दिशाएँ भूलने !
ये खँडहरों में सिसकते, स्वर्ग के दो गान, मेरी गोद में !
रश्मि-पंखों पर अभी उतरे हुए वरदान, मेरी गोद में !”
धर्मवीर भारती : सादर स्मरण ??
"जगत माया-मरीचिका है, गन्धर्वनगर के समान केवल भ्रान्ति है, स्वप्नवत् है। वास्तव में चित्त इन कल्पनाओं से रंजित हो जाता है जैसे स्वच्छ वर्णहीन स्फटिक दूसरे के रंग की आभा ग्रहण कर ले।"