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औंधी टीका नीति से मजबूरी की पल्टी में भी जीत का स्वांग

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hastakshep
09 Jun 2021
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एक दिन अनाज के लिये भी मचेगी यही अफरातफरी, यह पूंजीवाद का निकृष्टतम रूप है

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वैक्सीन पर यू टर्न | U turn on vaccine

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Declaration of 'Liberalized Vaccine Policy'

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‘राजा कभी गलती नहीं कर सकता है’; कहते हैं कि यह ब्रिटिश संवैधानिक व्यवस्था के मूलाधारों में से है। लेकिन, ब्रिटिश व्यवस्था संवैधानिक राजतंत्र की है यानी नाम को राजतंत्र, जहां ‘राजा कभी गलती नहीं कर सकता’ है और व्यवहार में लोकतंत्र, जहां वास्तविक शासनतंत्र यानी कार्यपालिका, संसद के माध्यम से जनता के प्रति अपनी हरेक करनी-अकरनी के लिए जवाबदेह है। कार्यपालिका की जवाबदेही है, इसलिए उसे गलती से ऊपर नहीं रखा गया है। राजा की जवाबदेही नहीं है, इसीलिए वह गलती नहीं कर सकता है! अपने राज के सात साल में नरेंद्र मोदी ने भारत में, इस ब्रिटिश मॉडल का जो खास स्वदेशी वैरिएंट स्थापित किया है, उसकी चौंधियाने वाली झांकी, 7 जून की शाम के प्रधानमंत्री मोदी के राष्ट्र के नाम करीब आधा घंटे के रिकार्डशुदा संबोधन में देखी जा सकती थी। इस मॉडल में मोदी प्रधानमंत्री कम राजा ज्यादा हैं, इसलिए सारे फैसले तो उनके हैं, पर उनसे कभी गलती नहीं हो सकती है। इसलिए, 19 अप्रैल को नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में जिस ‘उदारीकृत टीका नीति’ की घोषणा की गयी थी और जिसे 1 मई से देश भर में लागू किया जा रहा था, उसे आंशिक रूप से पलटने और 75 फीसद टीकों के मामले में पहले वाली व्यवस्था को ही बहाल करने की 7 जून के प्रधानमंत्री के संबोधन में घोषणा अवश्य की गयी है। नीति बदलने का निर्णय और जाहिर है कि नुकसानदेह साबित होने के बाद इस बदलाव को पलटने का निर्णय--दोनों नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में। लेकिन, गलत निर्णय का कोई पछतावा, कोई जवाबदेही उनकी नहीं है। राजा कभी गलती तो कर ही नहीं सकता है!

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         लेकिन महाराजा मोदी को सिर्फ इतना भी कहां मंजूर है कि उनकी कोई गलती नहीं मानी जाए, कोई जवाबदेही नहीं रहे। सिर्फ इतना उनकी देवतुल्य छवि के लिए काफी नहीं है। उनकी छवि की हिफाजत के लिए, गलती को दूसरों के सिर मंढ़ना भी जरूरी है। अपने भाषण के आधा घंटे में से काफी हिस्सा प्रधानमंत्री ने यही साबित करने में लगाया कि जिस नीति को अब बदला जा रहा है, वह राज्य सरकारों और जाहिर है कि मुख्यत: विपक्षी राज्य सरकारों की मांग पर ही अपनायी गयी थी। और अब, जबकि खुद राज्यों ने मान लिया है कि 25 फीसद टीकों की व्यवस्था उन पर ही छोड़ने की नीति से मुश्किलें पैदा हो रही हैं और राज्यों ने इसकी मांग की है कि केंद्र सरकार ही टीकों की पूरी व्यवस्था संभाले, तो नरेंद्र मोदी की सरकार ने उदारतापूर्वक राज्यों को दी गयी जिम्मेदारी भी अपने कंधों पर उठाना मंजूर कर लिया है! यह दूसरी बात है कि भाषण में वाणी के स्वर के उतार-चढ़ाव-विस्तार के खेल के जरिए, अपने इस दावे को विश्वसनीय बनाने की प्रधानमंत्री मोदी की तमाम कोशिशों के बावजूद, इस नैरेटिव के असत्य और अर्द्ध-सत्य आसानी से छुप नहीं पाएंगे।

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         इस झूठे नैरेटिव को कई अर्द्ध-सत्यों के सहारा खड़ा किया गया है। इनमें पहला बड़ा अर्द्ध-सत्य तो यही है कि टीकाकरण की नीति का कथित ‘उदारीकरण’, राज्यों की मांग पर किया गया था।

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बेशक, 1 मई से पहले तक जिस टीकाकरण नीति के तहत, पहले चरण में स्वास्थ्यकर्मियों व अन्य फ्रंटलाइन वर्करों और अगले चरण में 45 वर्ष तक आयु के लोगों का टीकाकरण किया जा रहा था, वह भी कोई पूरी तरह से समस्याहीन नीति नहीं थी। खासतौर पर इस नीति के अमल में अति-केंद्रीयकरण से जुड़ी कई समस्याएं थीं। जैसाकि कोविड-19 महामारी के पूरे दौर में, मोदी सरकार का नियम ही रहा है, राज्यों को कितने टीके दिए जाएंगे से लेकर, राज्य किसे तथा किस प्रकार टीके लगा सकते हैं तक, सारे के सारे निर्णय केंद्र सरकार के ही हाथों में थे। मिसाल के तौर पर, पहले-दूसरे दौर के टीकाकरण के अनुभव के आधार पर, महाराष्ट्र तथा दिल्ली की सरकारों ने विशेष रूप से विकलांगों तथा ज्यादा बुजुर्गों को, घर पर ही टीका लगाने का पूरी तरह से तार्किक प्रस्ताव रखा था। लेकिन, केंद्र सरकार ने हिकारत से इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

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इसी प्रकार, टीकाकरण की रफ्तार से लेकर, पात्रता की श्रेणियों तक को लेकर, बेशक राज्यों के प्रश्न थे तथा सुझाव भी। लेकिन, 19 अप्रैल को जिस ‘उदारीकृत’ टीका नीति की घोषणा की गयी, उसका ठीकरा राज्यों की इन आलोचनाओं या मांगों के सिर फोडऩा, पूरी तरह से अर्द्ध-सत्य का सहारा लेना है। अचरज नहीं कि केरल के मुख्यमंत्री, पिनरायी विजयन ने उक्त उदारीकृत टीका नीति की घोषणा के अगले ही दिन प्रधानमंत्री को एक सख्त चिट्ठी लिखकर, टीकाकरण नीति में घोषित बदलावों पर आपत्ति जतायी थी और इसकी मांग दोहरायी थी कि केंद्र सरकार, मुफ्त सार्वभौम टीकाकरण करने के लिए, खुद ही सारे टीकों की खरीद करे।

नरेंद्र मोदी इस सिलसिले में एक और बड़े अर्द्ध-सत्य का सहारा लेते हैं। यह अर्द्ध-सत्य है, 19 अप्रैल को घोषित टीका नीति में किए गए बदलाव को सिर्फ इतना बदलाव बनाकर पेश करना कि ‘अब 45 वर्ष से कम आयु के लोगों के लिए, कुल टीकों के 25 फीसद की खरीद का जिम्मा, राज्य सरकारों को सौंप दिया गया’।

वास्तव में राज्य सरकारों पर 25 फीसद टीके सीधे उत्पादकों से खरीदने का जिम्मा डाला जाना तो इस ‘उदारीकरण’ का एक घटक भर था। इसका उतना ही महत्वपूर्ण घटक, न सिर्फ राज्यों पर इस 25 फीसद टीके के खर्च का भार डाला जाना था बल्कि केंद्र द्वारा अदा किए जा रहे उसी टीके के दाम से दो से तीन गुने तक दाम पर टीका खरीदने का भार राज्यों पर डाला जाना था, जिसके बेतुकेपन पर सुप्रीम कोर्ट भी हैरान रह गया था। मोटे तौर पर यह विचित्र व्यवस्था की गयी थी कि केंद्र सरकार, कुल टीका उत्पादन के 50 फीसद की खरीद पर जितना खर्चा करेगा, उतना ही खर्च कर राज्य सरकारें कुल टीके का 25 फीसद खरीद रही होंगी। और इस उदारीकरण का इतना ही महत्वपूर्ण एक और घटक, जिसे 7 जून को घोषित नीति में भी बनाए रखा गया है, राज्यों के बराबर टीकों की खरीद और वह भी राज्यों से भी दुगने-तिगुने दाम पर, निजी अस्पतालों के लिए खोलना था।

वास्तव में इस आखिरी घटक ने, जिसमें एक प्रकार से टीका नीति के इस उदारीकरण की जान ही थी, कम से कम देश के  आधे टीका उत्पादन के मामले में टीका नीति को सिर के बल ही खड़ा कर दिया, जहां टीके की उपलब्धता, पैसा खर्च करने की सामथ्र्य से तय हो रही थी। इसके चलते, न सिर्फ 25 फीसद टीके का वितरण पूरी तरह से कार्पोरेट अस्पताल शृंखलाओं के हाथों में केंद्रित हो गया, जिसमें से ठीक आधे टीके कुल 9 बड़े कार्पोरेट अस्पतालों को मिल रहे थे, जबकि शेष आधे भी सिर्फ टीयर-1 तथा टीयर-2 के शहरों के कुल 300 अस्पतालों तक पहुंच पाए थे; बल्कि राज्यों के हिस्से में से भी टीके निजी हाथों की ओर खिसकने लगे क्योंकि टीका निर्माताओं के लिए निजी अस्पतालों को टीके बेचना, और ज्यादा फायदे का सौदा था। इस सब में एक तथ्य और जोड़ लें कि एक ओर तो राज्यों को टीके के अपने हिस्से की खरीद के लिए निजी अस्पतालों से होड़ करनी पड़ रही थी क्योंकि कुल टीके का 25 फीसद भी उनके लिए सुरक्षित नहीं रखा गया था और दूसरी ओर राज्यों को ज्यादा ज्यादा कितना टीका किस समय सूची से मिलेगा, यह राज्यों को टीका खरीदने के की जिम्मेदारी सौंपने के बाद भी, केंद्र सरकार द्वारा ही तय किया जा रहा था।

इस टीका नीति को, जो वास्तव में मुफ्त सार्वभौम टीकाकरण के सारी दुनिया में स्वीकृत तकाजों से ठीक उल्टी दिशा में चले जाने को दिखाती थी, बुरी तरह से विफल तो होना ही था। यह नीति वास्तव में कोविड-19 महामारी के संबंध में इस बुनियादी सूत्र को ही नकारती थी कि, ‘सब सुरक्षित, तभी एक सुरक्षित।’ इस सूत्र पर चलते हुए, जहां दुनिया कम से कम सिद्धांत रूप में यह स्वीकार कर रही है कि सारी दुनिया का टीकाकरण ही कोरोना से मुक्ति का रास्ता है, मोदी सरकार 45 वर्ष से कम की यानी आधी से ज्यादा आबादी के लिए, टीके को संपन्नतर तबकों का विशेषाधिकार बनाने के रास्ते पर चल रही थी। अचरज नहीं कि इस नीति के अमल को देखकर, लगभग सभी विपक्षी राज्य सरकारों ने ही नहीं, खुद भाजपा की सरकारों ने भी इस नीति के बदले जाने और केंद्र सरकार द्वारा सारे टीके खुद ही खरीदकर, देश भर में मुफ्त टीकाकरण के लिए मुहैया कराने की, बढ़ती मुखरता से मांग करनी शुरू कर दी थी।

बहरहाल, इस विफल टीका नीति के संदर्भ के एक और महत्वपूर्ण पहलू को भी ध्यान रखना जरूरी है। 19 अप्रैल को जब मोदी सरकार ने नयी उदारीकृत टीका नीति का एलान किया था, देश कोविड महामारी की दूसरी लहर का तेजी से बढ़ता हुआ झटका झेल रहा था। यह वह दौर था, जब राजधानी क्षेत्र समेत महानगरों तक में अस्पताल, आक्सीजन, आइसीयू, वेंटीलेटर, एंबुलेंस और यहां तक कि श्मशानों/ कब्रिस्तानों की व्यवस्थाएं तक बैठती नजर आ रही थीं और देश और नागरिक इस संक्रमण के आगे पूरी तरह से लाचार नजर आ रहे थे। स्वाभाविक रूप से इस संदर्भ में, बचाव के इकलौते कारगर तरीके के रूप में टीकाकरण की स्थिति की ओर पूरे देश और दुनिया का ध्यान बहुत बलपूर्वक खिंचा। लेकिन, मोदी सरकार ने तो देशवासियों के लिए टीके जुटाने में अकल्पनीय लापरवाही तथा विचारहीनता का परिचय दिया था। वह तो महामारी की पहली लहर के पिछले वर्ष के आखिर तक कमजोर पडऩे के बाद, वैज्ञानिकों की सारी आगाहियों के बावजूद, इसके आख्यान गढऩे में ही लगी हुई थी कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने कोविड को आसानी से हरा दिया था!

नतीजा यह हुआ कि जब टीकाकरण को सबसे तेजी से आगे बढ़ाए जाने की जरूरत थी, टीकों की उपलब्धता का संकट सामने आना शुरू हो गया। अपनी गलतियों से पैदा हुए इस संकट को हल करने में अपनी सारी ताकत लगाने के बजाए, मोदी सरकार ने अपनी छवि बचाने की ही ज्यादा चिंता की। जब 45 वर्ष तक आयु के तथा प्राथमिकता वाले समूहों के टीकाकरण की रफ्तार में, टीके की कमी से बाधा आ रही थी, न सिर्फ 18 वर्ष की आयु तक सबके लिए टीकाकरण खोलने का एलान कर दिया गया बल्कि इस वर्ग के लिए आधा टीका उत्पादन सुरक्षित कर, ऊंचे दाम पर टीके लगने का रास्ता खोल दिया गया। मकसद, टीकों की उपलब्धता की समस्याओं के चलते टीकाकरण की धीमी रफ्तार की जवाबदेही से, महाराजा को बचाना और इसकी जिम्मेदारी राज्यों समेत चारों ओर बिखेरना था। अचरज नहीं कि इस पैंतरे के चलते, महामारी की दूसरी लहर के उछाल के बीचो-बीच टीकाकरण की रफ्तार उल्लेखनीय तरीके से धीमी पड़ गयी और मोदी सरकार के दुर्भाग्य से इस पर देश और दुनिया भर में तेज से तेज होती आलोचनाओं की गूंज देश के सर्वोच्च न्यायालय तक सुनाई दी, जिसने मोदी सरकार की इस टीकाकरण नीति को ‘मनमानी और बेतुकी’ करार देते हुए, उसे इस नीति पर पुनर्विचार करने का निर्देश दिया था।

इस तरह गला पकड़े जाने पर ही मोदी सरकार अपनी इस नुकसानदेह नीति को और वह भी आंशिक रूप से ही वापस लेने के लिए तैयार हुई है। लेकिन, झूठे नैरेटिव फैलाने पर अपने असीम विश्वास के अनुरूप, प्रधानमंत्री मोदी ने इसे अपनी मूल टीका नीति की सफलता और राज्यों की मांगों की विफलता बनाकर, चलाने की कोशिश की है। और इसके साथ ही बड़ी दीदादिलेरी से उन्होंने एक बार फिर इसका दावा पेश कर दिया है कि उनके नेतृत्व में कोविड के मोर्चे पर देश में सब ठीक-ठाक चल रहा है। इसके लिए उन्होंने भारत के टीकाकरण के लंबे इतिहास को मिटाने से लेकर, कोविड के टीके के विकास के लिए हजारों करोड़ रु0 की मदद देने तक, तरह-तरह के असत्यों का भी सहारा लिया, लेकिन उसकी चर्चा फिर कभी।  

राजेंद्र शर्मा

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