प्रियंका गुप्ता की दो कविताएँ
1) तू खुद को आबाद कर
तू खुद को आबाद कर,
मेरी कुरबत से खुद को आजाद कर।
तेरा मसीहा तू खुद है,
तू खुद पर विश्वास कर।
जुड़ा तुझसे जरूर हूं मैं,
पर मैं तेरी किसमत नहीं।
तेरे वजूद तक को छू सकूं,
मेरी अब वो शख्सियत नहीं।
तू लौ है एक नए कल की,
उसे मेरे अंधेरे से मत छल।
तू जी... तू संघर्ष कर...
अपने परचम को बुलंद कर।
तू नादान सी एक रौशनी है,
खुद को दरिया के हवाले मत कर।
2) नाचता बचपन
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देखा है कभी
सड़क किनारे नाचता बचपन...
वही बचपन जो रेड-लाइट पर करतब दिखाता है
वही बचपन जो तुम्हारे आगे हाथ फैलाता है
वही बचपन जो कई रोज से भूखा है
वही बचपन जो प्रेम भरे स्पर्श से चूका है....
देखता है मेरी ओर तरस भरी निगाह से
दो मीठे बोल संग कुछ पाने की चाह में
हाथों में किताबें नहीं वो बचपन
माथे पर जुनून रखता है
भागती सी गाड़ियों के बीच
ज़िन्दगी को महफूज़ रखता है
कौन जाने वो कहां से आता है...
आता भी है या कैद किया जाता है..
ना जाने किन के किए पापों का
इतना कर्ज चुकाता है
अपने नन्हें-नन्हें पांवों से
तजुर्बों का सफर तय कर जाता है
स्कूल के मंच पर नाटक दिखाना था जिसको
न जाने क्यों सड़क किनारे करतब करता पाया जाता है
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-प्रियंका गुप्ता
(लेखिका कवयित्री व स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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प्रियंका गुप्ता
लेखिका कवयित्री व स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)