….दूसरी बार जब एडमिट हुए तो ज़्यादा बोले नहीं..
सोये पड़े रहते थे…तुम…
कुछ कहना चाहते थे भी तो..
शायद.. आवाज़ घर्रा कर..
बाईपैप के.. पाइप में…घुट जाती थी…
शरीर अशक्त…
हाथ दुबले…बहुत दुबले…
उठने के क़ाबिल नहीं बचे थे…
बस उँगलियाँ हिलती थीं कभी-कभी कराहते थे तुम..
इस पर पिछली बार वाला झूठ दोहराती मैं….
”फ़ाइलें तैय्यार हो रही हैं तुम्हारी बस कल घर चलेंगे“..
सुनकर तुम्हारी बुझी बुझी आँखें…खुलने की मशक़्क़त करतीं….
मगर कोरों से देख मुझे….
वापस मुंद जातीं…
वो शायद पकड़ चुकी थीं…मेरा झूठ….
उस आख़िरी रात भी..
मैंने तुम्हारे सर पर हाथ फेरते हुए देर तक की थी तुमसे बातें…
हाँ मैंने कहा था..
उठो..
पाठ करो.. रामायण.. का…
बचपन से रोज़ तुम्हें चौकी पर बैठ कर…
ऐसे ही दिन शुरू करते जो देखा था..
सुनकर तुमने भी हौले से दबायी उँगली मेरी..
बस एक बार…
शायद..
तुमने तभी माँग ली थी…आख़िरी विदा…
मगर मैं समझ ही नहीं पाई थी वो इशारा….
सुबह तक तो तुम..
तुम लगे ही नहीं..
बड़ा अजीब मंज़र था..
आज तक ज्यों का त्यों घूम जाता है अक्सर आँखों के आगे…
उस दिन मैंने देखा था..
इक शांत पड़े जिस्म से जूझते हुए उसे..
तमाम मॉनीटरों और वेन्टीलेटर के पाइपों से छुड़ा रही थी वो ख़ुद को…
बदन से पूरी पूरी बाहर थी….
तुम्हारी रूह…
बस चंद साँसों की उलझन थी उसके पैरों में…
और फिर एक झटका पाँव का उसके….
वो सब कुछ तोड़ गयी…पापा……
डॉ. कविता अरोरा
(kavita )
Tribute to father
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