हिंदुत्व का यूटोपिया और विचारधारा
दुःस्वप्न लोक में बदल रहा है हिंदुत्व का स्वप्न लोक
स्वप्न लोक से यहां तात्पर्य यूटोपिया से है। जो लोग भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं उनके पास हिन्दू राष्ट्र और हिंदुत्व की समग्र परिकल्पना है, ऐसा उनका दावा है। वे सिर्फ एक मौका चाहते हैं। वे मांग कर रहे थे कि वे यदि केन्द्र सरकार सिर्फ अपने बलबूते पर बनाने में सफल हो जाते हैं तो वे हिन्दू राष्ट्र के सपने को साकार कर देंगे। सिर्फ एक मौका मिल जाए। उनको दो मौके मिल चुके हैं और तबाही सामने है, तीस करोड लोग नौकरी खो चुके हैं। भयानक निरुद्योगीकरण हुआ है। सारा देश बीमारियों से ग्रस्त है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों और दवा कंपनियों की लूट खुलेआम सरकारी संरक्षण में चल रही है। संविधान को भीतरघात करके निष्क्रिय बनाया जा चुका है।
हिंदुत्व के यूटोपिया की बुनियादी समस्या क्या है?
हिंदुत्व के यूटोपिया की सबसे बुनियादी समस्या है भारत का संविधान जो लोकतांत्रिक अधिकारों, धर्मनिरपेक्षता और बहुलतावाद को प्रत्येक स्तर पर सुनिश्चित बनाता है। भारत को यदि वे हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं तो उन्हें साफ तौर पर जनता के बीच संविधान परिवर्तन के प्रस्तावों को अपने चुनावी मैनिफैस्टो में लेकर जाना होगा। उन्हें बताना होगा कि आखिरकार वे भारत को हिन्दू राष्ट्र में रूपान्तरित करने के लिए किस तरह का संविधान देंगे और मौजूदा संविधान की किन बातों को वे नहीं मानते। लेकिन जहां तक हमारा अनुभव है जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी ने, जो संघ परिवार से जुड़ा राजनीतिक दल है, उसने संविधान में क्या बदलाव जरूरी हैं इन्हें केन्द्र में रखकर कोई बहस नहीं चलायी है, उलटे उसने मौजूदा संविधान के प्रति अपनी आस्थाएं व्यक्त करते हुए भाजपा का चुनाव आयोग में पंजीकरण कराया है। पर आचरण में वे संविधान और संवैधानिक मान-मर्यादाओं का पालन नहीं करते।
क्या भारत के संविधान में माओवादियों की कोई आस्था है?
उल्लेखनीय है माओवादियों की भारत के संविधान में कोई आस्था नहीं है। माओवादी संविधान को पूरी तरह अस्वीकार करते हैं, इसी तरह और भी कई पृथकतावादी संगठन हैं उत्तर-पूर्वी राज्यों और कश्मीर में जो भारत के संविधान और जम्मू-काश्मीर के कानूनों को एक सिरे से अस्वीकार करते हैं।
सवाल उठता है कि संघ परिवार ने जब जनसंघ-भाजपा के जरिए राजनीति आरंभ की तो उसने मौजूदा संविधान के सामने नतमस्तक होकर काम करने की प्रतिज्ञा क्यों की ?
यदि सचमुच संघ परिवार यह मानता है कि संविधान उनके हिन्दू राष्ट्र के यूटोपिया के लक्ष्यों की पूर्ति नहीं करता तो उन्हें यह कहने का हक था कि वे हिन्दू राष्ट्र की अवधारणाओं के अनुरूप नया संविधान बनाने के लिए संघर्ष जारी रखेंगे और चुनाव में भाग नहीं लेंगे। लेकिन उन्होंने यह सब नहीं किया। भाजपा और संघ परिवार ने जिस दिन भारत के संविधान को मान लिया उसी दिन हिन्दू राष्ट्र के सपने का बुनियादी तौर पर अंत हो गया था।
हिंदुत्व और हिन्दू राष्ट्र का सपना क्या यूटोपिय़ा है
असल में हिंदुत्व और हिन्दू राष्ट्र का सपना वोट बैंक राजनीति का प्रौपेगैण्डा अस्त्र है। यह यूटोपिय़ा नहीं है। असल में वे हिंदुत्व का प्रचार करते हुए बुनियादी सामाजिक परिवर्तन के दायित्वों से भागना चाहते हैं। यहां तक कि हिन्दू समाज को बदलने के दायित्वों से पलायन कर रहे हैं। वे हिंदुत्व-हिंदुत्व की रट लगाकर आम लोगों का ध्यान उनकी सामाजिक जिम्मेदारियों और समस्याओं से हटाना चाहते हैं। वे इसके जरिए पूंजीवादी शोषण से ध्यान हटाना चाहते हैं। इस अर्थ में वे पूंजीवाद के खिलाफ पैदा हो रहे गुस्से को सामाजिक और सामूहिक तौर पर एकत्रित नहीं होने देते।
हिंदुत्व का यूटोपिया अपूर्ण और लोकतंत्र -धर्मनिरपेक्षता विरोधी क्यों है ? हिंदुत्व का यूटोपिया समग्रता में यूटोपिया की शक्ल अख्तियार क्यों नहीं कर पाया ? हिंदुत्ववादी ताकतों ने राजनीतिक अवसरवाद का सहारा क्यों लिया ? क्या वे लोग हिंदुत्व के सपने को लेकर आश्वस्त नहीं थे ? ऐसा राजनीतिक कार्यक्रम क्यों बनाया जिसमें सत्ता संघ के हाथ में हो, या उसके निर्देश पर राज्य सरकार और केन्द्र सरकार में संघी लोग काम करें और राजनीतिक आधार को विस्तार दें ?
हिंदुत्व के यूटोपिया और राजनीतिक कार्यक्रम के बिना हिंदुत्व और उनके दल रीढ़विहीन हैं। दिशाहीन हैं। वे अपनी राज्य सरकारों के जरिए आज तक कोई भी हिन्दू कार्यक्रम लागू नहीं कर पाए हैं। मसलन गुजरात की सरकार को ही लें, उसके पास जितने भी कार्यक्रम हैं वे सबके सब पूंजीवादी कार्यक्रम हैं, यह पूंजीवाद कम से कम हिंदुत्व की विचारधारा से पैदा नहीं हुआ है। मोदी सरकार की अधिकांश योजनाएं केन्द्र सरकार यानी कांग्रेस पार्टी की पहल पर तैयार की गयी योजनाएं हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदुत्व अभी तक अपना स्वतंत्र राजनीतिक कार्यक्रम नहीं बना पाया है।
हिंदुत्व के पास आर्थिक कार्यक्रम के अभाव का प्रधान कारण है कि उसने सामाजिक समस्याओं की कभी गंभीरता के साथ हिन्दूवादी परिप्रेक्ष्य में मीमांसा नहीं की है। उसके पास ऐसे समाज विज्ञानियों का अभाव है जो हिंदुत्व के नजरिए से सामाजिक मीमांसा तैयार करके दें। फलतः हिंदुत्व बहुत ही संकीर्ण दायरे में राजनीतिक विचरण कर रहा है।
हिंदुत्व की अवधारणा अधूरी है। इसमें सामाजिक शोषण से मुक्ति दिलाने की क्षमता नहीं है। यह संविधान विरोधी अवधारणा है। इसके कुछ आंतरिक कारण हैं और कुछ बाह्य भौतिक कारण हैं।
हिंदुत्व के यूटोपिया न बन पाने का दूसरा बड़ा कारण है हिन्दू समाज और समूचे भारतीय समाज की रूढ़ियों के प्रति उसका मोह और अनालोचनात्मक नजरिया। वे अपने देशप्रेम को अतीत से बांधकर रखते हैं। वे इस बात को कभी पसंद नहीं करते कि वे जिस अतीत को स्वर्णकाल मानते हैं, गौरवपूर्ण मानते हैं अथवा जिस अतीत को बुरा मानते हैं उसके बारे में कोई सवाल खड़े किए जाएं। वे अतीत के हिन्दू समाज और उसकी विचारधारा और नैतिकता-अनैतिकता, श्लील-अश्लील की कल्पित तस्वीर बनाते हैं और उसमें मगन रहते हैं और यही प्रचार करते हैं उन्होंने जो तस्वीर बनायी है वह सही है उसे कोई बदल नहीं सकता, उस तस्वीर को कोई भी उलट-पलटकर देख नहीं सकता।
हिंदुत्व को रूढ़िवाद बेहद प्रिय है। वे जानते हैं हिंदुत्व और हिन्दू राष्ट्र की स्थापना संभव नहीं है। उनके पास कारपोरेट जगत की सेवा करने के अलावा और कोई काम नहीं है। उनका कार्यक्रम हिन्दू अर्थशास्त्र पर आधारित नहीं है बल्कि कारपोरेट पूंजीवाद और अमेरिकी नजरिए पर आधारित है।
हिंदुत्ववादी मूलतः यथास्थितिवादी हैं। हिंदुत्ववादियों के सोचने का ढ़ंग बड़ा विलक्षण है। उनकी आलोचना की पद्धति विलक्षण है। वे किसी भी बात का खंडन कर देते हैं बगैर प्रमाण दिए। वे अपनी स्थापनाओं को बगैर किसी प्रमाण के पेश करते हैं।
हम इनके ज्ञानियों से सवाल करना चाहते हैं क्या इंसान को धर्म में लपेटकर पढ़ा जाना सही है? क्या मज़हब का ढ़ोल बजाकर इस दुनिया को समझा जा सकता है ? यदि हां, तो एक सवाल का जबाब दो इंसान को भूख पहले भी लगती थी, अब भी लगती है। ताकत का नशा उसे पहले भी था आज भी है, शेरो-शराब का शौकीन पहले भी था आज भी है। आज ऐसा क्या परिवर्तन आय़ा है जिसके कारण इंसान को हम बदला हुआ पाते हैं ? यहां पर मुझे सआदत हसन मंटो के शब्द याद आ रहे हैं।
मंटो ने लिखा था, ’’ यह नया जमाना नए दर्दों और नई टीसों का जमाना है। एक नया दौर पुराने दौर का पेट चीरकर पैदा किया जा रहा है। पुराना दौर मौत के सदमे से रो रहा है, नया दौर ज़िंदगी की खुशी से चिल्ला रहा है। दोनों के गले रूँधे पड़े हैं, दोनों की आँखें नमनाक हैं-इस नमी में अपने कलम डुबोकर लिखने वाले लिख रहे हैं। नया अदब ? ज़वान वही है, सिर्फ लहजा बदल गया है। दरअसल इसी बदले हुए लहजे का नाम नया अदव, तरक्कीपसंद अदव, फहशअदव या मजदूरपरस्त अदव है।’’
मंटो ने सवाल उठाया है ‘‘दुनिया बहुत वसी है। कोई च्यूँटी मारना बहुत बड़ा पाप समझता है, कोई लाखों इंसान हलाक कर देता है और अपने इस फ़अल को बहादुरी और शुजाअत (वीरता) से तावीर करता है। कोई मज़हब को लानत समझता है, कोई इसी को सबसे बड़ी नैमत-इंसान को किस कसौटी पर परखा जाए ? यूँ तो हर मज़हब के पास एक बटिया मौजूद है जिस पर इंसान कसकर परखे जाते हैं मगर वह बटिया कहाँ है ? सब कौमों, सब मज़हबों, सब इंसानों की वाहिद कसौटी जिस पर आप मुझे और मैं आपको परख सकता हूँ, वह धर्मकाँटा कहाँ है, जिसके पलड़ों में हिन्दू और मुसलमान, ईसाई और यहूदी, काले और गोरे तुल सकते हैं?’’
‘‘ यह कसौटी, यह धर्मकाँटा जहाँ कहीं भी है, नया है न पुराना है। तरक्कीपसंद है न तनज्ज़ुलपसंद। उरियाँ है न मस्तूर (गुप्त), फ़हश है न मुतहर् (श्लील)- इंसान और इंसान के सारे फ़अल इसी तराजू में तोले जा सकते हैं। मेरे नजदीक किसी और तराजू का तसव्वुर करना बहुत ही बड़ी हिमाकत है।’’
मंटो ने यह भी लिखा ‘‘हर इंसान दूसरे इंसान के पत्थर मारना चाहता है, हर इंसान दूसरे इंसान के अफ़आल (करतूतों) परखने की कोशिश करता है। यह उसकी फि़तरत है जिसे कोई भी हादिसा तब्दील नहीं कर सकता। मैं कहता हूँ अगर आप मेरे पत्थर मारना ही चाहते हैं तो खुदारा ज़रा सलीके से मारिए। मैं उस आदमी से हरगिज-हरगिज अपना सिर फुड़वाने के लिए तैयार नहीं जिसे सिर फोड़ने का सलीका नहीं आता। अगर आपको यह सलीका नहीं आता तो सीखिए-दुनिया में रहकर जहाँ आप नमाज़ें पढ़ना, रोज़े रखना और महफ़िलों में जाना सीखते हैं, वहाँ पत्थर मारने का ढ़ंग भी आपको सीखना चाहिए।’’
‘‘आप खुदा को खुश करने के लिए सौ हीले करते हैं। मैं आपके इस क़दर नज़दीक हूँ, मुझे करना भी आपका फ़र्ज़ है। मैंने आपसे कुछ ज्यादा तलब तो नहीं किया ? मुझे बड़े शौक़ से गालियाँ दीजिए। मैं गाली को बुरा नहीं समझता, इसलिए कि यह कोई ग़ैर फितरी चीज़ नहीं, लेकिन ज़रा सलीके से दीजिए। न आपका मुँह बदमज़ा हो और न मेरे ज़ौक़ को सदमा पहुँचे।’’
अंत में, फंडामेंटलिस्ट दोस्तों से कहना चाहते हैं कि वे धार्मिक तत्ववाद यानी हिंदुत्व का मार्ग त्यागकर संविधान और साहित्य के मार्ग पर चलें। मंटो के ही शब्दों में, ‘‘अदब दर्जाए हरारत है अपने मुल्क का, अपनी कौम का-अदब अपने मुल्क, अपनी कौम, उसकी सेहत और अलालत की खबर देता रहता है-पुरानी अल्मारी के किसी ख़ाने से हाथ बढ़ाकर कोई गर्द आलूद किताब उठाइए,बीते हुए ज़माने की नब्ज़ आपकी उँगलियों के नीचे धड़कने लगेगी।’’
क्या भारत हिन्दू राष्ट्र है?
कोई हिन्दू बने या मुसलमान हमें इसमें आपत्ति नहीं है। हमारी आपत्ति इसमें है कि वे भारत को हिन्दू राष्ट्र क्यों कहते हैं। भारत संवैधानिक तौर पर हिन्दू राष्ट्र नहीं है। भारत का संविधान, हिन्दू राष्ट्र का संविधान नहीं है। भारत कभी भी हिन्दू राष्ट्र नहीं था। बात-बात में हिन्दू राष्ट्र की दुहाई देना, भाषणों से लेकर लेखन तक में उसका इस्तेमाल करना अवैज्ञानिक है, गलत है।
हिन्दूराष्ट्र और हिंदुत्व को भारतवासियों का पर्याय बताना सफेद झूठ है और यह भारतवासियों का अपमान है। भारत की बहुसांस्कृतिक विरासत और बहुसांस्कृतिक जनता का अपमान है। यदि राम को रावण के नाम से बुलाया जाएगा तो वह गलत होगा। राम को राम के नाम से ही सम्बोधित किया जाना चाहिए। उसी तरह भारत को भारत के नाम से पुकारें। ‘भारत एक हिन्दूराष्ट्र है’ यह कहकर न पुकारें, यह भारत का अपमान है, भारतवासियों का अपमान है। मनुष्यता का अपमान है। यह हिन्दू फंडामेंटलिज्म है।
आज के हिन्दुस्तान की सच्चाई क्या है?
आज के हिन्दुस्तान की सच्चाई यह है कि यहां एक नहीं अनेक किस्म की पहचानें प्रत्येक व्यक्ति के पास हैं। लेकिन संघ परिवार एक ही अस्मिता का बार बार ढ़ोल पीटता रहता है। वे लोग संविधान में उपलब्ध अभिव्यक्ति की आजादी और विचारों के प्रसार की आजादी का दुरूपयोग कर रहे हैं और भारतीय समाज के बारे में गलत समझ पैदा कर रहे हैं। बहुजातीयता और बहुसांस्कृतिकता का अपमान कर रहे हैं।
संघ जब हिन्दू राष्ट्र के नाम पर इस्लाम और ईसाई धर्म की निंदा करता है और उन्हें पराए धर्म के रूप में चित्रित करता है तो बहुलतावाद को अस्वीकार करता है। संविधान की मूल स्प्रिट का उल्लंघन करता है।
हिन्दू से इतर अस्मिताओं और धर्मों का इतिहास भारत में सैंकड़ो-हजारों साल पुराना है। देश का समूचा तानाबाना बहुसांस्कृतिक-बहुधार्मिक-बहुजातीय मान्यताओं और विश्वासों पर टिका है। इसे रचने में हिन्दुओं, मुसलमानों, जैनियों, नाथों-सिद्धों, योगियों, शाक्तों,बौद्धों आदि का योगदान रहा है। संघ के लोग जब भारत को हिन्दूराष्ट्र के रूप में चित्रित करते हैं तो गैर हिन्दू धर्मों और संस्कृतियों की भारत के निर्माण में जो भूमिका रही है उसे अस्वीकार करते हैं।
भारत आज एक तरह से खुले समाज के रूप में अपना विकास कर रहा है और इसमें सभी धर्मों-जातीयताओं और संस्कृतियों के लिए समानता का भाव है। इन सबको समान संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं।
भारत का संविधान खुले तौर पर बहुसांस्कृतिकता और बहुधार्मिकता की हिमायत करता है। इसके बावजूद संघ के नेताओं का भारत को बार-बार हिन्दू राष्ट्र कहना वस्तुतः बहुसांस्कृतिक जातीयताओं और धर्मों का अपमान ही कहा जाएगा।
संघ परिवार के लोग हिन्दू राष्ट्र के नाम पर आम लोगों के हृदय में बहुसांस्कृतिवाद और बहुधार्मिकवाद के खिलाफ ज़हर भरना चाहते हैं। वे यह भी जानते हैं कि भारत कभी हिन्दू राष्ट्र नहीं था, न आज है और न भारत कभी भविष्य में हिन्दू राष्ट्र बनेगा।
भारत की पहचान का आधार क्या है?
भारत की बहुसांस्कृतिक-बहुधार्मिक-बहुजातीय राष्ट्र-राज्य की पहचान है। भारत की पहचान का आधार हिन्दूधर्म नहीं है। कोई भी धर्म भारत की पहचान का आधार नहीं है। बहुजातीयता, बहुधार्मिकता और बहुसांस्कृतिकता राष्ट्रीय पहचान का आधार हैं।
आज भारत खुले समाज का हिमायती है…
आज भारत के खुले समाज के लिए सबसे बड़ी चुनौती हिंदुत्व और इस्लामिक फंडामेंटलिस्टों की ओर से आ रही है। ये दोनों ही विचारधाराएं अपने-अपने तर्कों के आधार पर आम आदमी की जिंदगी और खासकर बहुसांस्कृतिक स्वतंत्रता पर हमले कर रहे हैं। इन दोनों ही फंडामेंटलिस्ट विचारधाराओं के भारत में अब तक के कारनामे भारत के खुले समाज के वातावरण को नष्ट करने वाले हैं।
जनतंत्र के बुनियादी तानेबाने के लिए आज इन दोनों ही किस्म के संगठनों से गंभीर खतरा है। हिन्दू और मुस्लिम फंडामेटलिज्म के झंडाबरदार समाजवाद और पूंजीवाद के विकल्प के रूप में अपनी फंडामेंटलिस्ट विचारधारा को पेश कर रहे हैं। वे इसे सामाजिक विकास के तीसरे मार्ग के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें इन दोनों ही फंडामेंटलिस्ट विचारधाराओं की आलोचना करते समय सतर्कता से काम लेना चाहिए। इन दोनों को ही इस्लाम और हिन्दू धर्म से अलगाने की जरूरत है।
मसलन आरएसएस के हिंदुत्व का हिन्दूधर्म से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं है। उसी तरह केरल में हाल के वर्षों में पैदा हुए मुस्लिम फंडामेंटलिस्ट संगठन पापुलर फ्रंट का इस्लाम से कोई लेना देना नहीं है। य़ह एक मुस्लिम फंडामेंटलिस्ट संगठन है और अनेक मायनों में यह संघ का अनुकरणकर्ता है।
यूरोप के अनेक देशों में घटिया किस्म की हरकतें हो रही हैं। ये हरकतें उन देशों में हो रही हैं जिन्हें उदार पूंजीवादी मुल्क माना जाता है। मसलन इटली में मुसलमान औरतों के लिए अलग से समुद्र तट बनाए गए हैं, जहां पर वे कपड़ों में निर्भय होकर समुद्र स्नान कर सकें और पतनशील पश्चिमी नग्नता से बची रह सके।
हॉलैण्ड में मुसलमानों के लिए अलग से अस्पताल बनाए जाने की बातें हो रही हैं जहां पर मुस्लिम औरतें अपने पिता, पति, भाई आदि के साथ गैर मुस्लिमों की मौजूदगी में मिल सकें। यह कोशिश की जा रही है कि कोई गैर मुस्लिम डाक्टर मुस्लिम बीबी, बहन और माताओं को हाथ भी न लगा सके। इन दिनों यूरोप की सड़कों पर बुर्का ज्यादा नजर आ रहा है। इतना बुर्का तीस साल पहले नहीं दिखता था।
हिन्दू फंडामेंटलिस्टों ने उन तमाम सुधारों, मान्यताओं और मूल्यों को चुनौती दी है जिन्हें भारत ने रैनेसां के दौरान और बाद के वर्षों में अर्जित किया था। बहुलतावाद का प्रत्येक क्षेत्र में सम्मान करना रैनेसां की उपलब्धि थी। इसे हमें राजा राममोहन राय सौंप गए हैं।
हिन्दू शुद्धता, हिन्दू संस्कृति और हिन्दू राष्ट्र की धारणा पर विगत 30 सालों में जिस आक्रामक भाव से संघ परिवार ने जोर दिया है उससे भारत का बहुलतावादी सामाजिक-राजनीतिक ढांचा हिल गया है। वे हिंदुत्व-हिंदुत्व करके भारत के बहुलतावादी तंत्र को बर्बाद करना चाहते हैं जिसे बड़ी तकलीफों के बाद रैनेसां में हमारे समाज ने अर्जित किया था। बहुलतावाद के लिए शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व पर जोर दिया गया।
फंडामेंटलिस्टों का मानना है हम कानून का सम्मान करते हैं लेकिन धर्म के मामले में हम किसी की बात नहीं मानेंगे। हमारे लिए धर्म का मतलब क्या है यह हम तय करेंगे। शाहबानो केस के फैसले से लेकर रामजन्मभूमि विवाद पर आए फैसले तक एक ही रूझान हैं। दोनों ही रंगत के फंडामेंटलिस्ट मानते हैं धर्म एक ऐसी चीज है जिसे कानून या कोई चीज स्पर्श नहीं कर सकता। वह परम पवित्र अपरिवर्तनीय है। शुद्ध है।
ये लोग धार्मिक जीवनशैलियों को अपनाने पर जोर दे रहे हैं। धर्मनिरपेक्षता दोनों को ही नापसंद हैं। धर्मनिरपेक्ष लोग काम बिगाड़ने शत्रु लगते हैं। फंडामेंटलिस्टों को कम्युनिस्ट, उपभोक्तावादी, व्यक्तिवादी इन तीनों से नफरत है। फंडामेंटलिस्टों का मानना है कम्युनिज्म और पूंजीवाद दोनों में ही करोड़ों लोग मारे गए हैं। वहां शांति, सुख और सुरक्षा संभव नहीं है। शांति, सुख और सुरक्षा तो सिर्फ धार्मिक फंडामेंटलिज्म में ही दे सकता है। उनका दावा है हिन्दू और मुस्लिम फंडामेंटलिज्म ही उपभोक्तावाद और समाजवाद का एकमात्र सही विकल्प है।
असल में धार्मिक फंडामेंटलिज्म विध्वंसक विकल्प है विकास का विकल्प नहीं है।

मोदी सरकार के दो बार चुने जाने का देश कुपरिणाम भुगत रहा है। अर्थव्यवस्था चौपट पड़ी है, गैंग ऐय्याशी कर रहा है, जनता कंगाल पड़ी है। भाजपा अरबपति दल है।
मोदी सरकार, आरएसएस, उसके सहयोगी संगठन और उनसे जुड़े साइबर बटुक अमेरिकी एजेण्डे पर चल रहे हैं, अमेरिकी एजेण्डा है धर्मनिरपेक्षता को नष्ट करो, धार्मिक फंडामेंटलिज्म को मजबूत करो। इस एजेण्डे को संघियों ने कई दशकों से सचेत रूप से अपनाया हुआ है, वे दिन-रात धर्मनिरपेक्षता को गरियाते रहते हैं, धर्मनिरपेक्ष लेखकों-बुद्धिजीवियों -नेताओं और दलों पर कीचड़ उछालते हैं। इन लोगों ने धर्मनिरपेक्षता को मीडिया उन्माद के जरिए छद्म धर्मनिरपेक्षता करार दे दिया है। वे संविधान वर्णित धर्मनिरपेक्षता को भी नहीं मानते, उसे भी वे हटाने की मुहिम चला रहे हैं। इस काम के लिए वे कारपोरेट फंडिंग के जरिए काम कर रहे हैं।
आरएसएस के फंडिंग के स्रोत क्या है?

आरएसएस अकेला ऐसा संगठन है जिसके फंडिंग के स्रोत का पता नहीं है। यह ऐसा संगठन है जो केन्द्र सरकार से लेकर अनेक राज्य सरकारों को नियंत्रित किए है लेकिन फंडिंग का स्रोत नहीं बताता। यही दशा अनेक फंडामेंटलिस्ट संगठनों की भी है वे भी अपनी फंडिंग को उजागर नहीं करते। आरएसएस यदि देशभक्त संगठन है तो अपने फंडिंग के सभी स्रोत उसे उजागर करने चाहिए, उसे बताना चाहिए कि उसके यहां कहां से और किन स्रोतों से पैसा आता है और उसके संगठन में उसका किस रूप में इस्तेमाल होता है। भारत में हर करदाता नागरिक सरकार को अपने आय-व्यय का हिसाब देता है लेकिन संघ नहीं देता। यदि किसी के पास आरएसएस के आय-व्यय की जानकारी है तो कृपया शेयर करें। मजेदार बात यह है कि कांग्रेस ने भी कभी आरएसएस से जानकारी उगलवाने की कोशिश नहीं की।
जगदीश्वर चतुर्वेदी
Utopia and ideology of Hindutva
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