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Wary of development
विकास के नाम पर वोट करने के पहले सोचें!
इन पंक्तियों के लिखे जाने के दौरान बिहार विधानसभा चुनाव (Bihar Assembly Elections) के तीसरे और अंतिम चरण का चुनाव प्रचार खत्म हो चुका है. चुनाव प्रचार के अंतिम दिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक खास अपील कर राजनीतिक विश्लेषकों को चौंकाने के साथ ही चुनाव परिणाम को लेकर छाई धुंध भी काफी हद तक हटा दिया है. उन्होंने पूर्णिया के धमदाहा में चुनाव प्रचार के दौरान मंच से जनता से भावुक अपील करते हुए कह दिया कि यह उनका आखिरी चुनाव है..अंत भला तो सब भला!
उनकी अपील पर बिहार के भविष्य तेजस्वी यादव और चिराग पासवान ने जमकर निशाना साधा है.
राजद के तेजस्वी यादव ने कहा है, ’हम यह काफी समय से कह रहे हैं कि नीतीश कुमार जी थक गए हैं और वह बिहार को संभालने में सक्षम नही हैं. अब चुनाव प्रचार के आखिरी दिन उन्होंने एलान किया है कि वह राजनीति से सन्यास लेने जा रहे हैं, शायद उन्हें जमीनी हकीकत का अंदाज़ा हो गया है. आदरणीय नीतीश जी बिहारवासियों की आकांक्षाओं, अपेक्षाओं के साथ- साथ जमीनी हकीकत भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे. हम शुरू से ही कहते आ रहे थे कि वो पूर्णतः थक चुके हैं और आखिरकार उन्होंने अंतिम चरण से पहले हर मानकर राजनीति से सन्यास लेने की घोषणा कर हमारी बात पर मोहर लगा दी.‘
वहीं लोजपा के चिराग पासवान ने उनकी घोषणा को हार का प्रतीक बताते हुए कहा है कि नेता अगर रणभूमि छोड़कर भाग जाय तो बाकी लोग क्या करेंगे ? अब जदयू का कोई अस्तित्व नही बचा है. अगर नीतीश कुमार जी यह सोच रहे हैं कि वो ये घोषणा कर जांच की आंच से बच जायेंगे तो ये मैं नही होने दूंगा. साहब ने कहा है कि यह उनका आखिरी चुनाव है. इस बार पिछले 5 साल का हिसाब दिया नहीं और अभी से बता दिया कि अगली बार हिसाब देने नहीं आएंगे. अपने वोट का अधिकार उनको न दें जो कल आपका आशीर्वाद मांगने नहीं आएंगे. अगले चुनाव में न साहब रहेंगे न जदयू, फिर हिसाब किससे लेंगे हमलोग? लोजपा अध्यक्ष ने आगे कहा कि जदयू प्रत्याशी को दिया गया एक भी वोट कल आपके बच्चे को पलायन पर मजबूर करेगा. बिहार को और बर्बाद नहीं होने देना है..’
अंतिम चरण के चुनाव शुरू होने के पहले इसे आखिरी चुनाव बताये जाने पर सोशल मीडिया पर भी टिप्पणियों की बाढ़ आई हुई है. उनकी इस घोषणा को अधिकांश लोग ही उनकी विदाई का संकेतक बताते हुए आम से लेकर खास लोग यही कह रहे हैं कि नीतीश हार रहे हैं इसलिए लोगों का सहानुभूति पाने के लिए यह सब प्रपंच रच रहे हैं.
Anti-social justice forces strengthened due to Nitish
भारी विस्मय की बात है कि उनकी घोषणा से बहुजन बुद्धिजीवियों में कोई दुख की लहर नहीं दौड़ीं है. अधिकांश ने ही राहत की सांस लिया है. उनके अनुसार नीतीश के कारण सामाजिक न्याय विरोधी ताकतें और मजबूत हुई और केंद्र से लेकर बिहार तक उनके कारण सामाजिक न्याय की राजनीति खासतौर से कमजोर हुई और भूरि 2 दलित पिछड़े समाज के नेता निर्लज्जता के साथ भाजपा से जुड़े.
बहरहाल सोशल मीडिया पर एक ओर जहां दलित, पिछड़े समाज के लोग उनकी घोषणा में विदाई का लक्षण देखते हुए जश्न के मूड में दिख रहे हैं, वहीं सवर्ण उनके सुशासन और उनके जमाने हुए विकास को याद दिलाते हुए, उन्हें जिताने की कवायद करते नजर आए. उनका कहना है कि नीतीश ने जंगल राज से मुक्ति दिलाते हुए बिहार के विकास के लिए बढ़िया काम किया है ,लिहाजा उन्हें एक और मौका मिलना चाहिए. शायद सवर्णों में उपजी इस भावना का उन्हें इल्म था, इसलिए चुनावी राजनीति से सदा के लिए दूर होने की घोषणा करते समय वह यह याद दिलाना नहीं भूले –‘ पूर्ववर्ती सरकारों के समय न तो पढ़ाई की व्यवस्था थी, न आने- जाने की सुविधा थी और न ही इलाज का इंतजाम. राजद के 15 वर्षों में शासन में बिहार में जंगलराज था. राज्य में विकास दर 12 प्रतिशत तक बढ़ी है. प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई है. मगर कुछ लोगों को विकास से कोई मतलब नहीं. ऐसे लोग कामकाज में बाधा डालकर समर्थन हासिल करना चाहते हैं.’
जंगलराज और विकास यही वह चिरपरिचित मुद्दा रहा, जिसके जोर से नीतीश इतने लंबे समय तक राज किये. लिहाजा अपने अन्तिम चुनाव प्रचार में भी वह बिहार के मतदाताओं को ‘जंगलराज और विकास’ की याद दिलाना नही भूले. सिर्फ नीतीश ही नहीं। इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव प्रचार के अंतिम संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी भी अतीत की भांति एक बार फिर विकास और जंगलराज की याद दिलाते हुए कहा गए, ’बिहार का विकास राजग ही कर सकता है. कानून का राज राजग काल में ही हो सकता है. अब तक का विकास भी राजग काल में ही हुआ और आगे भी राजग ही विकास को गति दे सकता है. लिहाजा जाति के बजाय विकास पर ही वोट पड़ना चाहिए!’
तो 15 साल से बिहार में राज कर रहे नीतीश कुमार ने जाते–जाते एक बार फिर बिहार के मतदाताओं को विकास पे प्रलुब्ध करने का प्रयास किया है. लेकिन अब जबकि विकास पुरुष नीतीश की विदाई का मंच सज चुका है, बिहार के मतदाताओं को चुनाव के अंतिम चरण में अपना कर्तव्य निवर्हन के पूर्व विकास का सिंहावलोकन कर लेना चाहिए.
काबिलेगौर है कि विकास मंडल उत्तरकाल, विशेषकर नई सदी का एक नया फिनॉमिना है. मंडल उत्तर-काल में सामाजिक न्याय की राजनीति के उत्तरोतर प्रभावी होने के साथ, ज्यों-ज्यों शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनितिक और धार्मिक) पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा जमाया विशेषाधिकारयुक्त वर्ग राजनीतिक रूप से लाचार होने लगा, उसके बुद्धिजीवी वर्ग ने इससे उबरने के लिए तरह-तरह के उपक्रम चलाया।
इसके तहत उसने सात क्लास पास प्रगतिविरोधी एक निरीह ट्रक ड्राइवर को गाँधी और जेपी; सामाजिक बदलाव की लड़ाई में पलीता लगानेवाले एनजीओ वालों को नए ज़माने का हीरो तथा सामाजिक विविधतारहित महिला आरक्षण को एक बड़ा मुद्दा बनाया. लेकिन सबसे बड़ा उपक्रम उन्होंने ‘विकास’ को चुनावी मुद्दा बनाकर चलाया. उसके इस प्रयास ने जहां एक ओर नरेंद्र मोदी, चंद्रबाबू नायडू, नवीन पट्टनायक, शिवराज सिंह चौहान, नीतीश कुमार इत्यादि को भूमंडलीकरण के दौर के ‘विकास–पुरुषों’ की छवि प्रदान किया, वहीँ दूसरी और लालू-मुलायम, माया-पासवान जैसे सामाजिक न्यायवादियों को विकास-विरोधी खलनायक बना दिया. इस बीच ’विकास के गुजरात मॉडल’ शोर ने नरेंद्र मोदी को एक ऐसा सुपर हीरो बना दिया है जिससे चमत्कृत होकर लोग उन्हें बेहद ताकतवर प्रधानमंत्री बना दिए. जहां तक नीतीश का सवाल है, उन्हें भी सवर्णवादी मीडिया द्वारा विकास का शोर मचाने का लाभ मिला और वह विकास के नाम पर चुनाव पर जीतने में सफल हुए.
बहरहाल विकास से लोगों को चमत्कृत करने वाली हमारी मीडिया और बुद्धिजीवी यह नहीं बतलाते कि कोई कोशिश करे या न करे समाज में परिवर्तन की धारा बहती ही रहती है. किन्तु परिवर्तन जब उच्चतर से निम्नतर अवस्था में पड़े लोगों के जीवन में सुखद बदलाव लाने में सक्षम होता है वही परिवर्तन विकास के रूप में विशेषित होता है. अर्थात हाशिए पर पड़े लोगों को मुख्यधारा में प्रविष्ट कराने वाला परिवर्तन ही सच्चा विकास कहलाता है.
आज मीडिया जिस विकास को हवा दे रही उस विकास का मतलब बिजली, सड़क और पानी की स्थिति में सुधार से है जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को ध्यान में रखकर डिजायन किया जा रहा है एवं जिसका लाभ मुख्यतः देश के उस सुविधासंपन्न व विशेषाधिकार तबके को मिल रहा है, जिसका शक्ति के स्रोतों पर लगभग एकाधिकार है. इस विकास का लाभ दलित -पिछड़े और अल्पसंख्यकों को नहीं मिल रहा है, क्योंकि इस विकास में बहुजनों को भागीदार बनाने की कोई कार्ययोजना ही नहीं है. वंचितों के जीवन में बदलाव लाने में इस विकास की व्यर्थता को देखते हुए ही पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कई बार अर्थशास्त्रियों से रचनात्मक सोच की अपील करनी पड़ी थी. ऐसे विकास के खोखलेपन को देखते हुए ही ब्रिटिशराज के दौरान डॉ. आंबेडकर को 1930 में यह बात जोर गले से कहनी पड़ी थी-
‘सज्जनों, आप ब्रिटिश नौकरशाही की प्रशस्ति मात्र इसलिए जारी नहीं रख सकते क्योंकि उन्होंने सड़कों और नहरों को सुधारा, रेलवे बनाई, तुलनात्मक दृष्टि से स्थिर शासन दिया, भूगोल के नए आदर्श दिए अथवा आतंरिक झगड़ों और गृहयुद्धों को समाप्त किया. कानून व्यवस्था को बनाये रखने के लिए भी उनकी प्रशंसा करने के पर्याप्त आधार हैं. लेकिन कोई भी आदमी, जिनमें दलित भी शामिल हैं, खाली कानून व्यवस्था खाकर जिन्दा नहीं रह रह सकता. खाने के लिए रोटी चाहिए...मैं इस बात से सबसे पहले सहमत हूँ कि यदि ब्रिटिश लोगों की प्रशस्ति से थोड़ा ध्यान हटाकर, उस सत्य पर जाया जाय जिसके अंतर्गत इस देश में पूंजीपति और जमींदार गरीब लोगों द्वारा किये गए उत्पाद को बलपूर्वक हड़प रहे थे. समझ में आनेवाली बात यह है कि ब्रिटिश लोग पूंजीपतियों तथा जमींदारों द्वारा किये जा रहे शोषण से मुक्ति दिलाने का काम क्यों नहीं करते?
इसको थोड़े सीमित परिप्रेक्ष्य में सोचा जाना चाहिए. ब्रिटिश लोगों के आगमन से पहले अस्पृश्यता के कारण दलितों की स्थिति दयनीय थी.क्या ब्रिटिश लोगों ने अस्पृश्यता को हटाने के लिए कुछ किया? ब्रिटिश लोगों के आने के पहले अस्पृश्य गांव के कुओं से पानी नहीं भर सकते थे? क्या ब्रिटिश सरकार ने इस अधिकार को दिलाने का कोई प्रयास किया? ब्रिटिश लोगों के आने के पहले उनका मंदिरों में प्रवेश वर्जित था. क्या आज भी कोई वहां जा सकता है? ब्रिटिश लोगों के आने से पहले दलित पुलिस व सरकारी सेवाओं में भर्ती नहीं हो सकते थे. क्या ब्रितानी सरकार ने इस दिशा में कोई प्रयास किया ? इन प्रश्नों का कोई भी सकारात्मक उत्तर उपलब्ध नहीं है. जो लोग इस देश पर इतने समय तक शासन किये, वे इस देश के अछूतों के लिए कुछ अच्छा कर सकते थे, लेकिन निश्चित रूप से परिस्थितियों में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं हुआ...’
ब्रिटशराज में अचंभित करने वाले विकास पर आठ दशक पूर्व डॉ. आंबेडकर ने दलित दृष्टिकोण से जो सवाल उठाये थे आज मोदीराज हो रहे तेज विकास पर भी वैसे ही सवाल खड़े होते हैं. डॉ.अम्बेडकर ने शक्ति के स्रोतों में दलित जो तरह-तरह के बहिष्कार झेल रहे थे, उसमें प्रत्याशित सुधार न कर पाने के लिए ही तब ब्रितानी सरकार की कानून व्यवस्था और दूसरे मोर्चों पर सुशासन देने के बावजूद, तीव्र आलोचना किया था. आज के कथित विकास का दौर शुरू होने पूर्व भी दलित कुछ किस्म की सरकारी नौकरियों को छोड़कर दूसरी आर्थिक गतिविधियों-सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, पार्किंग, परिवहन से बहिष्कृत रहे.क्या विकास पुरुषों ने यह बहिष्कार दूर किया? यह दौर शुरू होने के पूर्व भी फ़िल्म-टीवी-मीडिया, पौरोहित्य और दूसरे सांस्कृतिक स्रोतों में उनकी कोई भागीदारी नहीं रही. क्या इन्होंने दिलाया?
मोदी और नीतीश के विकास से जो लाभ मिला है, वह सवर्णों को मिला है. इस विकास में दलित, आदिवासी, पिछड़ों और अकलियतों को शक्ति के स्रोतों में हिस्सेदार बनाने का कोई अवसर नहीं है. इस विकास का मतलब बिजली, सड़क, फ्लाई ओवर, शॉपिंग मॉल्स से है, जिसका नाम मात्र लाभ बहुजनों को मिला है. इस विकास के कारण चार से आठ- दस लेने की चमचमाती सड़कों पर जो गाड़ियों का सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादा गाड़ियां उन सवर्णों की होती हैं, जिनके हाथ में शक्ति के समस्त स्रोत सौपने के लिए मोदी जुनून की हद तक जुटे हैं. इस विकास के कारण ही पूरे देश में जो असंख्य गगनचुम्बी भवन वजूद में आये हैं, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादे फ्लैट्स मोदी के चहेते सवर्ण वर्ग के हैं. सिर्फ सवर्णों को ध्यान में रखकर किये जा रहे विकास के कारण आज भारत के जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग का देश की धन- दौलत पर पर प्रायः 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्जा हो गया है और आज बहुजन उस दशा में पहुंच गए हैं जिस दशा में पहुंचने के बाद सारी दुनिया के वंचितों को आज़ादी की लड़ाई में उतरना पड़ा है. ऐसे में जो विकास बहुजनों को गुलामी की दशा में पहुँचा दिया है, उस विकास पर वोट करने के बजाय ऐसे विकास के हिमायतियों को सत्ता से बाहर करने की ऐसी मिसाल कायम करने की जरूरत है, जिससे कोई नीतीश और मोदीवादी भविष्य में विकास के नाम पर वोट मांगने का दुःसाहस करने के पहले दस बार सोचे !
- एच एल दुसाध