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अगर नहीं लगी उत्सर्जन पर लगाम तो गर्मी ले लेगी जान; संयुक्त राष्ट्र ने चेताया

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hastakshep
28 Feb 2022
पर्यावरण असंतुलन जिम्मेदार कौन ?

Climate Change

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UN warning: Heat will kill if emissions are not controlled

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Without climate action, extreme weather will trigger global humanitarian needs

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नई दिल्ली, 28 फरवरी 2022. अगर उत्सर्जन में इसी तरह वृद्धि जारी रही तो लखनऊ और पटना 35 डिग्री सेल्सियस के वेट बल्ब तापमान तक पहुंच जाएंगे। यह चेतावनी हाल ही में जारी जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की ताज़ा रिपोर्ट (United Nations latest report on climate change) में दी गई है।

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रिपोर्ट में साफ़ तौर पर बताया गया है कि

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जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की ताज़ा रिपोर्ट बेहद खास है क्योंकि इसमें साफ़ तौर पर वैश्विक स्तर पर बढ़ते कार्बन एमिशन और उसकी वजह से बदलती जलवायु का मानवता पर हो रहे असर का ज़िक्र है।

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वरिष्ठ पत्रकार व पर्यावरणविद् डॉ सीमा जावेद बताती हैं कि रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत के कुछ शहर, जैसे सूरत, भुवनेश्वर और इंदौर शहरी स्तर पर एडाप्टेशन योजना बना चुके हैं। लेकिन उनका एडाप्टेशन प्लान एक ही खतरे पर केंद्रित हैं। उदाहरण के लिए इंदौर केवल पानी की कमी को देखता है। उन्हें हाइब्रिड और मल्टी सेक्टोरिअल यानी एक नहीं अनेक पहलूओं पर केन्द्रित करने की ज़रूरत है।

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रिपोर्ट के लेखकों में से एक, डॉ अरोमर रेवी के अनुसार भारत और बांग्लादेश जैसे देशों के लिए इस दिशा में परिवर्तन लाने के लिए एक छोटा सा मौका है जिसका अगर वक़्त रहते फायदा नहीं उठाया तो दोनों ही देशों कि जलवायु समस्या बढ़ेगी।

उदाहरण के लिए वो कहते हैं कि हमें उड़ीसा में तूफानों के प्रति प्रतिरोधी साफ़ बिजली प्रणालियों की आवश्यकता है। जो तूफ़ान आने पर घंटों बिजली बंद रहने के बजे तूफ़ान के फौरन बाद बिजली की सप्लाई चालू कर दें।

इस रिपोर्ट में भारत को लेकर कुछ बेहद चिंताजनक बातें कहीं गयी हैं।

1. कार्बन उत्सर्जन में कटौती के बिना, आने वाले निकट भविष्य में गर्मी और उमस मानव सहनशीलता की सीमा को पार कर जाएगी।

रिपोर्ट के चैप्टर 10 और पेज 57 पर साफ़ कहा गया है कि भारत उन स्थानों में से है जो इन असहनीय परिस्थितियों का अनुभव करेगा।

रिपोर्ट के लेखकों में से एक, अंजल प्रकाश बताते हैं कि बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग (rising global warming) के कारण भारत के उच्च ऊंचाई वाले हिमालयी क्षेत्र में डेंगू और मलेरिया फैल रहा है।

ग्लोबल वार्मिंग के कारण बहुत जल्द ख़तरे में आ जाती है हिमालय की नाजुक प्रणाली (Due to global warming, the delicate system of the Himalayas is in danger very soon.)

रिपोर्ट की एक अन्य लेखिका डॉ चांदनी सिंह के अनुसार हिमालय की नाजुक प्रणाली ग्लोबल वार्मिंग के कारण बहुत जल्द ख़तरे में आती है, और यहाँ फिर से चमोली जैसी और भी आपदाएं हो सकती हैं।

रिपोर्ट वेट-बल्ब तापमान का ज़िक्र किया गया है, जो मूल रूप से तापमान रीडिंग की गणना करते समय गर्मी और उमस को भी जोड़ कर देखता है। एक आम इंसान के लिए, 31 डिग्री सेल्सियस का वेट-बल्ब तापमान बेहद खतरनाक है। 35 डिग्री सेल्सियस में तो छाया में आराम कर रहे किसी स्वस्थ वयस्क के लिए भी लगभग 6 घंटे से अधिक समय तक जीवित रहना मुश्किल हो जाएगा।

रिपोर्ट के चैप्टर 10 और पेज 43 पर बताया गया है कि फिलहाल भारत में वेट-बल्ब का तापमान शायद ही कभी 31°C से अधिक होता है, और भारत की अधिकांश जगहों में अधिकतम वेट-बल्ब तापमान 25-30°C ही होता है।

अध्ययन बताता है कि अगर उत्सर्जन में वर्तमान में किए वादों के मुताबिक भी कटौती की जाती है, तब भी उत्तरी और तटीय भारत के कई हिस्से सदी के अंत तक 31 डिग्री सेल्सियस से अधिक के बेहद खतरनाक वेट-बल्ब तापमान अनुभव करेंगे।

यदि उत्सर्जन में ऐसी ही वृद्धि जारी रहती है, तो भारत के अधिकांश हिस्सों में वेट-बल्ब तापमान 35 डिग्री सेल्सियस के खतरनाक स्तर तक पहुंच जाएगा।

जो बात हैरान करने वाली है वो ये है कि रिपोर्ट में साफ़ तौर पर बताया गया है कि अगर उत्सर्जन में वृद्धि जारी रही तो लखनऊ और पटना 35 डिग्री सेल्सियस के वेट बल्ब तापमान तक पहुंच जाएंगे। इसके बाद भुवनेश्वर, चेन्नई, मुंबई, इंदौर और अहमदाबाद में वेट बल्ब तापमान 32-34 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने का अनुमान है।

कुल मिलाकर, असम, मेघालय, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब सबसे अधिक प्रभावित होंगे।

2. समुद्र के स्तर में वृद्धि से भारत में लोगों, कृषि और बुनियादी ढांचे को होगा खतरा (Sea level rise will threaten people, agriculture and infrastructure in India)

रिपोर्ट की लेखिका बेगम रोशन आरा कहती हैं कि - भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान में ग्लोबल वार्मिंग से तटीय शहरों में बुनियादी ढांचे का नुकसान हो सकता है। इनके तटीय शहरों में हीट वेव और भारी वर्षा के कारण आने वाली बाढ़ें गंभीर होंगी, जो भारत और बांग्लादेश में बहुत से लोगों को अपने घर छोड़ने के लिए मजबूर करेंगी।

रिपोर्ट के चैप्टर 3 पेज 50 पर ज़िक्र हुआ है कि अगर सरकारें अपने मौजूदा उत्सर्जन-कटौती के वादों को पूरा करती हैं तो इस सदी में वैश्विक स्तर पर समुद्र का स्तर 44-76 सेंटीमीटर तक बढ़ जाएगा। लेकिन तेज़ी से उत्सर्जन में कटौती के साथ, वृद्धि 28-55 सेमी तक सीमित की जा सकती है। जैसे-जैसे समुद्र का स्तर बढ़ता है, खारे पानी की घुसपैठ के कारण अधिक भूमि जलमग्न हो जाएगी, नियमित रूप से बाढ़ आ जाएगी, और ज़मीन कृषि के लिए अनुपयुक्त हो जाएगी।

इसी चैप्टर मेन आगे पेज 58 पर साफ किया गया है की भारत अपनी जनसंख्या की वजह से समुद्र स्तर में वृद्धि से प्रभावित होने वाले देशों मेन सबसे कमजोर है।

सदी के मध्य तक, भारत में लगभग 35 मिलियन लोगों को वार्षिक तटीय बाढ़ का सामना करना पड़ सकता है। साथ ही, चैप्टर तीन पेज 126 में बताया गया है कि सदी के अंत तक 45-50 मिलियन लोग जोखिम में होंगे।

भारत के लिए समुद्र के स्तर में वृद्धि और नदी की बाढ़ की आर्थिक लागत भी दुनिया में सबसे ज्यादा होगी। इस बात का खुलासा होता है चैप्टर 10 के पेज 59 पर जहां एक अन्य अध्ययन के अनुसार बताया गया है कि यदि उत्सर्जन में केवल उतनी ही तेजी से कटौती की जाती है जितनी कि वर्तमान में वादा किया गया था तो प्रत्यक्ष क्षति का अनुमान $24 बिलियन के बीच है, और यदि उत्सर्जन अधिक है और बर्फ की चादरें अस्थिर हैं, तो यह आंकड़ा $36 बिलियन पहुंचेगा। यदि उत्सर्जन में वृद्धि जारी रही तो अकेले मुंबई में समुद्र के स्तर में वृद्धि से नुकसान 2050 तक 162 अरब डॉलर प्रति वर्ष तक हो सकता है।

3. खाद्य उत्पादन भी होगा प्रभावित (Food production will also be affected)

विश्व स्तर पर, उच्च तापमान और चरम मौसम की घटनाएं, जैसे कि सूखा, गर्मी की लहरें और बाढ़, फसलों को नुकसान पहुंचा रही हैं और अगर तापमान में वृद्धि जारी रहती है तो फसल उत्पादन में तेजी से कमी आएगी। रिपोर्ट के चैप्टर 5 के पेज 14-15 पर इन बातों का उल्लेख है कि जलवायु परिवर्तन और बढ़ती मांग का मतलब है कि भारत में लगभग 40% लोग 2050 तक पानी की कमी के साथ जीएंगे, जबकि अब यह 33% है। गंगा और ब्रह्मपुत्र दोनों नदी घाटियों में भी जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप बाढ़ में वृद्धि (Increase in floods as a result of climate change) देखी जाएगी, खासकर अगर वार्मिंग 1.5 डिग्री सेल्सियस से गुजरती है। इस बात का ज़िक्र चैप्टर 10 पेज 40 पर है।

भारत के कुछ हिस्सों में चावल का उत्पादन 30% गिर सकता है यदि उत्सर्जन अधिक होता है तो। और अगर उत्सर्जन में कटौती की जाती है तो यह आंकड़ा 10% हो जाएगा। ऐसे ही अगर लगाम नहीं लगी तो मक्के का उत्पादन 70% तक गिर सकता है और अगर कटौती की गयी उत्सर्जन में तो, यह आंकड़ा हो जाएगा 25%।

निरंतर जलवायु परिवर्तन से भारत में मछली उत्पादन में भी गिरावट आएगी। इसका ज़िक्र हुआ है चैप्टर 10 के पेज 47 पर। प्रमुख व्यावसायिक प्रजातियों, जैसे हिल्सा शाद और बॉम्बे डक, का तापमान में वृद्धि जारी रहने पर नाटकीय रूप से गिरावट का अनुमान है।

4. उत्सर्जन में कटौती के बिना भारत को गंभीर आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ेगा

IPCC रिपोर्ट के चैप्टर 16, पेज 22 पर लिखा है कि एक अध्ययन के अनुसार, 1991 के बाद से भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी पहले से ही 16% कम है, जो मानव-जनित वार्मिंग के बिना होती। भारत एक ऐसा देश है जो जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक आर्थिक रूप से प्रभावित है। इतना कि वैश्विक स्तर पर उत्सर्जित प्रत्येक टन कार्बन डाइऑक्साइड की कीमत भारत को $ 86 पड़ी। और 2021 में दुनिया ने 36.4 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन किया।

Continued warming will further damage India's economy

निरंतर वार्मिंग भारत की अर्थव्यवस्था को और नुकसान पहुंचाएगी, खासकर अगर उत्सर्जन को तेजी से समाप्त नहीं किया जाता है। गर्मी श्रम क्षमता को कम कर देगी, विशेष रूप से कृषि में: आईपीसीसी रिपोर्ट <अध्याय 13, पृष्ठ 57> द्वारा अनुमानित एक अध्ययन में कहा गया है कि भारत में कृषि श्रम क्षमता 17% गिर जाएगी यदि वार्मिंग 3 डिग्री सेल्सियस तक जारी रहती है - वर्तमान की तुलना में केवल थोड़ा अधिक यदि उत्सर्जन में कटौती में तेजी लाई जाती है तो नियोजित उत्सर्जन - या 11% हो जाएगा।

आईपीसीसी द्वारा अनुमानित एक अध्ययन के अनुसार, निरंतर उच्च उत्सर्जन का समग्र प्रभाव औसत वैश्विक आय को 23% कम करना हो सकता है। और भारत में साल 2100 में औसत आय 92% कम होती उस स्तर से जो जलवायु परिवर्तन के बिना होता।

https://twitter.com/IPCC_CH/status/1498258914760134659

5. भारत कहीं और होने वाली चरम घटनाओं से होगा प्रभावित

रिपोर्ट की एक अन्य लेखिका डॉ चांदनी सिंह के अनुसार हिमालय की नाजुक प्रणाली ग्लोबल वार्मिंग के कारण बहुत जल्द ख़तरे में आती है, और फिर से चमोली जैसी और भी आपदाएं हो सकती हैं। साथ, ग्लेशियरों के पिघलने से हिमालय के अंचल मे रह रहे लोग पानी की कमी का अनुभव कर सकते हैं और इसके प्रति एडाप्ट नहीं किया जा सकता। जहां भारत अपनी सीमा के भीतर होने वाले जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से प्रभावित होगा, वहीं अन्य जगहों पर होने वाले परिवर्तनों के परिणामों से भी यह बहुत प्रभावित होगा।अंजल बताते हैं कि बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग के कारण भारत के उच्च ऊंचाई वाले हिमालयी क्षेत्र में डेंगू और मलेरिया फैल रहा है।

उदाहरण के लिए, जलवायु परिवर्तन अंतरराष्ट्रीय आपूर्ति श्रृंखलाओं, बाजारों, वित्त और व्यापार को प्रभावित करेगा, भारत में वस्तुओं की उपलब्धता को कम करेगा और उनकी कीमतों में वृद्धि करेगा, साथ ही भारतीय निर्यात बाजारों के लिए हानिकारक होगा। इस बात का ज़िक्र हुआ है चैप्टर 11 पेज 74 पर और चैप्टर 16 के पेज 40 पर। बिना वार्मिंग वाली दुनिया की तुलना में वार्मिंग के उच्च स्तर के कारण सदी के अंत तक वैश्विक जीडीपी में 10-23% की गिरावट आ सकती है। कई प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में जलवायु परिवर्तन के कारण और भी बड़ी आर्थिक गिरावट देखी जा सकती है।

जलवायु परिवर्तन पहले से ही आपूर्ति श्रृंखलाओं को नुकसान पहुंचा रहा है। उदाहरण के लिए, 2011 में थाईलैंड में बाढ़ ने सेमीकंडक्टर उत्पादन को प्रभावित किया, जिससे वैश्विक औद्योगिक उत्पादन में 2.5% की गिरावट आई और हार्ड डिस्क की कीमतों में 80-190% की वृद्धि हुई। इस प्रकार का व्यवधान अधिक सामान्य होने की संभावना है, खासकर यदि उत्सर्जन अधिक है, क्योंकि भारी बारिश, तेज तूफान और समुद्र के स्तर में वृद्धि से बंदरगाहों और अन्य तटीय बुनियादी ढांचे में अधिक बाढ़ आएगी। यह बताया गया है चैप्टर 3 के पेज 126 पर। नवंबर 2021 में, रिपोर्ट का मसौदा तैयार होने के बाद, कनाडा में बाढ़, सड़क और रेल बंद होने से वैंकूवर बंदरगाह पर पहुंचने में देरी हुई, जो कनाडा के अधिकांश अनाज निर्यात को संभालता है। इसका मतलब यह था कि कंटेनर को स्टोर करने के लिए जगह की कमी के कारण जहाज खाली कंटेनरों के साथ एशिया लौट आए, जिसके परिणामस्वरूप कनाडा से निर्यात में अतिरिक्त देरी हुई और अंतरराष्ट्रीय शिपिंग प्रभावित हुई।

अंतरराष्ट्रीय खाद्य आपूर्ति भी खतरे में है। अगर उत्सर्जन में तेजी से कटौती नहीं की गई तो वैश्विक स्तर पर कई जगहों पर चरम घटनाओं के कारण व्यापक फसल की विफलता का जोखिम बढ़ जाएगा। इससे वैश्विक खाद्य कमी और कीमतों में वृद्धि हो सकती है, जो विशेष रूप से गरीब लोगों को नुकसान पहुंचाएगी और सामाजिक अशांति के जोखिम को बढ़ाएगी।

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