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शिक्षा के संबंध में भारतीय समाज की आयरनी क्या है ?
भारतीय समाज की आयरनी यह है कि सब शिक्षा लेना चाहते हैं लेकिन शिक्षा पर सोचना कोई नहीं चाहता। शिक्षा साझा समस्या है लेकिन इस पर न कोई जनांदोलन है और न किसी तरह की सामाजिक सचेतनता नजर आती है। यहां तक कि शिक्षकों और छात्रों में भी शिक्षा की समस्याओं को लेकर कोई सचेतनता और सक्रियता नहीं है।
राजनीतिक दलों ने हमेशा शिक्षा को एक मृत विषय या अप्रासंगिक विषय के रूप में व्यवहार किया है।
शिक्षितों में शिक्षा संबंधी अचेतनता बताती है कि हमारा शिक्षित समाज, राजनीतिक संरचनाएँ, संसद-विधानसभा आदि इस विषय को लेकर कितनी अचेत हैं।
हाल ही में अपने तीस साल के टीवी अध्ययन में पहली बार एकमात्र एनडीटीवी पर कई दिनों तक लगातार स्कूली शिक्षा की दशा पर महत्वपूर्ण सचेतनता पूर्ण टीवी टॉक शो आए। किसी भी टीवी ने आज तक इतना व्यापक कवरेज शिक्षा पर प्राइम टाइम में नहीं दिया। जबकि 125 के करीब न्यूज चैनल हैं।
असल में शिक्षा का विगत सत्तर सालों में बुनियादी अर्थ ही बदल गया है, जेएनयू पर जिस तरह केन्द्र सरकार, आरएसएस और कारपोरेट मीडिया ने हमला किया है उसने एक ही संदेश दिया है कि शिक्षा व्यवस्था को सरकारी दल का पिछलग्गू या भोंपू होना चाहिए।
शिक्षा तकरीबन समूचे देश में आज सरकारी दल के पिछलग्गू के रूप में ही काम कर रही है।
विभिन्न राज्य सरकारें अपने निहित स्वार्थी नजरिए के अनुकूल लोगों को नौकरी देती हैं और तदनुरूप पठन-पाठन भी होता है।
विगत सत्तर सालों में तीन तरह के उपयोगितावाद को शिक्षा में देखा गया है। पहला- राजनीतिक उपयोगितावाद, दूसरा- व्यापारी उपयोगितावाद और तीसरा- नौकरीकेन्द्रित उपयोगितावाद।
शिक्षा संबंधी नीति, परिप्रेक्ष्य और आधारभूत संरचनाओं के निर्माण संबंधी फैसले इन तीन तरह के उपयोगितावाद को केन्द्र में रखकर लिए जाते रहे हैं, इसने आम शिक्षितों के शिक्षा संबंधी अज्ञान में इजाफा किया है, शिक्षा सचेतनता को दोयम दर्जे की चेतना बनाकर रख दिया है।
शिक्षा का बुनियादी काम क्या है?
शिक्षा का बुनियादी काम उपयोगितावादी बुद्धि निर्मित करना नहीं है। शिक्षा का बुनियादी काम है सचेतन नागरिक बनाना। दिलचस्प बात यह है हम जब पढते-पढाते हैं तो उपभोगवादी दृष्टिकोण से काम लेते हैं। मांग-पूर्ति के नजरिए से कक्षा में प्रवेश करते हैं। पाठ्यक्रम पढ़ाना और पढ़ना है। काम के सवाल और उनके उत्तर बताना -लिखाना मात्र मकसद रह गया है।
छात्र, शिक्षा और शिक्षक की इतनी सीमित भूमिका के कारण ही आज शिक्षा एकदम अप्रासंगिक होकर रह गयी है। इसने शिक्षक को दाता और छात्र को उपभोक्ता मात्र बनाकर रख दिया है।
आज शिक्षक और छात्र शिक्षा के कल-पुर्ज़े मात्र होकर रह गए हैं। आज छात्र-शिक्षक सचेतन नागरिक नहीं रह गए, बल्कि उलटा हो रहा है। जेएनयू के छात्रों -शिक्षकों को सचेतन नागरिक होने के नाते, उनके समर्थक शिक्षकों और छात्रों को सारे देश में राष्ट्रविरोधी कहकर अपमानित किया जा रहा है।
जेएनयू का इस व्यवस्था के साथ एक ही बात पर मेल नहीं बैठता, वे शिक्षा के उपयोगितावाद और दाता-उपभोक्ता वाले मॉडल को एकसिरे ठुकराते हैं। यही वजह है कि जेएनयू आज केन्द्र सरकार, आरएसएस और कारपोरेट मीडिया के निशाने पर है।
जेएनयू की खूबी है कि वहाँ शिक्षित नागरिक तैयार किए जाते हैं, शिक्षा को व्यवस्था के विकल्प के रूप में निर्मित किया है, जबकि अन्यत्र शिक्षा तो व्यवस्था का अंग है। यही बात सत्ताधारियों को यह बात पसंद नहीं है।
जेएनयू के छात्र और शिक्षक नागरिक चेतना, नागरिक हकों और संवैधानिक सोच-समझ को लेकर शिक्षित हैं, वे दैनन्दिन राजनीति की जटिलताओं को समझने और उनका समाधान खोजने, उसके लिए संघर्ष करने की समझ रखते हैं, वे मूढ़मति शिक्षितजन नहीं हैं। इस मायने में वे सारे देश से भिन्न एकदम विकसित चेतनायुक्त नजर आते हैं।
जेएनयू माने सचेतन नागरिक की पहचान, यही चीज है जो सत्ताधारियों को बेचैन किए रहती है। पहले कांग्रेसी परेशान थे अब आरएसएस परेशान हैं।
शिक्षा जहाँ एक ओर नागरिकबोध पैदा करे, वहीं साथ ही सामाजिक यथार्थ के अन्तर्विरोधों को गहराई से जानने की दृष्टि दे। व्यवस्था का विकल्प दे, अन्तर्विरोधों को हल करने का नजरिया दे। यह चीज जेएनयू के पूरे कैम्पस के माहौल में रची बसी है।
आप किसी भी विषय के शिक्षक और छात्र हों यह परिवेश आपको शिक्षित करेगा, अन्यत्र संस्थानों में यह चीज दुर्लभ है। अन्यत्र शिक्षा संस्थानों में "शिक्षित युवा", "कमाऊ युवा" मिलेगा, नागरिकचेतना संपन्न नागरिक कम मिलेंगे।
प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी
Under whose pressure is education? Who are the enemies of education?