उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 : मोदी-शाह से पिंड छुड़ाकर योगी का साथ देगा आरएसएस !

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hastakshep
24 Aug 2021
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 : मोदी-शाह से पिंड छुड़ाकर योगी का साथ देगा आरएसएस !

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 Uttar Pradesh Assembly Election 2022: RSS will support Yogi by getting rid of Modi-Shah!

अपनी स्थापना 1925 से ही आरएसएस हिन्दू हित का ढकोसला-राग गाता रहा है,  लेकिन इसे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जैसे हिन्दुत्व के संवाहक मनीषियों का व्यक्तित्व और कृतित्व कभी अच्छा नहीं लगा। इसके उलट इसे हिटलर और मुसोलिनीकी नस्लीय नीति अच्छी लगी।1930 में डॉ हेडगेवार अपने तमाम स्वयं सेवकों को कांग्रेस के सत्याग्रह से दूर रहने की सलाह दी।

आरएसने 1934 में वर्धा में आयोजित एक शिविर में महात्मा गांधी को आमंत्रित किया था। गांधी इस बात से खासे प्रभावित हुए कि स्वयंसेवकों के सामूहिक चेतना,  रहन-सहन,  खान-पान और जीवनशैली में भारतीय सामाजिक-जातिगत व्यवस्था और छूआछूतका दुष्प्रभाव नहीं है। गांधीने सार्वजनिक तौर पर आरएसएस के इस सांगठनिक गुण की प्रशंसा की,  जिसे आरएसएस समय -समय पर प्रमाण पत्र के रूप में प्रस्तुत भी करता रहा है,  लेकिन आंतरिक संगठन में मराठा ब्राह्मणवाद के वर्चस्व को तोड़ नहीं पाया। यही नहीं,  छूआछूत और मानवीय असमानता को बढ़ावा देने वाले 'मनुस्मृति' के वैचारिक वर्चस्व से उबर नहीं पाया।

सावरकर थे भारत विभाजन के शिल्पकार

आरएसएस विनायक दामोदर सावरकर की पुस्तक 'हिन्दुत्व'को खासा महत्व देता है, लेकिन किसी भी स्वयंसेवक को सावरकर के नेतृत्ववाले राजनैतिक संगठन हिन्दू महासभा में जाने हेतु अभिप्रेरित नहीं किया।

सच यह भी है कि मोदी आज भले ही 14अगस्त को विभाजन विभिषिका स्मृति दिवस मनाकर विभाजन का पाप मुस्लिम लीग और मो.अली जिन्ना के माथे पढ़ें,  लेकिन धर्म के आधार पर दो राष्ट्रों का सिद्धांत (Theory of two nations on the basis of religion) विनायक दामोदर सावरकर ने 1923 में ही अपनी पुस्तक 'हिन्दुत्व' में प्रतिपादित किया था।

1925 में अपने स्थापनाकाल से आरएसएस सावरकर के इस सिद्धांत को प्रचारित-प्रसारित करता रहा। मो.अली जिन्ना की सत्ता लिप्सा ने इस सिद्धांत में आग में घी का काम किया और मुस्लिम लीग के मंच से उन्होंने एक बार मुस्लिमों के अलग राष्ट्र पाकिस्तान की मांग की मांग की और फिर इस मांग के समर्थन में जी-जान से जुटे रहे और अंततोगत्वा हमें देश-विभाजन की त्रासदी झेलनी पड़ी।

आजादी के लिए जापान की मदद से नेताजी सुभाषचंद्र बोस का युद्धपरक संघर्ष हो या महात्मा गांधी के नेतृत्व में 1942 का 'भारत छोड़ो आंदोलन'- आरएसएसने अंग्रेजों का साथ दिया।

तिरंगे से आरएसएस की नफरत

जब ब्रिटिश उपनिवेशवाद की समाप्ति अवश्यंभावी दीखने लगी,  तो अपने भगवा ध्वज को राष्ट्रीय ध्वज और मनुस्मृति को संविधान सदृश ग्रंथ की मान्यता दिलवाने का भरपूर प्रयास किया। आरएसएस ने अपने अंग्रेज़ी मुखपत्र (Organizer) के 14अगस्त, 1947 वाले अंक में राष्ट्रीय ध्वज के तौर पर तिरंगे के चयन की खुलकर भर्त्सना करते हुए लिखा- "वे लोग,  जो किस्मतके दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें,  लेकिन हिंदुओं द्वारा न इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा,  न अपनाया जा सकेगा। तीन का आंकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झण्डा जिसमें तीन रंग हों,  बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुक़सानदेय होगा।"

सरदार वल्लभ भाई पटेलकी स्पष्ट धारणा और मान्यता थी कि भारत-पाक विभाजन के त्रासद दौर में मुसलमानों के प्रति घृणा और विद्वेष फैलाने में आरएसएस ने नकारात्मक और विध्वंसक भूमिका निभाई,  और गांधी की हत्या में इस वैचारिक अभियान की भी अहम भूमिका रही। इसलिए,  गृहमंत्री की हैसियतसे पटेल ने आरएसएस को बैन किया।

आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक गोलवलकर पाबंदी हटाए जाने के लिए दौड़-धूप करते रहे। पटेल ने खरी-खरी कह दी-जो संगठन राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराता,  उसे बैन-मुक्त नहीं किया जाएगा। आखिरकार,  गुरू गोलवलकर ने लिखित माफी मांगते हुए राष्ट्रीय ध्वज के प्रति सम्मान व्यक्त किया,  तब जाकर आरएसएस से पाबंदी हटी थी। लेकिन,  आज भी स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर भी आरएसएस मुख्यालय,  नागपुर में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा नहीं फहराया जाता।

जम्मू-कश्मीर को विशिष्ट राज्यका दर्जा देने वाली संविधान की धारा370 को समाप्त करने की आरएसएस और भाजपा की घोषित नीति रही है,  लेकिन आरएसएस पृष्ठभूमि वाले श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संविधान सभा के सदस्य की हैसियत से कभी आपत्ति प्रगट नहीं की थी। वस्तुत:,  आरएसएस और भाजपा संविधान की धारा 370 को जम्मू-कश्मीर से बाहर शेष भारत में हिन्दू मतों के ध्रुवीकरण के लिए इस्तेमाल करता रहा है।

जून, 1975 में आपातकाल की घोषणा के बाद अपने सांगठनिक चरित्र के अनुरूप आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहेब देवरस ने इंदिरा सरकार के सामने माफीनामा देते हुए सरकार एवं प्रशासन को हरसंभव सहयोग देने का वादा किया। इंदिरा जी और उनकी सरकार के द्वारा अपेक्षित गंभीरता और दया नहीं दिखाए जाने पर आरएसएस ने आन्दोलनात्मक रूख अपनाया। आज,  किसी आरएसएस के स्वयंसेवक से बात कीजिए तो वह ऐसे व्यवहार करेगा-गोया आपातकाल का विरोध करने वाला यह एकमात्र संगठन था। ये दावा तो ऐसा करेंगे,  गोया इनकी भूमिका स्वयं लोकनायक जयप्रकाश नारायण से भी बड़ी थी।

1983-84 तक रामजन्मभूमि मुक्ति और श्रीराम मंदिर निर्माण आरएसएस और भाजपा के एजेंडे में कहीं था नहीं। लेकिन,  इन मुद्दों पर हिन्दू मतों के ध्रुवीकरण की संभावना को देखते हुए आरएसएस और भाजपा ने इसे लपक लिया।

आरएसएस और भाजपा ने भारतीय संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति पर्याप्त असम्मान दिखाया है। 1992 में कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। आरएसएस,  विश्व हिन्दू परिषद्,  बजरंग दल जैसे प्रतिक्रियावादी संगठन 6 दिसम्बर, 1992 को बाबरी मस्जिद ढांचा को ढाहने पर उतारू दिखते थे।

कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायरकर आश्वासन दिया कि विवादित ढांचा को सुरक्षित रखने की पर्याप्त प्रशासनिक व्यवस्था कर रखी है। लेकिन,  इस प्रशासनिक आश्वासन की पोल उस समय खुल गई,  जब 6दिसम्बर, 1992 को इन प्रतिक्रियावादी संगठनों ने विवादित ढांचा ढाहकर अपना शौर्य दिखाया।

तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव की सरकार ने कल्याण सिंह की सरकार समेत कई प्रदेशों की भाजपा सरकारों को बर्खास्त किया,  तो अपनी प्रतिक्रिया में कल्याण सिंह ने कहा- रामलला,  श्रीराम मंदिर,  रामजन्मभूमि मुक्तिके लिए एक क्या कई सरकारों को वह कुर्बानकर सकते हैं। संविधान,  न्यायापालिका और लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति कल्याण सिंह के इस असम्मान और प्रशासनिक धूर्तता को अटलजीने बड़ी गंभीरता से लिया था और 1998 में अटलजी के प्रधानमंत्री बननेके बाद अटलजी और कल्याण सिंहके रिश्ते कभी सहज नहीं रहे और आखिरकार कल्याण सिंह को भाजपा से बाहर जाना पड़ा था। यह अलग बात है कि भाजपा भी वर्षों तक उत्तर प्रदेश की सत्तासे बाहर रही।

2010-12 का दौर जनांदोलन, बेहतरीन मीडिया प्रबंधन और राजनैतिक प्रबंध कौशल का आरंभिक दौर था। रालेगांव सिद्धि(महाराष्ट्र)से निकलकर अण्णा हजारे की कीर्ति ध्वजा पूरे राष्ट्रमें फहरा रही थी। सार्वजनिक,  राजनैतिक भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए केंद्रीय स्तर पर लोकपाल के लिए जनांदोलन पूरे उफान पर था। काला धन वापस लाने की मांग देश का हर नागरिक कर रहा था। लेकिन,  इस जनाक्रोश को परिणामोन्मुख राजनीति के लिए कोई राष्ट्रीय स्तर का राजनैतिक संगठन वजूद में नहीं था। ऐसेमें अपने चरित्र के अनुरूप अपने पक्ष में भुनाने आरएसएस आगे चला आया। एक तरफ आडवाणीजी ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जन्मस्थली सिताबदियारासे रथयात्रा शुरू की,  तो गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंहको सवालों के घेरे में खड़ा किया।

आडवाणीजी एक खुशफहमी में जी रहे होंगे कि वरिष्ठता के ख्यालसे भाजपा में उनका कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था। सो,  2014के आमचुनाव में भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद का स्वाभाविक उम्मीदवार वह स्वयं को मान रहे थे। लेकिन,  मोदीजी ने आरएसएसके सामने खुद को हिंदू हृदयसम्राट के रूप में प्रस्तुत किया तो पूरे देश के सामने खुद को विकासपुरूष घोषित किया। गुजरात के लोगों में वैसे भी उद्यमशीलता कूट-कूट कर भरी है,  प्रति व्यक्ति आय में वह वैसे भी अन्य प्रदेशों से आगे है,  लेकिन मोदीने अपने मार्केटिंग स्किलसे यह स्थापित किया कि गुजरात के विकासकी पटकथा सिर्फ उन्होंने लिखी है,  वह एक बेहतरीन 'सपनों के सौदागर' हैं।

भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने भी मोदीजी की अघोषित तरफदारी की। जून, 2013 में ही गोवा में आयोजित पार्टी के राष्ट्रीय कार्यकारिणीकी बैठक में ही नरेंद्र मोदीको 2014 के लिए प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवार घोषित कर दिया जाता,  लेकिन आडवाणीके रूठ जाने के कारण ऐसा संभव नहीं हो पाया। भाजपाकी संस्कृति और परंपरा के विरुद्ध ऐसा लग रहा था कि आडवाणी विद्रोहका झंडा बुलंद करेंगे। लेकिन,  सितंबर,  2013 में आरएसएस के शीर्ष से उन्हें बुलावा आया,  नागपुर में उन्हें गुरु का आदेश मिला और आडवाणीजी ने विद्रोह का झंडा समेटकर अपनी संदूक में रख दिया।

15 लोकसभा चुनावों में अपने दम पर सत्ता पाने में असफल रहने के बाद 16वीं लोकसभा चुनावमें भाजपा ने अपने दम पर स्पष्ट बहुमत-282संसदीय सीट-पाया।

आरएसएस पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर खुद को किंगमेकर की भूमिका में पा रहा था। उसकी निगाह में अब सिर्फ इस चुनावी कामयाबी को कान्सोलिडेट करना था।

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव,  2017 हुए थे। भाजपा ने किसी को मुख्यमंत्री के रूपमें पेश नहीं किया था। भाजपा ने 403 सीटों में 312 सीटें जीतकर तीन चौथाई सीटें हासिल की। तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितिमें लग रहा था-मोदी जिसे नामित कर देंगे,  वही मुख्यमंत्री होगा। पार्टीके तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य खुद को पार्टीमें पिछड़ा वर्ग का चेहरा मान रहे थे और खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार समझ रहे थे। मोदी की पहली पसंद मनोज कुमार सिन्हा थे। लेकिन,  ऐन वक्त पर आरएसएसने अपने वीटो का इस्तेमाल किया और गोरखपुरके महंत योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बन गए।

एक मुख्यमंत्री के रूप में योगी आदित्यनाथ एक ऐरोगैंट मुख्यमंत्री साबित हुए। अपने मंत्रिमंडल में वह प्रथम और अगुआ मंत्री की तरह नहीं महंत की तरह व्यवहार करते,  किसी विधायक की उन्हें परवाह नहीं थी।

योगी की मोदी से दूरियां क्यों बढ़ीं?

5 अगस्त,  2020 को जब मोदी ने अयोध्या में श्रीराम मंदिर का शिलान्यास किया,  तो योगीजी थोड़ा आहत हुए थे,  क्योंकि रामजन्मभूमि मुक्ति अभियान और श्रीराममंदिर निर्माण के आंदोलन में 1949 से ही गोरखपुरके महंतों- दिग्विजय नाथ और अवैद्यनाथ-का अप्रतिम योगदान रहा है और योगीजी इस विरासत के वारिस हैं और जबकि मोदी की वैसी कोई सक्रियता कभी रही नहीं। इस एक घटना ने योगी को मोदी से दूर कर दिया।

योगी की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षाएं भी अब कुलांचे भर रही है। चौधरी चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बनने के पहले उत्तर प्रदेशके मुख्यमंत्री रह चुके थे, जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, चन्द्रशेखर, अटलजी सीधे प्रधानमंत्री भले बने, लेकिन उन सबकी राजनैतिक जड़ें उत्तर प्रदेश में रही हैं, यहां तक कि मोदी ने भी प्रधानमंत्री बनने के लिए बनारस को अपना संसदीय क्षेत्र बनाया।

उत्तर प्रदेश का कोई भाजपा मुख्यमंत्री पांच वर्ष  का अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया, लेकिन योगी पूरा करेंगे ही, इस बात की पर्याप्त संभावना है। सो, उन्होंने मोदीजी वाले तमाम हथकंडे अपनाए-सोशल मीडिया पर 'मोदी के बाद योगी' का नारा बुलंद हुआ, मीडिया मैनेजमेंट का खेल चला, टाइम सहित अनेक अन्तर्राष्ट्रीय पत्र- पत्रिकाओंमें  योगी के पक्ष में विज्ञापन छपे, प्रायोजित खबरें छपी।

बताया जाता है कि इंडिया टुडे के अप्रकाशित सर्वेक्षण, जिसमें मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ 42%की गिरावट दर्ज करते हुए 66%से घटकर 24%बताई गई है, और प्रधानमंत्री पद के लिए लोकप्रियता के दूसरे पायदान पर मोदी के बाद योगी को बताया गया, वह योगी द्वारा प्रायोजित था। इन सारी बातों से मोदी में असुरक्षा-बोध पनपा कि भाजपा के भीतर ही उनका प्रतिद्वंद्वी खड़ा हो रहा है, जिसका पर कतरा जाना आवश्यक है।  

मोदी की त्रासदी क्या है ?

मोदी की त्रासदी यह भी रही कि प.बंगाल विधानसभा चुनाव, 2021 में भाजपा को अपेक्षित सीटें नहीं मिली। दूसरी तरफ, राष्ट्रीय स्तर पर कोरोना की दूसरी लहर के कुप्रबंध के लिए मोदी को जिम्मेदार और जिम्मेवार माना गया। मोदी-शाह की जोड़ी अब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर योगी को देखना नहीं चाहती। लेकिन, खतरा यह भी है कि अगर योगी को बदला गया, तो वह चुप नहीं बैठेंगे और भाजपा के अधिकृत प्रत्याशियों को हरवानेमें कुछ उठा नहीं रखेंगे। नतीजा,  उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव, 2022 में तो सत्ता नहीं ही मिलेगी, 2024 के लोकसभा चुनाव में हार की पृष्ठभूमि तैयार हो जाएगी।  

आरएसएस क्यों बेफिक्र है ?

आरएसएस की हालत प्रथमदृष्टया सांप-छछूंदर वाली भले दीख रही हो, वह ऐसी समस्याओं से दो-चार होता रहा है और हरबार उसने सत्ता प्रतिष्ठान और अपने संगठनात्मक भविष्य को तरजीह दी है। बलराज मधोक,  केएन गोविंदाचार्य, प्रवीण तोगड़िया, लालकृष्ण आडवाणी,  मुरली मनोहर जोशी सरीखे महान हस्तियों की एक लंबी सूची है, जिनको आरएसएस ने उनकी जिंदगी में किनारे लगाया है। आरएसएस के लिए मोदीकी प्रासंगिकता समाप्त हो चली है, मोदी के बिना अमित शाह का कोई वजूद है नहीं। आरएसएस मोदी-शाह को हरसंभव मनाएगा कि योगी को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव, 2022के लिए मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किया जाए। योगी को मनाएगा कि वह 2024में  नहीं, 2029 में प्रधानमंत्री बनने का सपना देखें। लेकिन, अगर विकल्पहीनता की स्थिति हो गई तो हिन्दुत्व के लिए गोरखनाथ पीठ के सैकड़ों साल के योगदान को देखते हुए मोदी-शाह से पिंड छुड़ाकर योगी आदित्यनाथ की तरफदारी करेगा।

पंकज श्रीवास्तव

लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

Pankaj ShriVastava पंकज श्रीवास्तव सेवानिवृत्त ग्रामीण बैंक प्रबंधक हैं। उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत आज से 47वर्ष पहले जेपी आन्दोलन के छात्र-युवा कार्यकर्ता के रूप में की थी। 1977 में आन्दोलन के भटक जाने या बिखर जाने के बाद सामाजिक कार्यकर्ता के अपने सपनों को पूरा करने के लिए उन्होंने कैरियर के रूप में पत्रकारिता का चुनाव किया।

पंकज श्रीवास्तव सेवानिवृत्त ग्रामीण बैंक प्रबंधक हैं। उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत आज से 47वर्ष पहले जेपी आन्दोलन के छात्र-युवा कार्यकर्ता के रूप में की थी। 1977 में आन्दोलन के भटक जाने या बिखर जाने के बाद सामाजिक कार्यकर्ता के अपने सपनों को पूरा करने के लिए उन्होंने कैरियर के रूप में पत्रकारिता का चुनाव किया।

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