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1993 में दिल्ली आने से पहले तक बीबीसी सुनने का जबरदस्त रोग था..उन्हीं दिनों सुबह के कार्यक्रम में अखबारों की समीक्षा का एक कार्यक्रम आना शुरू हुआ। हफ्ते में करीब तीन दिनों तक एक गुरू गंभीर और स्पष्ट आवाज अखबारों की समीक्षा करती थी।
1994 में भारतीय जनसंचार संस्थान की ओर से हिंदी पत्ररकारिता के छात्रों का बड़ा समूह नोएडा के राष्ट्रीय सहारा अखबार में दाखिल हुआ। मजबूरी थी कि उसके अलावा किसी भी बड़े संस्थान ने दो या तीन से ज्यादा लोगों को इंटर्नशिप की मंजूरी नहीं दी थी।
आज तो ज्यादातर संस्थानों में इंटर्न के साथ ज्यादातर सीनियर काम सिखाने के नाम पर बदतमीजी करते नजर आते हैं..हां, इंटर्न अगर खूबसूरत कन्या हुई तो उसे कुछ विशेषाधिकार जरूर मिल जाते हैं..लेकिन राष्ट्रीय सहारा में ऐसा नहीं था..सीनियर ना सिर्फ हमें काम सिखाते थे, बल्कि चाय-पकौड़ा भी खिलाते थे। उन दिनों सहारा में दो रूपए के कूपन पर भरपेट खाना मिलता था। सीनियर हमें वह कूपन भी खरीदवाते थे..
तब मेरी अंग्रेजी बहुत कमजोर हुआ करती थी..वैसे तो अब भी अच्छी नहीं है। लेकिन कह सकता हूं कि अब अंग्रेजी पढ़कर हिंदी में उसे लिख सकता हूं. इसके लिए मैंने सिर्फ और सिर्फ तब राष्ट्रीय सहारा के जनरल डेस्क पर ही काम किया.
लिखना-छपना तो शुरू हो चुका था, लेकिन इच्छा रहती थी कि संपादकीय पेज पर छपें। लेकिन सिंगल लीवर, सिंगल हड्डी और चालीस किलो के मुन्नानुमा इंसान को लोग गंभीर मानते ही नहीं थे..
उन्हीं दिनों पता चला कि सहारा के संपादकीय पृष्ठ जो सज्जन देखते हैं, वे वही हैं, जो बीबीसी पर सुबह अपनी गुरू गंभीर आवाज में अखबारों की समीक्षा किया करते हैं..जी हां, आपने ठीक समझा, वे शेष नारायण सिंह थे।
उन दिनों सहारा दफ्तर से रोजाना शाम को करीब साढ़े छह-सात बजे दिल्ली के लिए स्वराज माजदा बस चलती थी, जो निजामुद्दीन पुल से प्रगति मैदान वाया गोल डाकघर होते हुए जेएऩयू कैंपस जाती और फिर वहां से दक्षिण दिल्ली की ओर निकल लेती। तब जेएनयू के कई शोध छात्र सहारा के सोशल रिसर्च विंग आदि में काम करते थे।
अपने डेस्क इंचार्ज की कृपा से हमें भी बस में वापसी की यात्रा की सहूलियत होती थी। उसी बस में दरवाजे के बाद सबसे पहले वाली बाएं की सीट पर रोजाना शेष नारायण सिंह बैठा करते। एक दिन जब बस कुछ खाली हुई तो मैं हिम्मत करके उनके पास जा पहुंचा, उन्हें अपना परिचय दिया और संपादकीय पृष्ठ पर लिखने की इच्छा जताई।
मुझे आशंका थी कि वह झिड़क देंगे..लेकिन यह क्या..उन्होंने ना सिर्फ खुशी जताई, बल्कि आश्वासन भी दे दिया कि तुम्हारे लायक विषय सूझते ही बताता हूं।
इसके बाद उनका जो नेह और छोह मुझ पर कायम हुआ, आखिरी वक्त तक बरकरार रहा। उन्होंने सहारा के संपादकीय पेज पर न जाने कितने लेख, शनिवार को आने वाले मुद्दा पेज के लिए भर-भर पेज के कितने आलेख मुझसे लिखवाए होंगे, खुद मुझे ही याद नहीं।
आज संपादकीय पन्नों पर अपना नाम जो छपता रहता है, उसका सबसे बड़ा श्रेय शेष नारायण सिंह को जाता है।
बाद के दिनों में वे मेरे भैया हो गए थे। कुछ साल पहले तक मेरे योग्य बेहतर नौकरी की चिंता में वे लगातार परेशान रहे। वे कहा करते थे, तुम्हारी प्रतिभा के साथ न्याय नहीं हुआ।
पहली बार सहारा में नौकरी के लिए उन्होंने कोशिश की थी, लेकिन पता नहीं किसने अड़ंगा लगा दिया। दूसरी बार एनडीटीवी में जब वे गए तो मेरे लिए दो बार कोशिश की, लेकिन पहली बार पता नहीं किसने तो दूसरी बार उनके उस बॉस ने अड़ंगा लगा दिया, जिसकी वजह से उन्हें एनडीटीवी छोड़ना पड़ा।
शेष जी पर लिखने लगूं तो जगह कम पड़ जाएगी।
वे मेरी समझ पर कितना भरोसा करते थे, इसका अनुभव तब हुआ, जब वे अपनी बेटी के पास नार्वे गए। वहां उन दिनों संसदीय चुनाव हो रहा था। मुझसे लगातार पूछते कि इस पर कैसे लिखूं? मैं उन्हें झिड़कता था कि अब मैं आपको सिखाउंगा कि आप कैसे लिखेंगे? वे फौरन जवाब देते, तुम ज्यादा समझते हो। यह बताना छोटापन होगा कि मैंने उन्हें क्या बताया।
शेष जी की पढ़ाई-लिखाई लखनऊ और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई थी। जेएनयू से निकलते ही उन्हें बढ़िया नौकरी मिल गई थी। बहुत कम लोग जानते हैं कि जब लोग क्रेडिट कार्ड नाम की चिड़िया से परिचित भी नहीं थे, तब उनकी कंपनी उन्हें क्रेडिट कार्ड देती थी। लेकिन उनका मन कंपनी की बजाय लेखन-पाठन की दुनिया में लगता था। लिहाजा वे पत्रकारिता में लौट आए और उन्हें बाद के दिनों में जबरदस्त संघर्ष करना पड़ा। वह लंबी कथा है।
आज के कुछ कथित बड़े पत्रकारों को देखता हूं और शेष जी को देखता हूं तो लगता है कि शेष जी कितने बड़े थे। आज के कुछ बड़े पत्रकार खुद को निरपेक्ष और निष्पक्ष होने का दावा करते नहीं थकते। लेकिन अतीत में वे पासवान के पेरोल पर थे या कांग्रेस के, यह तथ्य वे सब जानते हैं, जो आज से पंद्रह-बीस साल पहले तक रिपोर्टिंग की दुनिया में सक्रिय थे। किसके-किसके इन कथित निरपेक्ष और निष्पक्ष पत्रकारों ने पोतड़े धोए हैं, चरण चुंबन लिया है, इन पंक्तियों के लेखक ने अपनी आंखों से देखा है। लेकिन शेष जी अलग किस्म के पत्रकार थे। उन्होंने ना तो किसी का चरण चुंबन लिया और ना ही किसी विरोधी वैचारिक धुरी वाले राजनेता के कमर के नीचे वार किया। उनका समर्थन और विरोध व्यक्ति या वैचारिक राजनीतिक सोच के आधार पर नहीं, मुद्दा आधारित होता था। इसीलिए वे बीजेपी नेताओं के भी करीब थे तो कांग्रेसियों के भी। वामपंथी और समाजवादी भी उनकी परिधि में थे। वे मुद्दों पर समर्थन या विरोध के हिमायती थे, सिर्फ वैचारिक या व्यक्तित्व आधारित विरोध के दर्शन में उनका भरोसा नहीं था। इसीलिए कई बार वे मुद्दाहीन विरोध के लिए हड़काने से भी बाज नहीं आते थे।
शेष जी, स्वास्थ्य के लिहाज से बिल्कुल फिट थे। उनको न तो कोई व्यसन था और ना ही कोई बड़ा रोग। शायद ही किसी ने सोचा होगा कि वे इतनी जल्दी हमें छोड़ अनंत यात्री बन जाएंगे।
कोरोना काल में श्रद्धांजलि लिखने से बचता रहा...लेकिन शेष जी से अपना ऐसा रिश्ता रहा, कि खुद को रोक पाना असंभव हो रहा है..
बहुत कुछ याद आ रहा है...क्या लिखूं, क्या छोडूं की उधेड़बुन में सिर्फ अलविदा ही कह सकता हूं, अलविदा शेष जी..
जहां भी रहें, उसी तरह मस्त रहें, जैसे इस दुनिया में थे...
उमेश चतुर्वेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।