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सांस्कृतिक व राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में 'मराठी का गोर्की' लोक शाहीर कॉमरेड अण्णाभाऊ साठे

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hastakshep
18 Aug 2020
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सांस्कृतिक व राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में 'मराठी का गोर्की' लोक शाहीर कॉमरेड अण्णाभाऊ साठे

Tributes to writer Comrade Annabhau Sathe News

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इंदौर 20 अगस्त, 2020. लोक शाहीर कॉमरेड अण्णाभाऊ साठे की जन्मशती (Birth centenary of Lok Shaheer Comrade Annabhau Sathe) के मौके पर इप्टा और प्रलेस की घाटशिला इकाई ने कॉमरेड अण्णाभाऊ साठे के अवदान और सांस्कृतिक व राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में उनको देखने समझने के लिए, विशेषकर युवा साथियों के बीच इस क्रांतिकारी लोक शाहीर के बारे में जानने, समझने और संघर्ष की लौ सम्भालने के लिए प्रेरित होने के लिए 16 अगस्त, 2020 को एक ऑनलाइन विचार गोष्ठी आयोजित की.

इस फेसबुक लाइव परिचर्चा में इप्टा की रायगढ़ इकाई के युवा साथी श्याम देवकर, रायपुर इप्टा के बहुत सक्रिय और नाचा-गम्मत लोक-नाट्य शैली की परम्परा को आगे बढ़ाने की मुहीम में निसार अली के साथ महत्वपूर्ण काम कर रहे शेखर नाग, प्रलेस के राष्ट्रीय सचिव कॉम. विनीत तिवारी ने अण्णाभाऊ साठे के इस देश के वंचितों और सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक लडाई को सांस्कृतिक मोर्चे पर लड़ने को लेकर अपनी बात रखी.

इप्टा की राष्ट्रीय सचिव उषा वैरागकर आठले इस परिचर्चा में अध्यक्षता की.

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Why Annabhau Sathe for the younger generation?

श्याम देवघर ने "युवा पीढ़ी के लिए अण्णाभाऊ साठे क्यों?" विषय पर अण्णाभाऊ साठे के जीवन और कला को केन्द्रित कर अपनी बात रखी.

उन्होंने अन्ना भाऊ साथे के तीन प्रवास की बात की - मान्गवाड़ से मुम्बई, मुंबई से मास्को. आज की परिस्थिति में मेहनतकश वर्ग जो तकलीफें उठा रहा है, वैसे ही अण्णाभाऊ साठे को भी पेट भरने के लिए महानगर की तरफ जाना पड़ा था. अत: उन्होंने अपने जीवनानुभवों से बहुत कुछ लिखा. आज भी हालात नहीं बदले हैं. अण्णाभाऊ साठे ने कहा था कि 'ये पृथ्वी किसी शेषनाग के माथे पर नहीं है, ये पृथ्वी मेहनतकश, मजदूर, दलित के हाथों पर टिकी है, यानि उनके दम पर चलती है'. रूस यात्रा में वे कितने सरल व्यक्ति की तरह पहुंचे थे, जबकि उनकी ख्याति 'लेनिनग्राद का पोवाडा' के रुसी अनुवाद से वहां तक उनसे पहले पहुँच ही गयी थी. आज के युवाओं के पास तो अण्णाभाऊ साठे के समय के मुकाबले ज्यादा संसाधन, पहुँच और अच्छे साथियों की संगत उपलब्ध है तो आज के युवाओं को समझ बूझ कर अपनी दिशा तय करनी चाहिए.

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इसके बाद शेखर नाग ने लोक कलाओं की ताकत पर केन्द्रित अण्णाभाऊ साठे के कलाकर्म पर बात की. उन्होंने विस्तार से बताया और 'हाना' लोकगीतों के माध्यम से छत्तीसगढ़ी 'नाचा' में प्रयुक्त लोक गीतों का गायन कर विचारों को सोदाहरण प्रस्तुत किया. उन्होंने कहा कि लोक कलाओं की ताकत बहुत होती है, बशर्ते वह दरबारी न हो, लोक से जुड़ा हुआ और समाज सापेक्ष हो. लोक कलाकर अक्सर कृषक और मजदूर होते हैं. रूस की सरकार ने मराठी रेडियो शुरुआत की थी और अण्णाभाऊ साठे को रशिया में ही रह जाने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन अण्णाभाऊ साठे को महसूस करते थे कि भारत में किसानों, मजदूरों को उनकी जरूरत अधिक है, इसलिए वे भारत आ गये.

शेखर नाग ने कहा कि, लोक कलाओं में प्रतिरोध की जबरदस्त शक्ति होती है और वह सत्ता की नाराजगी से नहीं डरता. वह व्यवस्थाओं को तिलमिला देती हैं. शेखर छत्तीसगढ़ के कई लोक कलाकारों, उड़ीसा के लोक कलाकारों आदि की जानकारी देते हुए आज के वक्त में भी लोक कलाओं के महत्व और प्रभाव पर बोल रहे थे.

उन्होंने "पोगा पंडित" नाटक का विशेष उल्लेख किया, जिसके लिए हबीब तनवीर पर हमले भी हुए थे.

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विनीत तिवारी ने कहा कि हमें मराठी प्रान्त के लोक साहित्य और परम्परा को और जाने की जरूरत है. अण्णाभाऊ साठे के बारे में यह होता है कि कम्युनिष्ट उन्हें कम कम्युनिष्ट मानने लगे थे, क्योंकि वे बाद में आंबेडकर के विचारों की तरफ गये. जबकि, अम्बेडकरवादी उन्हें इसलिए अम्बेडकरवादी नहीं मानते कि वे मार्क्सवादी पृष्ठभूमि से आते थे ! यह एक बड़ा कारण है कि उनकी रचनाएँ जो विदेशी भाषा में आ चुकी थीं, लेकिन अंग्रेजी में अनूदित नही हुई थीं. (हिंदी में भी नहीं) तो ये भेदभाव हुआ. पार्टी के भीतर भी हुआ.

विनीत तिवारी ने कहा कि अन्ना भाऊ आंबेडकरवाड़ी, दलित आन्दोलन के साथ कभी भी उस रूप में नहीं थे, क्योंकि यह मानते थे कि दलित आन्दोलन के भीतर अगर हम 'वर्ग' के प्रश्न, 'क्लास-फेक्टर' को नहीं लायेंगे तो केवल 'कास्ट-मूवमेंट' कामयाब नहीं होगा. ये वो जितना पढ़ा-लिखा था, सीख -समझा था, उसके आधार पर मानते थे. प्रगतिशील लेखक संघ का यह दायित्व भी है कि अन्ना भाऊ साठे को हिंदी भाषी लोगों तक पहुँचाया जाय.

उन्होंने कहा कि 'लाल वाबटा कला पथक' के बारे में इतिहास को थोडा सुधार लेना चाहिए. इसमें लोक शाहीर अमर शेख, लोक शाहीर गवाणकर (बुआ) के साथ अन्ना भाऊ साठे शामिल तो थे, लेकिन एक चौथा महत्वपूर्ण व्यक्तित्व भी इनमें शामिल था, जो इन तीनों के साथ जनमानस के बीच जाता था या नहीं, कहना मुश्किल है मगर वह चौथा व्यक्तित्व बलराज साहनी थे, जिन्होंने इन तीनों की खोज की थी. बलराज साहनी ने मुंबई के परेल इलाके की मिल मजदूरों की चालों में इन लोक कलाकारों को ढूंढ निकला, जिनके अंदर आधुनिक चेतना थी, व्यवस्था के खिलाफ़ गुस्सा था. तो इन लोगों ने बलराज साहनी के साथ जुड़कर कम्युनिज्म और मार्क्सवाद को जाना.

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जबकि ठीक उसी समय आंबेडकर भी सक्रिय थे. तब यह सोचने वाली बात है कि ये सब पहले कम्युनिज्म से क्यों जुड़े, अम्बेडकरवाद से नहीं. ये सब 'मांग' समाज से आते थे. आंबेडकर थे 'महाड' समुदाय के, जो दलितों के भीतर सबसे प्रभावशाली समुदाय है. डॉ. आंबेडकर ने जोर देकर कहा था कि मैं केवल महाड' समाज का नेता नहीं हूँ, बल्कि सब दमित शोषित अस्तित्व वालों का लीडर हूँ, दूसरी तरफ 'मांग', 'मातंग' आदि समाजों के नेता आंबेडकर को मानने को तैयार नहीं थे.

इसके ऐतिहासिक कारण हैं. इसलिए 'महाड़' के अलावा दूसरी जातियों का समर्थन आंबेडकर को नहीं मिला. अन्ना भाऊ साठे ने देखा कि गाँवों में 'महाड़ और 'मांग' जातियों के बीच भेदभाव था और शहर में दलितों और गैर दलितों के बीच था. दोनों ही स्थितियों में उनके भीतर एक तरह का द्वैत बना रहा कि हमें शायद जाति के और वर्ग के सवाल को साथ लेकर चलना पड़ेगा. और वे इस द्वैत के साथ ईमानदारी से रहे. अण्णाभाऊ ने नैरेटिव की बायनरी को बदला. जाति के मसले के साथ उन्होंने स्त्री-पुरुषों के द्वन्द के नैरेटिव को भी खड़ा किया. और इस प्रक्रिया के भीतर अमीर और गरीब के नैरेटिव को कभी छोड़ा ही नहीं. अण्णाभाऊ साठे को याद करते हुए हमें यह याद रखना चाहिए कि एक कलाकार द्वन्द के साथ में रहता है. और उसके सामने जो परिस्थितियां रहती हैं, उसके प्रति वह फैसलाकुन नहीं हो पाता. जैसे फ्रेंज काफ्का. तो वो भी एक कलाकार के लिए एक तरह की ताकत का काम करता है. आजकल जो 'लाल' और 'नीले' को एक साथ मिलाने की नारेबाजियां हो रही हैं, इसे अगर आगे ले जाना है, ठोस शक्ल देनी है, मार्क्सवादी लोग दलितों को ग्राह्य कैसे हों? फिर से कैसे वह माहौल बने जिसमें गवाणकर बुआ, अमर शेख और अन्ना भाऊ साठे जैसे लोग कम्युनिष्ट विचारधारा को ये माने कि जब तक वर्ग की लड़ाई हम साथ में नहीं जोड़ेंगे, तब तक जाति की लडाई अकेले कामयाब नहीं होगी. अण्णाभाऊ साठे को याद करते हुए यह कहना है कि वर्ग की और जाति की समझ को लेकर के, दलितों के और शोषितों के, चाहे वे किसी भी तबके से आने वाले लोग हों, उस आन्दोलन को हमें आगे बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए.

वरिष्ठ रंगकर्मी उषा वैरागकर आठले, जो अण्णाभाऊ साठे की कहानियों और नाटक का अनुवाद कर हिंदी भाषी पाठकों, कलाकारों तक पहुँचा रही हैं, ने कहा कि अण्णाभाऊ साठे का व्यक्तित्व और कृतित्व (Personality and gratitude of annabhau sathe) बहुआयामी था. अण्णाभाऊ साठे को 'मराठी का गोर्की' कहा जाता था. क्योंकि जिस तरह गोर्की ने अपने वर्ग के, अपने लोगों के, दलित-शोषित-पीड़ित लोगों के चरित्रों को रचा, वैसे ही अण्णाभाऊ साठे के साहित्य में भी उसी तरह के पात्र हैं.

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इप्टा, प्रलेस और कम्युनिष्ट पार्टी के लिए उन्होंने अपने कई साथियों के साथ बेहद सक्रिय और मुखर भूमिका निभाई. जन चेतना का गाँव-गाँव में प्रसार किया.

अण्णाभाऊ साठे ने अपने जीवन में कई तरह के कम किये और उनसे जो अनुभव उन्हें मिले, वो गरीबी, अपमान, दलित होने के, जिससे उनके भीतर इनसे मुक्त होने के लिए प्रतिकार की भावना आई. माटुँगा लेबर कैम्प के आसपास लेबर रेस्टोरेंट में वे कई कम्युनिष्टों के संपर्क में आये. यह एक बहुकथित बात है कि जिस जगह अण्णाभाऊ साठे रहा करते थे, वह बहुत सीलन भरी, मच्छरों से भरी जगह थी, उन्होंने मच्छर पर महाराष्ट्र की लोकशैली 'पोवाडा' में लिखा. लेबर रेस्टोरेंट में जब वे इस पोवाडे को सुना रहे थे तो कॉम. पगारे ने सुना और युवा अण्णाभाऊ की आवाज और कथन शैली से, विचार व्यक्त करने के साफ़ तरीके से प्रभावित हुए. उन्हें लगा कि कम्युनिष्ट पार्टी को ऐसे लोगों की सख्त आवश्यकता है, जो लोगों की बात लोगों के बीच जाकर कर सकें. वे अण्णाभाऊ को पार्टी ऑफिस ले आये. इस तरह, माना जाता है कि, अण्णाभाऊ साठे कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े. उनकी लिखी रचनाएँ कम्युनिष्ट पार्टी ने ही सबसे पहले प्रकाशित की थी. अण्णाभाऊ साठे ने सिर्फ पोवाडे, लावणी नहीं लिखे, कम्युनिष्ट पार्टी के लिए जगह जगह भाषण देने का काम ही नहीं किया, पैम्फलेट लिखने, बांटने का काम, प्रचार-प्रसार का काम, उसके लिए अख़बारों में रिपोर्टिंग करने का काम भी किया करते थे. तो कम्युनिष्ट पार्टी के लिए लगभग होल टाइमर जैसी ही स्थिति उन दिनों अण्णाभाऊ साठे की हुआ करती थी. 1944 में 'लाल बावटा कला पथक' में सक्रिय होने से पहले ही वे प्रलेस और इप्टा से जुड़ चुके थे. 1949 में उन्हें इप्टा का राष्ट्रीय अध्यक्ष भी चुना गया. इप्टा के मंचों से अण्णाभाऊ साठे ने कई प्रसिद्ध नाटक, गीत दिए, जो उनके सामाजिक, राजनितिक और सांस्कृतिक चेतना से ओतप्रोत थे. उनका एक पूर्णकालिक नाटक 'इनामदार' है, जो इप्टा द्वारा हिंदी में मंचित हुआ, और जिसमें ए.के. हंगल साहब ने अभिनय किया था, भले वह लिखा मराठी में गया था.

उषा आठले ने विशेषकर 'जाल' कहानी का जिक्र किया, जिसका हिंदी में अनुवाद उन्होंने किया है, कि वर्ग और वर्ण संघर्ष में हमेशा उन्होंने ऐसे चरित्र रचे जो पूरे समाज के सामने उदहारण स्थापित कर सकें. कहानी में वे दिखाते हैं कि सिर्फ जाति से ही मुक्त होना नहीं, आर्थिक रूप से मजबूत होना भी बेहद जरूरी है. तो इस प्रकार उनकी सांस्कृतिक चेतना के साथ उनकी राजनितिक चेतना का भी पता चलता है. इस राजनितिक चेतना के पीछे उनकी मार्क्सवादी समझ है.

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आज तमाम प्रगतिशील तबके को जरूरी है कि वे अन्ना भाऊ साठे, उनके व्यक्तित्व-कृतित्व के आयामों को देखते हुए, उनके विचारधारा को समझें कि किस प्रकार वे लोगों से जुड़े हुए थे. अपनी विचारधारा के लिए जमीनी आधार उन्होंने बनाया. उनसे ये सीखने की बहुत आवश्यकता है.

संचालन सत्यम ने किया. सत्यम ने कहा कि अण्णाभाऊ साठे और हबीब तनवीर की विरासत जो है, वो क्रांतिकारी भावों को लोगों तक लेकर जाने में हमारी मदद करेगी.

इस परिचर्चा में हम अण्णाभाऊ साठे के व्यक्तित्व और रचनाकर्म के विविध आयामों से परिचित हुए. आज हम समझ रहे हैं कि कैसे अण्णाभाऊ साठे जैसे क्रांतिकारी कलाकार आज के वक्त में पहले से ज्यादा प्रासंगिक हैं. अण्णाभाऊ साठे हों या परसाई, सत्ताधारी फासीवादी भी इनकी एप्रोप्रिएशन चाह रहे हैं. अण्णाभाऊ साठे अमीर-ग़रीब की गैरबराबरी वाली व्यवस्था हो चाहे वर्ण व्यवस्था हो या पहचान की राजनीति हो, उसके खिलाफ एक पुकार हैं.

 रिपोर्ट : ज्योति मल्लिक/ शेखर मल्लिक

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