/hastakshep-prod/media/post_banners/VG5iYeDWq02WQ1K3kuwb.jpg)
Trump is sinking global democracy
खतरे में लोकतंत्र | democracy in danger
इस सप्ताह 18 और 19 जून को दुनियाभर में लोकतंत्र के भविष्य पर एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन (An international conference on the future of democracy worldwide) आयोजित किया जा रहा है. कोविड 19 के दौर में यह सम्मेलन विडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये किया जाएगा, और इसे संबोधित करने वालों में ताइवान की राष्ट्रपति, अमेरिका के वर्त्तमान सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट के साथ दो भूतपूर्व सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट, यूरोपियन कमीशन की वाइस प्रेसिडेंट और हांगकांग में आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले जोशुआ वोंग के साथ ही अनेक पत्रकार और आन्दोलनकारी सम्मिलित हैं.
हरेक वर्ष इस सम्मेलन का आयोजन अलायन्स ऑफ़ डेमोक्रेसीज (Alliance of Democracies,) के साथ मिलकर डालिया रिसर्च करता है.
अलायन्स ऑफ़ डेमोक्रेसीज के संस्थापक डेनमार्क के पूर्व प्रधानमंत्री और नाटो के पूर्व सेक्रेटरी जनरल एंडर्स रासमुस्सेन हैं और यह संस्था हरेक वर्ष डेमोक्रेसी परसेप्शन इंडेक्स प्रकाशित करती है.
इस सम्मेलन से पहले अलायन्स ऑफ़ डेमोक्रेसीज ने जर्मनी की संस्था डालिया रिसर्च के साथ मिलकर दुनिया के 54 देशों में एक सर्वेक्षण किया जिसमें पूछा गया था कि चीन और अमेरिका में से किसने कोविड 19 के विरुद्ध लड़ाई को बेहतर तरीके से लड़ा. भारत इस सर्वेक्षण में शामिल नहीं था, पर हरेक महादेश के देश इसमें शामिल किये गए थे और सर्वेक्षण में कुल 1,20,000 लोग शामिल किये गए थे. इन 54 देशों में से केवल तीन देशों – अमेरिका, ताइवान और साउथ कोरिया के लोगों ने इस लड़ाई में अमेरिका को बेहतर बताया.
इस सर्वेक्षण को कोविड 19 और रंगभेद के खिलाफ आन्दोलनों के बाद ट्रम्प की घटती वैश्विक लोकप्रियता (Trump's declining global popularity) के तौर पर भी देखा जा रहा है. सर्वेक्षण में केवल एक-तिहाई लोगों ने बताया कि कोविड 19 के सन्दर्भ में अमेरिका के कदम अच्छे थे, जबकि 60 प्रतिशत से अधिक लोगों को इस मामले में चीन बेहतर लगा.
इसी सर्वेक्षण में यह सवाल भी पूछा गया था की लोग अपने देश की सरकारों द्वारा कोविड 19 के कदमों से कितने संतुष्ट हैं. इसमें ग्रीस के 89 प्रतिशत, ताईवान और आयरलैंड के 87 प्रतिशत और साउथ कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और डेनमार्क के 86 प्रतिशत लोग अपने देश में उठाये जाने वाले कदमों से संतुष्ट थे. इस सन्दर्भ में सबसे नीचे के देशों में ब्राज़ील, फ्रांस, इटली, अमेरिका और इंग्लैंड शामिल हैं.
यूरोपीय देशों की 30 प्रतिशत से कम आबादी ने माना कि अमेरिका में ट्रम्प का शासन वैशिक लोकतंत्र के लिए सकारात्मक है, जबकि 50 प्रतिशत से अधिक लोगों की राय थी कि ट्रम्प वैश्विक लोकतंत्र को डुबो रहे हैं. पिछले वर्ष जितने लोगों ने ट्रम्प को लोकतंत्र के लिए सकारात्मक बताया था, इस वर्ष वह संख्या 4 प्रतिशत कम हो गयी है, जाहिर है ट्रम्प की वैश्विक लोकप्रियता लगातार गिरती जा रही है. जिन 15 यूरोपीय देशों में सर्वेक्षण किया गया, हरेक जगह अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की लोकप्रियता कम हो गयी है, जर्मनी में तो ट्रम्प का समर्थन 40 प्रतिशत तक कम हो गया है.
यह सर्वेक्षण इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्यों कि निकट भविष्य में अमेरिका एक ऐसा क़ानून लाने जा रहा है, जिसमें वहां व्यापार करने वाली कंपनियों को यह बताना पड़ेगा कि चीन के साथ किसी भी स्तर पर उनके व्यापारिक रिश्ते नहीं हैं. यदि, यह क़ानून आया तो इसका असर पूरी दुनिया के देशों पर पड़ेगा. इस क़ानून से निपटने के लिए हाल में ही यूरोपीयन यूनियन की महत्वपूर्ण बैठक आयोजित की गयी थी, जिसमें चीन और अमेरिका से व्यापार पर गहन विमर्श किया गया. इस क़ानून की भनक लगते ही जाहिर है चीन में ट्रम्प की लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से नीचे आ गया. वर्ष 2019 के सर्वेक्षण में चीन के 38 प्रतिशत नागरिक ट्रम्प के विरोध में थे, जबकि वर्ष 2020 के सर्वेक्षण में यह संख्या 64 प्रतिशत तक पहुँच गई.
अलायन्स ऑफ़ डेमोक्रेसीज के संस्थापक एंडर्स रासमुस्सेन के अनुसार पूरी दुनिया के लोकतंत्र के लिए कोविड 19 का दौर लिटमस टेस्ट की तरह है. पूरी दुनिया में लोकतंत्र अभी तक लोगों के मस्तिष्क में शामिल है, पर सरकारें लगातार जनता और लोकतंत्र से दूर होती जा रहीं हैं. अलायन्स ऑफ़ डेमोक्रेसीज हरेक वर्ष डेमोक्रेसी परसेप्शन इंडेक्स प्रकाशित करता है. इसमें किसी देश में कितने लोग लोकतंत्र का समर्थन करते हैं और कितने लोग समझते हैं कि उनके देश में लोकतंत्र है – इन दोनों का आकलन किया जाता है. इन दोनों आकलनों में अंतर को डेमोक्रेटिक डीफ़िसिएन्सी कहा जाता है. उदाहरण के तौर पर भारत एक लोकतांत्रिक देश है, और इसमें सर्वेक्षण में यदि 100 लोग लोकतंत्र का समर्थन करते है और इनमें से केवल 82 प्रतिशत ही यह मानते हों तो फिर भारत में डेमोक्रेटिक डीफ़िसिएन्सी 18 प्रतिशत है. हमारे देश का यह उदाहरण वर्ष 2019 के डेमोक्रेसी परसेप्शन इंडेक्स के वास्तविक आंकड़े हैं.
अमेरिका, फ्रांस, इटली, बेल्जियम और वेनेज़ुएला जैसे देशों में आधी आबादी भी यह नहीं मानती कि उनके देश में लोकतंत्र है. पोलैंड के 48 प्रतिशत, हंगरी के 42, उक्रेन के 39 और थाईलैंड के 35 प्रतिशत लोग ही मानते हैं कि उनके देश में लोकतंत्र है.
पिछले कुछ वर्षों से लोकतंत्र की गरिमा लगातार गिरती जा रही है, सरकारों और जनता के बीच का संवाद ख़तम हो चुका है. इसका सबसे बड़ा कारण है, पिछले आर्थिक मंदी के बाद से पूरी दुनिया में पूंजीवाद का बढ़ता वर्चस्व. इसी कारण आज लगभग पूरी दुनिया की आबादी की समस्याएं भी एक जैसी हो गयीं हैं. साम्यवाद के बारे में गैर-साम्यवादी देश कहते हैं, यह व्यवस्था हत्यारी है. उदाहरण के तौर पर पोल-पोट, माओ और स्टालिन के समय की चर्चा की जाती है, जब राजनैतिक हत्याएं सामान्य थी. नक्सलियों और माओवादिओं के बारे में भी यही प्रचारित किया जाता है. पूंजीवाद को मानव विकास की धुरी और सबकी उन्नति के तौर पर खूब प्रचारित किया जाता रहा है और साम्यवाद की आलोचना कर वह अपनी हत्यारी शक्तियों को उजागर नहीं होने देता. सच तो यह है कि पूंजीवाद हरेक समय और हरेक दिन लोगों को मारता है. यही प्रचार करते-करते पूंजीवाद लगभग पूरी दुनिया तक पहुँच गया.
पूंजीवाद के समर्थक कितना गलत प्रचार करते हैं, इसका सबसे बड़ा उदाहरण है – 1950 के आस-पास भारत (समाजवादी पूंजीवाद) और चीन (साम्यवाद) में आबादी की औसत उम्र 40 वर्ष थी. वर्ष 1979 तक भारत में औसत उम्र 54 वर्ष और चीन में 69 वर्ष तक पहुँच गयी.
पूंजीवाद का आरम्भ ही गुलामी से होता है | Capitalism begins with slavery.
.सत्रहवीं शताब्दी में इंग्लैंड और कुछ अन्य यूरोपीय देशों की औद्योगिक क्रांति (जो पूंजीवाद का आधार बना) के मूल में करोड़ों गुलाम थे जिन्हें अफ्रीका और एशिया के देशों से जलपोतों में भरकर मैनचेस्टर जैसे इलाकों में अमानवीय तरीके से रखा गया और उद्योगों में मुफ्त में या बहुत कम तनखाह पर काम कराया गया.
यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि उस समय मशीनें कम थीं, इस कारण सारा काम मजदूरों से ही कराया जाता था. इस पूरी प्रक्रिया में लाखों मजदूरों की मृत्यु हुई. पूरे पूंजीवाद का आधार ही इन्ही मजदूरों का खून-पसीना है.
/hastakshep-prod/media/post_attachments/CJXF9zgz8YI2oZTKVnGA.jpg)
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
पूंजीवाद की सबसे बड़ी विशेषता है कि अर्थ व्यवस्था के साथ ही धीरे-धीरे सारे प्राकृतिक संसाधन सिमट कर कुछ लोगों के हाथ में चला जाता है, जमीन इनके हाथ में चली जाते है, पहाड, नदियाँ सब कुछ इनका हो जाता है. जो आबादी इनका विरोध करती है उसे नक्सली, माओवादी, आतंकवादी का तमगा दे दिया जाता है. दुनियाभर में यही हो रहा है, और अपने अधिकारों के लिए या अपने जल, जमीन और जंगल की लड़ाई लड़नेवाले बड़ी तादात में सरकार के समर्थन से पूंजीपतियों की फ़ौज से मारे जा रहे हैं. अब तो कोविड 19 ने पूंजीपतियों को नए सिरे से एकजुट कर दिया है, दुनिया में बेरोजगारी, भूख, गरीबी और बढ़ेगी, बचे-खुचे प्राकृतिक संसाधनों पर भी इनका कब्ज़ा होगा और लोग मर रहे होंगें और साथ में लोकतंत्र भी विलुप्त हो चुका होगा..
महेंद्र पाण्डेय