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उप्र : दुतरफा सांप्रदायिक खेला
उत्तर प्रदेश में भाजपा की हंफनी छूट रही लगती है। चुनाव अभी कम से दो महीने दूर है। फिर भी भाजपा ने न सिर्फ अपनी सांप्रदायिक दुहाई का ज्यादा से ज्यादा सहारा लेना शुरू कर दिया है बल्कि सांप्रदायिक दुहाई के अपने भड़काऊ से भड़काऊ नारों का सहारा लेना शुरू कर दिया है। ऐसी ही एक कोशिश में दिसंबर शुरू होते ही, उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री, केशव प्रसाद मौर्य (Keshav Prasad Maurya, Deputy Chief Minister of Uttar Pradesh) ने एक ट्वीट कर, अचानक मथुरा विवाद को उछाल दिया।
खास संघी चतुराई के साथ गढ़े गए ट्वीट में कहा गया था : ‘‘अयोध्या, काशी, भव्य मंदिर निर्माण जारी है, मथुरा की तैयारी है।’’ यह एक प्रकार से अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद से दिए जाते रहे इसी नारे का किंचिंत परिवर्तित रूप था कि, ‘अयोध्या तो झांकी है, काशी, मथुरा बाकी है।’
जाहिर है कि इस ट्वीट में मथुरा में मस्जिद जन्मभूमि के खिलाफ अभियान के अनुमोदन के अलावा जो बात बिना कहे कही जा रही थी, वह यह थी इन ‘उपलब्धियों’ के श्रेय की भाजपा राज की दावेदारी!
लेकिन, मौर्य ने मथुरा विवाद को कोई अचानक ही हवा नहीं दे दी। इसके लिए योगी सरकार के उपमुख्यमंत्री को प्रेरित किया था, मथुरा में विवादित शाही ईदगाह मस्जिद में ‘लड्डूगोपाल’ का जलाभिषेक करने के अखिल भारत हिंदू महासभा के एलान ने। संयोग ही नहीं है कि हिंदू महासभा ने इस उकसावेपूर्ण कार्रवाई के लिए 6 दिसंबर का दिन चुना था।
यानी हिंदू महासभा भी बिल्कुल स्पष्ट कर रही थी कि यह बाबरी मस्जिद के ध्वंस की परंपरा को ही आगे बढ़ाने की कोशिश का मामला है।
याद रहे कि इसी संबंध पर मौर्य ने भी अपने ट्वीट में जोर दिया था, लेकिन मंदिर निर्माण की बात कहकर।
बहरहाल, बाबरी मस्जिद के ध्वंस की सालगिरह के बहाने से, मथुरा विवाद की आग को हवा देने की योगी सरकार में नंबर-2 मौर्य की यह कोशिश चुनाव प्रचार के बाकायदा शुरू होने और खासतौर पर एक ओर अखिलेश यादव व प्रियंका गांधी की जनसभाओं में उमड़ती भारी उत्साहभरी भीड़ों तथा दूसरी ओर मोदी-योगी के कार्यक्रमों में भी नजर आती थकावट को देखते हुए, संघ-भाजपा के कुछ नये की तलाश में अपने सांप्रदायिक ताल में हाथ-पांव मार रहे होने को तो दिखा ही रहा था। इसके साथ ही यह संघ-भाजपा जोड़ी के सांप्रदायिक नारों के शरारतपूर्ण इस्तेमाल के जरिए, अपने समर्थक बहुसंख्यकों के धार्मिक-भावनात्मक मैनिपुलेशन के खेल को भी दिखा रहा था।
चूंकि इस समय उत्तर प्रदेश में भाजपा की और केंद्र में मोदी की सरकार है, बाबरी मस्जिद के ध्वंस की बरसी पर, 6 दिसंबर को मथुरा में मस्जिद ईदगाह के गिर्द किसी भी गड़बड़ी की इजाजत नहीं दी जा सकती थी। तब तो और भी नहीं, जब विधानसभा के चुनाव दो ही महीने दूर हैं और दूसरी ओर, संसद का सत्र चल रहा है। लिहाजा, योगी सरकार ने आनन-फानन में हिंदू महासभा के आह्वान पर रोक लगा दी और प्रशासन ने स्पष्ट कर दिया कि संबंधित स्थल पर किसी हरकत इजाजत नही दी जाएगी।
हिंदू महासभा ने भी, जिसकी थोड़ी लाइम लाइट लेने से आगे, न तो प्रशासन से किसी टकराव की नीयत थी और न संघ परिवार की इच्छा के खिलाफ जाने की हिम्मत थी, फौरन अपना कार्यक्रम बदल दिया और अपने समर्थकों से अपने घर पर ही लड्डूगोपाल का जलाभिषेक करने के लिए कह दिया।
इसी पृष्ठभूमि में, भाजपायी सरकार के उपमुख्यमंत्री ने मथुरा विवाद को भुनाने के लिए छलांग लगा दी।
आखिरकार, संघ-भाजपा इस मुद्दे को उछालने में फायदा ही फायदा नजर आ रहा था, जबकि इसमें जोखिम जरा भी नहीं था।
अचरज नहीं कि मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने भी अपने और अपनी पार्टी के हिंदू-मंदिरों-आचारों-त्यौहारों के भी रखवाले और अपने विरोधियों के हिंदू-विरोधी होने की अपनी लफ्फाजी का विस्तार करते हुए, ‘हम भव्य राम मंदिर बनवाने वाले जबकि विरोधी, कारसेवकों पर गोली बरसाने वाले’ की जुम्लेबाजी में यह आश्वासन और जोड़ दिया कि, ‘अब जब कारसेवा होगी, मथुरा में या कहीं भी, कार सेवकों पर गोलियां नहीं बरसायी जाएंगी, फूल बरसाए जाएंगे।’
यह एक प्रकार के मौर्य के इसके संकेत का ही अनुमोदन था कि ‘अब मथुरा में भी भव्य मंदिर’ इस चुनाव में भाजपा के प्रचार का हिस्सा रहने जा रहा है। हां! अयोध्या, काशी और मथुरा के मिश्रण में, किसका कितना, कहां और किस स्तर पर इस्तेमाल किया जाएगा, यह चुनावी जरूरत के हिसाब से तय किया जाएगा। उधर मुजफ्फरनगर के बाद, सहारनपुर के अपने दौरे से आदित्यनाथ ने साफ कर दिया है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन से हुए अपने चुनावी नुकसान को कम करने के लिए भाजपा, 2013 के सांप्रदायिक दंगे की अपनी हिंदुत्ववादी छवि को ही फिर से चमकाने की कोशिश करेगी।
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रधानमंत्री मोदी, जिन्होंने 2017 के विधानसभाई चुनाव में संघ-भाजपा के प्रचार में ‘श्मशान बनाम कब्रिस्तान’ और ‘दीवाली बनाम रमजान’ का मुद्दा जोड़ा था, इस बार सांप्रदायिक लामबंदी को आगे बढ़ाने के लिए कौन सा नया मुद्दा जोड़ते हैं।
बहरहाल, भाजपा को बखूबी मालूम है कि सांप्रदायिक गोलबंदी की यह कसरत, तब तक ज्यादा दूर नहीं जा सकती है, जब तक कि उसे जवाबी सांप्रदायिक गोलबंदी का सहारा या कम से बहाना हासिल नहीं हो। हिंदू-हिंदू, मंदिर-मंदिर कर के भी, गन्ने के बकाया, एमएसपी पर खरीद आदि से लेकर, नौकरियों के अभाव, उसके चलते लगातार बढ़ते पलायन, आम लोगों की असुरक्षा से लेकर खुलेआम जातिवादी भेदभाव तक के सवालों से हिंदुओं के बड़े हिस्से को भी कब तक विमुख रखा जा सकता है?
यही वह मुकाम है जहां असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व में एमआइएम, वस्तुगत रूप से संघ-भाजपा की मदद के लिए सदल-बल हाजिर है।
यहां इस बहस में पड़ने का कोई लाभ नहीं है कि ओवैसी की पार्टी को भी चुनाव लड़ने का दूसरों जितना ही जनतांत्रिक अधिकार है। या उनकी पार्टी के मुसलमानों के तौर पर मुसलमानों के मुद्दे उठाने में, मुसलमानों के प्रतिनिधित्व की मांग करने में, कुछ भी गलत नहीं है। इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि मुख्यधारा की धर्मनिरपेक्ष पार्टियों ने अल्पसंख्यकों के साथ न्याय सुनिश्चित करने के लिए कुछ खास नहीं किया है। यहां तक कि यह भी माना जा सकता है कि हालांकि एमआइएम ने उत्तर प्रदेश में पूरी सौ यानी ठीक-ठाक मुस्लिम आबादी वाली ज्यादातर सीटों पर चुनाव लड़ने की अपनी मंशा जतायी है, हो सकता है कि बिहार की तरह आखिर में वह अपनी सीटों की संख्या घटा दे और इस तरह उस सीटों की संख्या भी बहुत ज्यादा नहीं रह जाए, जहां उसके उम्मीदवार वोट बांट रहे हो सकते हैं।
इस सब के बावजूद, महत्वपूर्ण वह वस्तुगत भूमिका है जो एमआइएम की मौजूदगी अदा करने जा रही और सिर्फ या मुख्यत: उन सीटों पर ही नहीं अदा करने जा रही है, जहां वह उम्मीदवार खड़े करेगी या उम्मीदवार खड़े कर के मुस्लिम वोट बांट सकती है। उसकी यह भूमिका पूरे राज्य के पैमाने पर होगी। यह भूमिका इस तथ्य में निहित है कि संघ-भाजपा की मुस्लिम अनुकृति मुहैया कराके एमआइएम जैसे कोई भी घोषित रूप से मुस्लिम समुदाय को संबोधित करने वाली कतारबंदी, खुद सांप्रदायिक रुख न भी अपनाए तब भी, बहुसंख्यकवादी राजनीति को वैधता प्रदान करती है और उसी अनुपात में धर्मनिरपेक्ष राजनीति की वैधता पर सवाल खड़े कर, उसे कमजोर करती है।
और पिछले बिहार विधानसभाई चुनाव का और हैदराबाद नगर निगम के चुनाव का भी अनुभव गवाह है, संघ-भाजपा द्वारा एमआइएम की सीमित मौजूदगी को भी सबसे बढ़कर, अपने धर्मनिरपेक्ष विरोधियों को बहुसंख्यकविरोधी रंग में रंगकर प्रस्तुत करने के लिए और सांप्रदायिक आधार पर बहुसंख्यकों के बढ़ते हिस्से को अपने पीछे गोलबंद करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
हैदराबाद नगर निगम चुनाव में संघ-भाजपा ने, एमआइएम के अपेक्षाकृत छोटी ताकत होने के बावजूद, चुनाव प्रचार का अपना हमला उस पर ही केंद्रित रखा था और एमआइएम के साथ उसके रिश्ते के आरोपों को ही टीआरएस के खिलाफ अपने हमले का मुख्य हथियार बनाया था और बड़ी कामयाबी हासिल की थी, वह इसी सचाई को दिखाता है। यह बहुसंख्यकवादी ताकतों को मजबूत करने और अल्पसंख्यकों की वस्तुगत स्थिति कमजोर करने का ही रास्ता है। धर्मनिरपेक्ष ताकतों के साथ अल्पसंख्यकों की लामबंदी ही, बहुसंख्यकवाद के मुकाबले में मदद कर सकती है।
उत्तर प्रदेश के चुनाव में एमआइएम जाने-अनजाने इससे उल्टी ही भूमिका अदा करने जा रही है।
कौन कह सकता है कि बिहार में एनडीए को दोबारा सत्ता तक पहुंचाने वाली बहुत ही मामूली बढ़त में, एमआइएम की इस भूमिका का ही हाथ नहीं था।
राजेंद्र शर्मा