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UP: Yogi's Hindutva name Kevalam, only the support of communalism
Sampradayikata ka hi sahara : भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक का संदेश क्या है?
भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की पिछली बैठक का सत्ताधारी पार्टी के शीर्ष नीति-निर्धारक निकाय की दो साल अंतराल के बाद हुई बैठक के नाते, रस्म-अदायगी के सिवा कोई खास अर्थ भले न हो, पर इस बैठक का संदेश बिल्कुल स्पष्ट था। अगले महीने के शुरू में होने जा रहे राज्य विधानसभाई चुनावों के अगले चक्र में, राजनीतिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश में, सत्ताधारी पार्टी के चुनाव अभियान की कमान इस समय मुख्यमंत्री के पद पर आसीन, आदित्यनाथ के ही हाथों में रहने जा रही है। बैठक का मुख्य राजनीतिक प्रस्ताव, आदित्यनाथ के हाथों से रखवाया जाना, इसी का स्पष्ट संदेश देने के लिए था।
वैसे यह स्पष्ट तो अब से कई महीने पहले ही हो गया था, जब कोविड-19 के वेग में जरा सी कमी होते ही, तीन स्तरीय पंचायत चुनावों में भाजपा के साफतौर पर पिछड़ने के बाद, आरएसएस-भाजपा की विभिन्न स्तरों पर समीक्षा की कसरत के बाद, मोदी-शाह की जोड़ी ने उत्तर प्रदेश में योगी पर ही दांव लगाने का फैसला लिया था।
योगी सरकार से आम लोगों की बढ़ी हुई नाराजगी के बावजूद योगी पर ही दांव लगाने का फैसला
यह फैसला इसके बावजूद लिया गया था कि भाजपा द्वारा ही उत्तराखंड में तीन महीने में तीन-तीन मुख्यमंत्री आजमाए जाने और गुजरात तथा कर्नाटक में मुख्यमंत्री कार्यकाल के बीच में ही बदले जाने के जरिए, महामारी के दौर में खासतौर पर सामने आयी जनता की नाराजगी से निपटने के लिए, मुख्यमंत्री बदले जाने को एक प्रकार से नियम ही बना लिया था।
दूसरी ओर, इस फैसले से पहले हुई समीक्षा बैठकों के लंबे दौर से साफ था कि यह फैसला, आदित्यनाथ सरकार से आम लोगों की बढ़ी हुई नाराजगी के बावजूद लिया जा रहा था। पाठकों को याद होगा कि दिल्ली में शाह और मोदी के दरबार में योगी की पेशी के फौरन बाद, जहां योगी को अभयदान दिया गया था, वहीं इसका भी एलान कर दिया गया था कि योगी, अकेले चलने की अपनी हेकड़ी छोड़कर, छोटी-छोटी जाति-आधारित पार्टियों के साथ गठबंधन का और दूसरी पार्टियों से छांट-छांटकर नेताओं को भाजपा के पाले में लाने का रास्ता तैयार करेंगे। इसी हिसाब से उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल में विस्तार के लिए भी, योगी की रजामंदी हासिल की गयी थी।
फिर भी, इस संबंध में सिर्फ तार्किक अनुमान ही लगाया जा सकता था कि, योगी को इस राजनीतिक रूप से अति-महत्वपूर्ण चुनाव में, भाजपा का चेहरा बनाने का मोदी-योगी जोड़ी ने, असंतोष से निपटने के लिए चेहरा बदलने के अपने नियम के खिलाफ जाकर फैसला क्यों किया?
बेशक, योगी के संबंध में जानने वालों के उस समय आए इस अनुमान में भी कुछ तथ्य हो सकता है कि उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाने का मतलब, चुनाव से पहले सत्ताधारी पार्टी के लिए एक नयी समस्या खड़ी हो जाना होता।
मोदी-शाह की मजबूरी बने योगी
सबसे अनुकूल प्रतिक्रिया की स्थिति में भी, योगी ने खुद को गोरखपुर के अपने मठ में बंद कर लिया होता और उनकी अघोषित नाराजगी ने चुनाव में संघ-भाजपा की मुश्किलें बढ़ायी होतीं। फिर भी, योगी को सत्ताधारी पार्टी द्वारा चुनाव में अपना चेहरा बनाए जाने का यह आनुषांगिक कारण ही हो सकता है, मुख्य कारण नहीं। मुख्य कारण तो यही लगता है कि मोदी-शाह की भाजपा जानती है कि जनता की नाराजगी से बचने के लिए, उसे जिस तरह के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की जरूरत होगी, उसके लिए भगवाधारी योगी से उपयुक्त चेहरा उत्तर प्रदेश में दूसरा नहीं हो सकता है। आखिरकार, उग्र-मुस्लिमद्वेष की राजनीति से अपनी पहचान बनाने वाले योगी ने, पांच साल के अपने मुख्यमंत्रित्व में, अपनी इस छवि को और चमकाया ही है।
चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आते जा रहे हैं, वैसे-वैसे योगी, शीर्ष भाजपा नेतृत्व के उक्त आकलन को सही साबित करते जा रहे हैं। अपनी प्रचार सभाओं के पहले चक्र में ही पूर्वी उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती इलाके में योगी ने, अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर इसके आरोप लगाने से शुरूआत कर दी थी कि ‘पिछली सरकारों के जमाने में तो ‘‘अब्बा जान’’ बोलने वाले, बाकी सब के हिस्से का राशन खा जाते थे।’ इसके साथ ही वह यह दावा जोड़ना नहीं भूले के तब के विपरीत अब तो, अब्बा जान बोलने वालों की ऐसा कुछ करने की हिम्मत ही नहीं होगी। वास्तव में, मुसलमानों को सिर चढ़ाने वाली पिछली (सपा तथा बसपा) सरकारें बनाम उन्हें उनकी जगह पर रखनेवाली योगी सरकार का यही प्रस्तुतीकरण, योगी के चुनाव अभियान का मुख्य प्रचार अस्त्र ही बन गया है।
बेशक, इस तर्क के विस्तार में लगातार नयी-नयी सामग्रियां जुड़ती जाती हैं, पर उससे इस बुनियादी तर्क की पुष्टि ही होती है। और यह तर्क सारत: मुसलमानों को दबाकर रखने को ‘‘हिंदू हित’’ का पर्याय बना देता है और ठीक ऐसे ही ‘‘हिंदू हित’’ के लिए, योगी और उनकी पार्टी का साथ देने की दुहाई बन जाता है।
Credit for construction of Ram temple in Ayodhya
इसी तर्क का कमाल है कि योगी, कोई न कोई प्रसंग निकालकर, आए दिन अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के श्रेय की अपनी और अपनी पार्टी की दावेदारी तो दोहराते ही हैं, लेकिन इसके साथ ही यह याद दिलाना भी नहीं भूलते हैं कि किस तरह उनके विरोधी ही, मंदिरविरोधी थे! ‘अब्बाजान’ प्रसंग के फौरन बाद, अयोध्या के अपने एक दौरे पर योगी ने ‘कार सेवकों पर गोली चलाने वालों’ आदि, नामों से अपने विरोधियों पर हमला बोल दिया।
पुन:, दीपावली के मौके पर सार्वजनिक कोष से लाखों दिए जलवाने के अपने ‘विश्व रिकार्ड’ बनाने और हैलीकॉप्टर से लाए गए राम-लक्ष्मण-सीता का राज्याभिषेक आदि आयोजित करने के मौके पर, योगी ने फिर अपने रामभक्त होने और दूसरों के रामद्रोही-रामभक्तद्रोही होने का बखान किया।
इसी क्रम में प्रधानमंत्री मोदी के अमरनाथ धाम के आयोजन के साथ जोड़कर, योगी ने फिर, वे ‘कब्रिस्तान की दीवारों पर पैसा खर्च करने वाले’ बनाम हम ‘मंदिर बनाने, उनका रख-रखाव करो वाले’ की दुहाई का सहारा किया।
इसी बीच, सपा नेता अखिलेश यादव के स्वतंत्रता के संघर्ष के नेताओं के नामोल्लेख के क्रम में जिन्ना का नाम ले देने भर को, योगी ने अपने हिंदुत्व में राष्ट्रवादी छोंक लगाने का मौका बना लिया।
फिर भी, आदित्यनाथ की यह सांप्रदायिक दुहाई सबसे मुकम्मल तरीके से सामने आयी, एकदम हाल के उनके मुजफ्फरनगर और कैराना के दौरे में।
मुजफ्फरनगर में अपनी सभा में, जिसमें 2013 के दंगे के दोषी/आरोपी कई भाजपा नेता मंच पर योगी के अगल-बगल में थे, योगी ने दंगों के दोषियों को ‘पीड़ित’ बताकर, उनकी हिमायत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
पर योगी इन संघी ‘वीरों’ की वकालत करने पर ही नहीं रुक गए। इससे बढ़कर उन्होंने 2013 की घटनाओं की घोर सांप्रदायिक प्रस्तुति में, इस दंगे के मुख्य पीड़ित, मुस्लिम अल्पसंख्यकों को ही हमलावर बना दिया।
पर वह इतने पर भी नहीं रुके और उन्होंने यह भी बताया कि कैसे, हिंदू होने के आधार पर सांप्रदायिक गोलबंदी ही, हिंदुओं को बचा सकती है। खासतौर पर जाटों की भाजपा से मुखर नाराजगी को लक्षित कर, योगी ने बार-बार ‘जाति की बात करने वालों’ पर हमला किया और लोकदल, समाजवादी पार्टी आदि, को उक्त दंगे के ही संदर्भ से, हिंदूविरोधी साबित करने पर पूरा जोर लगा दिया।
बहरहाल, भाजपा का चेहरा बने आदित्यनाथ ने इतने पर भी बस नहीं की। पहले से तय कार्यक्रम से वह बगल के कस्बे, कैराना विशेष रूप से उन परिवारों से मिलने के लिए गए, जो पहले ‘मुसलमान समाजविरोधी तत्वों’ के आतंक के चलते वहां से ‘‘पलायन’’ करने पर मजबूर हो गए थे और योगी के राज में ‘‘सुरक्षित’’ महसूस होने से वापस लौट आए हैं।
योगी जी के हिसाब से इसे कश्मीर से पंडितों के पलायन का, उत्तर प्रदेश समकक्ष माना जा सकता है और वह भी इस महत्वपूर्ण अंतर के साथ कि योगी के राज में इन पलायनकर्ता हिंदुओं की ‘वापसी’ हो गयी है, जबकि मोदी-शाह का राज भी कश्मीर में पंडितों की वापसी अब तक नहीं करा पाया है! बेशक, यह दूसरी बात है कि यह पूरा का पूरा मामला ही झूठे सांप्रदायिक प्रचार का है।
कैराना से तत्कालीन भाजपायी सांसद, हुकुम सिंह ने 2016 से पहली बार इस तरह के पलायन का प्रचार शुरू किया था, जिसे 2017 के चुनाव के समय अपने प्रचार में खुद आदित्यनाथ ने खूब उछाला भी था। पर बाद में इसका प्रचार ज्यादा बढ़ने पर, डबल इंजन सरकार ने जो जांच करायी गयी, उसमें हिंदुओं के पलायन के इन दावों का कोई आधार ही नहीं मिला, जिसके बाद उक्त जांच को ही दफ्न कर दिया गया।
उस जमाने में मीडिया आयी अनेक खोजी रिपोर्टों में यह सच सामने आया था कि सैकड़ों लोगों के पलायन और डर से अपने पुश्तैनी घर बेचने की सूचियां झूठी थीं और अधिकांश मामले रोजगार की तलाश में, कस्बों से शहरों की ओर, लोगों के स्वाभाविक पलायन के थे।
क्या हम उम्मीद करें कि पत्रकारों की खोजी रिपोर्टें एक बार फिर हमें बताएंगी कि इस ‘पलायन’ और ‘घर-वापसी’ में कितना सच है और कितना झूठ!
मुजफ्फरनगर-कैराना के आदित्यनाथ के प्रचार का यह उग्र सांप्रदायिक स्वर, इसलिए और भी महत्वपूर्ण है कि यह स्वर, उस क्षेत्र में आया है जो किसान आंदोलन से हुए मंथन से, योगी की पार्टी के लिए एक तरह से प्रवेश-वर्जित क्षेत्र बन गया है। यह उग्र तथा खुली सांप्रदायिक मुद्रा इसकी संकेतक है कि जनता की नाराजगी का सामना करने के लिए मोदी-शाह की भाजपा के पास एक ही हथियार है--सांप्रदायिक गोलबंदी। जैसे-जैसे चुनाव प्रचार के क्रम में बढ़ते स्तर पर जनता की नाराजगी सामने आएगी, वैसे-वैसे भाजपा खुलकर इस मुद्रा में आती जाएगी, जिसके लिए ही उसने आदित्यनाथ को चुनाव के लिए अपना चेहरा बनाना तय किया है।
इसके बावजूद, अगर कांग्रेस के महत्वपूर्ण मुस्लिम नेता, गुलाम नबी आजाद को, अपनी पार्टी के एक और वरिष्ठ नेता, सलमान खुर्शीद के यह कहने पर सार्वजनिक रूप से ऐतराज जताना जरूरी लगा है कि ‘आइसिस आदि की ही तरह, हिंदुत्व परंपरागत हिंदू धार्मिक विश्वासों के नाम पर बोलने का दावा करने वाला, किंतु उनसे बिल्कुल अलग, एक पूरी तरह से राजनीतिक गढ़ंत है’, तो इसे विडंबना ही कहा जाएगा।
वास्तव में इस मुकाम पर आजाद का इस तरह की बहस छेड़ना कि हिंदुत्व, आइसिस आदि के मुकाबले कितना कम खतरनाक है, कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं के कथित जी-23 के, जमीनी राजनीतिक-वैचारिक लड़ाई के तकाजों से बिल्कुल कटे होने को ही दिखाता है।
राजेंद्र शर्मा
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