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झूठ बोलने में माहिर आरएसएस
इस समय दुनिया का कोई भी फासीवादी संगठन दोग़ली बातें करने, उत्तेजना फैलाने और षड्यंत्र रचने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ- Rashtriya Swayamsevak Sangh, (आरएसएस) को मात नहीं दे सकता।
भारत के एक मशहूर अंगरेजी दैनिक ने आरएसएस के बारे में प्रख्यात लेखक जॉर्ज ऑरवेल द्वारा दिए गए शब्द 'दो मुंहा' को इस विघटनकारी संगठन के लिए कमतर बताया था, यानि आरएसएस दो मुंहा नहीं बल्कि इस से भी बढ़ कर है।
The shameful aspect of the RSS character has once again been revealed.
आरएसएस के चरित्र के इस शर्मनाक पहलू का एक बार फिर खुलासा हुआ है। एसएस/भाजपा के दिग्गज नेता, देश के गृह-मंत्री अमित शाह, जो देश के वास्तविक प्रधान मंत्री हैं ने, नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 (Citizenship Amendment Act 2019) को लोक सभा में पेश करते हुए, 9 दिसम्बर को कहा:
"आप जानना चाहेंगे यह क़ानून बनाना क्यों ज़रूरी है। अगर कांग्रेस ने इस देश को धर्म के नाम पर न बंटवाया होता तो इस क़ानून को लाने की कोई ज़रूरत नहीं पड़ती। यह कांग्रेस थी जिस ने देश को धर्म के आधार पर विभाजित कराया, हमने नहीं।"
यह सफ़ेद झूठ बोलकर अमित शाह ने इतिहास की सच्चाईयों का जानबूझकर विध्वंस किया है ताकि 1947 में देश विभाजन, जिसमें आधुनिक इतिहास के सब से बड़े खून-ख़राबों में से एक के असली मुजरिमों को बचाया जा सके।
हैरान करने वाली बात यह है कि अमित शाह समेत आरएसएस/भाजपा शासक टोली जो अपने आप को बीएस मुंजे, भाई परमानंद, विनायक दामोदर सावरकर, एमएस गोलवलकर और अन्य हिंदू राष्ट्रवादियों की हिन्दुत्ववादी परंपरा का वारिस बताती है, आज यह दावा कर रही है कि वे भारत का विभाजन नहीं चाहते थे। यह इस ऐतिहासिक सच्चाई के बावजूद कहा जा रहा है उपरोक्त हिन्दू राष्ट्रवादी नायकों ने न केवल दो क़ौमी सिद्धांत की अवधारणा प्रस्तुत की बल्कि उन्होंने आक्रामक रूप से मांग की कि मुसलमानों को भारत जो हमेशा से हिंदू राष्ट्र रहा है से निकाल दिया जाए।
इस टोली का आज भी विश्वास है कि हिंदू व मुसलमान दो अलग राष्ट्र हैं। भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर जिन्नाह या मुस्लिम लीग का उद्भव होने से बहुत पहले आरएसएस के लोग, जो आज सत्तासीन हैं, सतत् यह मांग करते आए हैं कि मुसलमानों व ईसाइयों से नागरिक अधिकार छीन लिए जाने चाहिएं।
आरएसएस के प्रिय भाई परमानन्द ने 1908 में धार्मिक आधार पर देश के बंटवारे की मांग की
वीडी सावरकर और एमएस गोलवलकर जिन्होंने 1923 और 1939 में विस्तृत रूप से ऐसे हिंदू राष्ट्र के विचार प्रतिपादित किए, जिनमें अल्पसंख्यक समुदाय के लिए कोई स्थान नहीं था, उनसे अरसा पहले यह भाई परमानंद थे, जिन्होंने बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में ही कहा कि हिंदू धर्म को मानने वाले और इस्लाम भारत में दो अलग-अलग जन-समुदाय हैं, क्योंकि मुसलमान जिस मजहब को मानते हैं, वह अरब देश से निकला है।
भाई परमानंद ने विशेष रूप से उर्दू में ऐसा लोकप्रिय साहित्य लिखा जिसमें मुख्य रूप से कहा जाता था कि हिंदू ही भारत की सच्ची संतान हैं और मुसलमान बाहरी लोग हैं। सन् 1908 के प्रारंभ में ही उन्होंने विशिष्ट क्षेत्रों में संपूर्ण हिंदू व मुस्लिम आबादी के आदान-प्रदान की योजना प्रस्तुत कर दी थी। अपनी आत्मकथा में उन्होंने यह योजना प्रस्तुत की, जिसके मुताबिकः
"सिंध के बाद की सरहद को अफगानिस्तान से मिला दिया जाए, जिसमें उत्तर-पश्चिमी सीमावर्ती इलाकों को शामिल कर एक महान मुस्लिम राज्य स्थापित कर लें। उस इलाके के हिंदुओं को वहां से निकल जाना चाहिए। इसी तरह देश के अन्य भागों में बसे मुसलमानों को वहां से निकल कर इस नई जगह बस जाना चाहिए।"
दो-राष्ट्र सिद्धांत के हिंदू राष्ट्रवादी पैरोकार डॉक्टर बीएस मुंजे
आरएसएस के पूजय डॉक्टर बीएस मुंजे जो हिंदू महासभा के अग्रणी नेता होने के साथ-साथ आरएसएस के संस्थापक, डॉ हेडगेवार और इटली के तानाशाह मसोलिनी के दोस्त थे, ने तो 1940 में मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान का आह्वान किए जाने से बहुत पहले हिंदू अलगाववाद की वकालत कर दी थी।
मुंजे ने 1923 में अवध हिंदू महासभा के तीसरे अधिवेशन को संबोधित करते हुए घोषणा की थी किः
"जैसे इंग्लैंड अंगरेजों का, फ्रांस फ्रांसीसियों का तथा जर्मनी, जर्मन नागरिकों का है, वैसे ही भारत हिंदुओं का है। अगर हिंदू संगठित हो जाते हैं तो वे अंगरेजों और उनके पिट्ठुओं, मुसलमानों को वश में कर सकते हैं। अब के बाद हिन्दू अपना संसार बनाएंगे और शुद्धि तथा संगठन के दुवारा फले-फूलेंगे।"
यह मुंजे की अज्ञानता ही थी, जो वह इंग्लैंड, फ्रांस व जर्मनी का उदाहरण दे कर कह रहे थे कि भारत हिंदुओं का है। इंग्लिश, फ्रेंच और जर्मन पहचान का धर्म से कुछ लेना-देना नहीं था। इन देशों के निवासियों की यह पहचान सेक्युलर नागरिकों के रूप में थी।
भारत विभाजन में 'वीर' सावरकर का योगदान
भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने और यहां से मुसलमानों व ईसाइयों को बाहर निकाल देने के तमाम तरीके 1923 के प्रारंभ में विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी विवादित किताब 'हिंदुत्व' में अधिक विस्तार से प्रस्तुत किए। हिंदुओं व अन्य धर्मावलंबियों के बीच घृणा फैलाने व उनका ध्रुवीकरण करने वाली इस पुस्तक को लिखने की अनुमति उन्हें आश्चर्यजनक रूप से अंगरेजों की कैद में रहते दे दी गई। हिंदू राष्ट्र की उनकी परिभाषा में मुसलमान व ईसाई शामिल नहीं थे, क्योंकि वे हिंदू सांस्कृतिक विरासत से जुड़ते नहीं थे, न ही हिंदू धर्म अंगीकार करते थे। उन्होंने लिखाः
"ईसाई और मुहम्मडन, जो कुछ समय पहले तक हिंदू ही थे और ज्यादातर मामलों में जो अपनी पहली ही पीढ़ी में नए धर्म के अनुयायी बने हैं, भले ही हम से साझा पितृभूमि का दावा करें और लगभग शुद्ध हिन्दू खून और मूल का दावा करें । लेकिन इन्होंने एक नई संस्कृति अपनाई है इस वजह से यह हिंदू नहीं कहे जा सकते हैं। नए धर्म अपनाने के बाद उन्होंने हिंदू संस्कृति को पूरी तरह छोड़ दिया है…उनके आदर्श तथा जीवन को देखने का उनका नजरिया बदल गया है। वे अब हम से मेल नहीं खाते इसलिए इन्हें हिंदू नहीं कहा जा सकता।"
हिंदुत्ववादी राजनीति के जनक सावरकर ने बाद में दो- राष्ट्र सिद्धांत की विस्तृत व्याख्या की। इस वास्तविकता को भूलना नहीं चाहिए कि मुस्लिम लीग ने तो पाकिस्तान का प्रस्ताव सन् 1940 में पारित किया था, लेकिन आरएसएस के महान विचारक व मार्गदर्शक सावरकर ने इससे बहुत पहले दो-राष्ट्र सिद्धांत प्रस्तुत कर दिया था। सन् 1937 में अहमदाबाद में हिंदू महासभा के 19वें वार्षिक अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने स्पष्ट रूप से यही बात दोहराई कि,
"फ़िलहाल हिंदुस्तान में दो प्रतिद्वंद्वी राष्ट्र पास-पास रह रहे हैं। कई अपरिपक्व राजनीतिज्ञ यह मानकर गंभीर ग़लती कर बैठते हैं कि हिंदुस्तान पहले से ही एक सद्भावपूर्ण राष्ट्र के रूप में ढल गया है या सिर्फ हमारी इच्छा होने से ही इस रूप में ढल जायेगा…आज यह क़तई नहीं माना जा सकता कि हिंदुस्तान एक एकता में पिरोया हुआ और मिलाजुला राष्ट्र है। बल्कि इसके विपरीत हिंदुस्तान में मुख्यतौर पर दो राष्ट्र हैं-हिन्दू और मुसलमान।"
आरएसएस के गुरु गोलवलकर की हिन्दू राष्ट्र की विस्तृत योजना
हिंदुत्ववादी विचारकों द्वारा प्रचारित दो-राष्ट्र की इस राजनीति को 1939 में प्रकाशित गोलवलकर की पुस्तक 'वी, ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड' से और बल मिला। भारत में अल्पसंख्यकों की समस्या से निपटने के लिए गोलवलकर ने इस किताब में नस्लीय सफाया करने का मंत्र दिया, उसके मुताबिक प्राचीन राष्ट्रों ने अपनी अल्पसंख्यक समस्या हल करने के लिए राजनीति में उन्हें (अल्पसंख्यकों को) कोई अलग स्थान नहीं दिया। मुस्लिम और ईसाई, जो 'आप्रवासी' थे, उन्हें स्वाभाविक रूप से बहुसंख्यक आबादी अर्थात 'राष्ट्रीय नस्ल ' में मिल जाना चाहिए था। गोलवलकर भारत से अल्पसंख्यकों के सफाये के लिए वही संकल्प प्रकट कर रहे थे कि जिस प्रकार नाजी जर्मनी और फाशिस्ट इटली ने यहूदियों का सफाया किया है। वे मुसलमानों और ईसाइयों को चेतावनी देते हुए कहते हैं,
"अगर वह ऐसा नहीं कर सकते तो उन्हें बाहरी लोगों की तरह रहना होगा, वे राष्ट्र द्वारा निर्धारित तमाम नियमों से बंधे रहेंगे। उन्हें कोई विशेष सुरक्षा प्रदान नहीं की जाएगी, न ही उनके कोई विशेष अधिकार होंगे। इन विदेशी तत्वों के सामने केवल दो रास्ते होंगे, या तो वे राष्ट्रीय नस्ल में अपने-आपको समाहित कर लें या जब तक यह राष्ट्रीय नस्ल चाहे तब तक वे उसकी दया पर निर्भर रहें अथवा राष्ट्रीय नस्ल के कल्याण के लिए देश छोड़ जाएं। अल्पसंख्यक समस्या का यही एकमात्र उचित और तर्कपूर्ण हल है। इसी से राष्ट्र का जीवन स्वस्थ व विघ्न विहीन होगा। राज्य के भीतर राज्य बनाने जैसे विकसित किए जा रहे केंसर से राष्ट्र को सुरक्षित रखने का केवल यही उपाय है। प्राचीन चतुर राष्ट्रों से मिली सीख के आधार पर यही एक दृष्टिकोण है जिसके अनुसार हिंदुस्थान में मौजूद विदेशी नस्लें अनिवार्यतः हिंदू संस्कृति व भाषा को अंगीकार कर लें, हिंदू धर्म का सम्मान करना सीख लें तथा हिंदू वंश, संस्कृति अर्थात् हिंदू राष्ट्र का गौरव गान करें। वे अपने अलग अस्तित्व की इच्छा छोड़ दें और हिंदू नस्ल में शामिल हो जाएं, या वे देश में रहें, संपूर्ण रूप से राष्ट्र के आधीन। किसी वस्तु पर उनका दावा नहीं होगा, न ही वे किसी सुविधा के अधिकारी होंगे। उन्हें किसी मामले में प्राथमिकता नहीं दी जाएगी यहां तक कि नागरिक अधिकार भी नहीं दिए जाएंगे। "
सावरकर के पदचिन्हों पर चलते हुए आरएसएस ने इस विचार को पूरी तरह नकार दिया कि हिंदू और मुसलमान मिल कर एक राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं। स्वतंत्रता दिवस (14 अगस्त 1947) की पूर्वसंध्या को आरएसएस के अंगरेजी मुखपत्र 'ऑर्गनाइजर' के संपादकीय में राष्ट्र की उनकी परिकल्पना को इन शब्दों में प्रस्तुत किया गयाः
"राष्ट्रत्व की छद्म धारणाओं से गुमराह होने से हमें बचना चाहिए। बहुत सारे दिमाग़ी भ्रम और वर्तमान एवं भविष्य की परेशानियों को दूर किया जा सकता है अगर हम इस आसान तथ्य को स्वीकारें कि हिंदुस्थान में सिर्फ हिंदू ही राष्ट्र का निर्माण करते हैं और राष्ट्र का ढांचा उसी सुरक्षित और उपयुक्त बुनियाद पर खड़ा किया जाना चाहिए...स्वयं राष्ट्र को हिंदुओं द्वारा हिंदू परम्पराओं, संस्कृति, विचारों और आकांक्षाओं के आधार पर ही गठित किया जाना चाहिए।"
स्वतंत्रता पूर्व के भारत की सांप्रदायिक राजनीति के गहन शोधकर्ता डॉ. बीआर आंबेडकर दो-राष्ट्र सिद्धांत के बारे में हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग की समान विचारधारा और आपसी समझ को रेखांकित करते हुए लिखते हैं:
"यह बात भले विचित्र लगे लेकिन एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के प्रशन पर मि. सावरकर व मि. जिन्नाह के विचार परस्पर विरोधी होने के बजाय एक-दूसरे से पूरी तरह मेल खाते हैं। दोनों ही इसे स्वीकार करते हैं, और न केवल स्वीकार करते हैं बल्कि इस बात पर जोर देते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं- एक मुस्लिम राष्ट्र और दूसरा हिंदू राष्ट्र।"
सावरकर के नेतृत्व वाली हिंदू महासभा द्वारा मुस्लिम लीग के साथ साझा सरकारें चलाना
हिंदू राष्ट्रवादी सावरकर के वंशज, जो आज भारत में सत्ता संभाले हुए हैं, इस इस शर्मनाक सच से अनजान बने हुए हैं कि देश के साझा स्वतंत्रता संग्राम खासतौर से अंगरेज हुक्मरानों के खिलाफ 1942 के अंगरेजों भारत छोड़ो आंदोलन को निष्प्रभावी करने के लिए सावरकर के नेतृत्व वाली हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग को साथ मिल कर सरकारें चलायी थीं। कानपुर में आयोजित हिंदू महासभा के 24वें अधिवेशन में अधियक्षय भाषण देते हुए सावरकर ने मुस्लिम लीग को इस तरह साथ लेने का यूं बचाव कियाः
"हिंदू महासभा जानती है कि व्यावहारिक राजनीति में हमें तर्कसंगत समझौतों के साथ आगे बढ़ना चाहिए। हाल ही सिंध की सच्चाई को समझें, जहां निमंत्रण मिलने पर सिंध हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिल कर साझा सरकार चलाने की जिम्मेदारी ली। बंगाल का उदाहरण भी सब के सामने है। उद्दंड (मुस्लिम) लीगी जिन्हें कांग्रेस अपने तमाम आत्म समर्पणों के बावजूद खुश नहीं रख सकी, हिंदू महासभा के संपर्क में आने के बाद तर्कसंगत समझौतों और परस्पर सामाजिक व्यवहार को तैयार हो गए। श्री फजलुलहक की प्रीमियरशिप (मुख्यमंत्रित्व) तथा महासभा के निपुण सम्माननीय नेता डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में दोनों समुदायों के हित साधते हुए एक साल तक सफलतापूर्वक चली। "
हिंदू महासभा व मुस्लिम लीग ने उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत में भी गठबंधन सरकार बनाई थी।
हिन्दुत्वादी संगठनों ने कैसे देश विभाजन की नींव रखी
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प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक राम मनोहर लोहिया, जो देश विभाजन के साक्षी रहे थे, ने देखा था कि कैसे हिन्दुत्वादी संगठनों के मुस्लिम विरोधी प्रचार के चलते मुस्लिम लीग के लिए अच्छा-खासा आधार तैयार हो गया था। इस माहौल में लीग मुस्लिमों के बीच संरक्षक के तौर पर लोकप्रियता हासिल कर सकी । हिंदू सांप्रदायिक तत्व प्रचंड रूप से अखंड भारत का नारा दे रहे थे, लेकिन देश को एक हिन्दू राष्ट्र बनाने के उग्र प्रचार से देश के विभाजन की नीवं भी डाल रहे थे। उन के अनुसार:
"इससे ब्रिटेन एवं मुस्लिम लीग को देश का विभाजन करने में मदद मिली...। उन्होंने एक ही देश में हिंदू व मुस्लिमों को आपस में करीब लाने के लिए कुछ भी नहीं किया। इसके उलट, उन्होंने इनमें परस्पर एक दूसरे के बीच मनमुटाव पैदा करने की हर संभव कोशिश की। इस तरह की हरकतें ही देश के विभाजन की जड़ों में थीं।"
आरएसएस और हिन्दू महासभा के अभिलेखागरों में मौजूद समकालीन दस्तावेज़ इस शर्मनाक सच्चाई के गवाह हैं कि इन संगठनों ने न केवल साझे स्वतंत्र आंदोलन से ग़द्दारी की बल्कि बार-बार मुस्लिम लीग के साथ हाथ मिलाए। इन संगठनों ने मुस्लिम लीग से बहुत पहले दो राष्ट्रीय सिद्धांत को प्रतिपादित किया जिस को अपना कर देश को धर्म के आधार पर बांटा गया।
शम्सुल इस्लाम
दिसम्बर 11, 2019
The Times Of India, Delhi, edit, 'Sangh's triplespeak', August 16. 2002.