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पर्यावरण हलचल : समुदाय के बिना नहीं बुझाई जा सकती हिमालय की यह आग

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hastakshep
10 Apr 2021
जानिए उत्तराखंड के जंगलों में आखिर क्यों लग रही आग?

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एमआई 17 हेलीकॉप्टरों की मदद से उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग बुझाई जा रही है।

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Uttarakhand News: uttarakhand forest fire latest news and update: उत्‍तराखंड जंगल की आग … Know about उत्तराखंड के जंगलों में आग in Hindi

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जंगलों में आग मुख्यतः जमीन पर गिरी सूखी घास-पत्तियों से फ़ैलती है। उत्तराखंड के पहाड़ों में चीड़ के पेड़ों की अधिकता यहां के पहाड़ों में आग फैलने का मुख्य कारण है। चीड़ की पत्तियां जिन्हें पिरूल भी कहा जाता है अपनी अधिक ज्वलनशीलता की वजह से हिमालय की बहुमूल्य वन संपदा खत्म कर रही हैं।

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यूकेफॉरेस्ट वेबसाइट के अनुसार वर्ष 2021 में अब तक जंगल में आग लगने की 1635 घटनाएं सामने आ चुकी हैं। जिस वजह से 4 लोगों की मौत के साथ ही 17 जानवरों की मौत भी हुई है। जंगल में आग लगने की वजह से 6158047.5 रुपए की वन संपदा जल कर ख़ाक हो गई।

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https://forest.uk.gov.in/contents/view/6/53/75-forest-fire-info

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इसी वेबसाइट पर आप जंगल में आग से प्रभावित स्थानों की लाइव जानकारी (Live information of locations affected by forest fires) भी ले सकते हैं।

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'ब्लैक कार्बन' बना रहा है जंगल की आग से निकला स्मॉग | Smog from wildfire is making 'black carbon'

3 मई 2016 में टाइम्स ऑफ इंडिया में विनीत उपाध्याय की छपी एक रिपोर्ट के अनुसार जंगल की आग से निकला स्मॉग और राख 'ब्लैक कार्बन' बना रहा है जो ग्लेशियरों को कवर कर रहा है, जिससे उन्हें पिघलने का खतरा है। गंगोत्री, मिलम, सुंदरडुंगा, नयाला और चेपा जैसे अपेक्षाकृत कम ऊंचाई पर स्थित ग्लेशियर सबसे अधिक खतरे में हैं और यही ग्लेशियर बहुत सी नदियों के स्रोत भी हैं।

इस आग की वज़ह से पहले ही उत्तर भारत के तापमान में 0.2 डिग्री सेल्सियस की छलांग से मानसून पर हानिकारक प्रभाव पड़ सकता है

हिमालय में आग फ़ैलाने के लिए कौन जिम्मेदार | Who is responsible for spreading fire in Himalayas

चीड़ के पेड़ हिमालय में आग फ़ैलाने के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी तो हैं पर उन्हें काट देना ही आग रोकने का समाधान नहीं है। चीड़ के बहुत से फायदे भी हैं उसे कई रोगों के इलाज में उपयोगी पाया गया है जैसे इसकी लकड़ियां, छाल आदि मुंह और कान के रोगों को ठीक करने के अलावा अन्य कई समस्याओं में भी उपयोगी हैं।

चीड़ की पत्तियों से कोयला बना और बिजली उत्पादन कर आजीविका भी चलाई जा सकती है।

ऊर्जा एवं संसाधन संस्थान ( टेरी ) के जैवविविधता विशेषज्ञ डॉ. योगेश गोखले चीड़ के जंगलों में हर वर्ष लगने वाली आग की समस्या पर कहते हैं कि पिरूल के बढ़ने से आग लगने का ख़तरा भी बढ़ जाता है। नमी की वज़ह से आग को फैलने से रोका जा सकता है। जलती बीड़ी जंगलों में फेंक देना भी जंगल की आग के लिए उत्तरदायी है।

Damage to environment due to pine forest

चीड़ के जंगल से पर्यावरण को पहुंच रहे नुकसान पर डॉ गोखले कहते हैं अक्सर यह माना जाता है कि जहां चीड़ होगा वहां पानी सूख जाता है और देवदार के पेड़ों वाली जगह पानी के स्रोत मिलते हैं। चीड़ की वजह से जंगल में आग लगने से कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ जाती है।

आग लगने की वजह से पर्यावरण को जो नुकसान पहुंच रहा है उसे बचाने के लिए डॉ गोखले पिरूल के अधिक से अधिक इस्तेमाल को बढ़ावा देना चाहते हैं क्योंकि पिरूल हटने से बाकि वनस्पतियों का विकास होगा और मिश्रित जंगल बनने की वज़ह से भविष्य में आग लगने की घटनाओं में भी कमी आएगी। पालतू जानवरों के लिए चारा उपलब्ध होगा तो ग्रामीण इसके लिए पिरूल के जंगलों में आग भी नहीं लगाएंगे।

आईएफएस एडिशनल प्रिंसिपल, चीफ़ कनसर्वेटर ऑफ फॉरेस्ट उत्तराखंड डॉ. एस डी सिंह से जब यह पूछा गया कि चीड़ के जंगलों में आग न लगे सरकार इसके लिए क्या कदम उठा रही है तो उन्होंने बताया कि इसके लिए हर वर्ष कार्य योजना बनाई जाती है। फ़रवरी और मार्च में ही तय कर लिया जाता है कि कहां पर फ़ायर क्रू स्टेशन बनाए जाने हैं और साथ में ही संचार साधन भी दुरस्त कर लिए जाते हैं।

जंगल में फ़ायर लाइन बनाते रहते हैं और झाड़ी नहीं होने देते। किसानों को भी साथ लेकर पत्तियां इकट्ठा की जाती हैं और खेतों के किनारे सफ़ाई की जाती है ताकि आग खेतों तक न फैले।

पत्रिका की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग की घटनाओं को नैनीताल हाईकोर्ट ने गंभीरता से लिया है। कोर्ट ने इसके स्थाई समाधान के लिए जंगलों में पहले से चाल व खाल बनाने के निर्देश दिए हैं।

उत्तराखंड में पारंपरिक रूप से पानी रोकने के लिए बनाए जाने वाले तालाबों को चाल व खाल कहते हैं, इनकी वज़ह से जमीन में नमी बनी रहती है और आग कम फ़ैलती है।

भारत में औपनिवेशिक काल से पहले लोग वनों का उपभोग भी करते थे और रक्षा भी। अंग्रेज़ों ने आते ही वनों की कीमत को समझा, जनता के वन पर अधिकारों में कटौती की और वनों का दोहन शुरू किया।

जनता के अधिकारों में कटौती की व्यापक प्रतिक्रिया हुई और समस्त कुमाऊँ में व्यापक स्तर पर आन्दोलन शुरू हो गए। शासन ने दमन नीति अपनाते हुए प्रारम्भ में कड़े कानून लागू किए, परन्तु लोगों ने इन कानूनों की अवहेलना करते हुए यहाँ के जंगलों को आग के हवाले करना आरम्भ किया। फलस्वरूप शासन ने समझौता करते हुए एक समिति का गठन किया।

1921 में गठित कुमाऊँ फॉरेस्ट ग्रीवेंस कमेटी का अध्यक्ष तत्कालीन आयुक्त पी.विंढम को चुना गया तथा इसमें तीन अन्य सदस्यों को शामिल किया गया। समिति ने एक वर्ष तक पर्वतीय क्षेत्र का व्यापक भ्रमण किया। समिति द्वारा यह सुझाया गया कि ग्रामीणों की निजी नाप भूमि से लगी हुई समस्त सरकारी भूमि को वन विभाग के नियंत्रण से हटा लिया जाए।

स्वतन्त्र भारत में वनों को लेकर बहुत से नए-नए नियम कानून बनाए गए।

वर्तमान समय में उत्तराखंड की वन पंचायत, जो पंचायती वनों का संरक्षण और संवर्धन खुद करती है, उन्हें अधिक शक्ति दिए जाने की आवश्यकता है।

डाउन टू अर्थ में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व में आदिवासी बहुल क्षेत्र सबसे कम कार्बन उत्सर्जित करते हैं। इसका सीधा मतलब यह है कि समुदाय के पास जंगल का नियंत्रण रहने से वहां आग भी कम लगती है क्योंकि वह ही जंगल की रक्षा भी करते हैं।

जंगल में लग रही इस आग के समाधान पर वरिष्ठ पत्रकार और पर्यावरणविद राजीव नयन बहुगुणा कहते हैं कि उत्तराखंड के गांवों की चार किलोमीटर परिधि में जंगलों से सरकारी कब्ज़ा हटा कर उन्हें ग्राम समुदाय के सुपुर्द किया जाना चाहिए।

मई-जून की गर्मियों में उत्तराखंड के जंगलों में आग सबसे ज्यादा फैलेगी और हेलीकॉप्टर से पानी गिरा आग बुझाना इस समस्या का स्थाई समाधान नही है। न ही चीड़ के पेड़ों को काट-काट कर हम अपने कृत्यों से लगी इस आग को रोक सकते हैं। समुदाय ने मिल कर ही मानव जाति का निर्माण किया है और वह ही इसे और अपने पर्यावरण को बचा भी सकता है।

नुपुर कुलश्रेष्ठ, हिमांशु जोशी।

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