सोशल मीडिया के ऐसे राजनीतिक टिप्पणीकार जिन्होंने आरएसएस और उसके तंत्र का बाक़ायदा अध्ययन किया है, अक्सर देखा जाता है कि वे संघ के तंत्र और उसके कट्टर स्वयंसेवकों की तादाद से इतने विस्मित रहते हैं कि उन्हें उनमें एक प्रकार की ईश्वरीय शक्ति नज़र आने लगती हैं।
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वे हमेशा यह भूल जाते हैं कि राजनीति का अर्थ ही है यथास्थिति को चुनौती। ‘असंभव’ को संभव बनाने की कोशिश। राजनीतिक परिवर्तन की चपेट में बड़ी-बड़ी राजसत्ताओं के परखच्चे उड़ ज़ाया करते हैं, आरएसएस या कम्युनिस्ट पार्टी या किसी भी पार्टी का अपना तंत्र तो बहुत मामूली चीज हुआ करता है।
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ख़ास तौर पर चुनाव के मौक़ों पर जब ये आरएसएस और भाजपा के ‘लाखों निष्ठावान कार्यकर्ताओं’ की चमत्कारी ताक़त का कृष्ण के विराट रूप की तरह वर्णन करने लगते हैं तो वह वर्णन राजनीतिक चिंतन के पैमाने पर न सिर्फ़ फूहड़ और अश्लील जान पड़ता है, बल्कि विश्लेषक की समग्र बुद्धि पर तरस भी आने लगता है।
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अपनी कथित जानकारी से उत्पन्न अज्ञान के कारण ही कई जन-पक्षधर और सांप्रदायिकता- विरोधी विश्लेषक भी चुनाव जैसे महत्वपूर्ण अवसरों पर अनायास ही संघ के विराट रूप की किसी न किसी प्रकार से आरती उतारते हुए पाए जाते हैं।
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यह एक ही बात का प्रमाण है कि उन्होंने अपने अध्ययनों से विषयों और परिस्थितियों के सिर्फ़ स्थिर, विश्वविद्यालयी क़िस्म का ज्ञान अर्जित किया है, राजनीति में मनुष्यों की भूमिका, परिस्थितियों की परिवर्तनशीलता, और इनसे जुड़ी वस्तु की आंतरिक गति के नियमों को उन्होंने नहीं जाना है। चीजों को उनके गतिशील रूप में न देख पाना इनके ज्ञान की ही सबसे बड़ी विडंबना है।