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Weird is the Prime Minister, he speaks the language of violence, the country suffers brunt
दुष्यंत कुमार का एक शेर है,
मत कहो आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
इस मुल्क में मध्यवर्ग का ऐसा कुत्सित अंधभक्त तबका पैदा हो गया है जो सरकार की हर सही-गलत नीति-काम का महिमामंडन ही राष्ट्र सेवा मानता है और सरकार की कमियों की समीक्षा को देशद्रोह। बिना योजना के, बिना किसी तैयारी के लाखों लोगों की जिंदगी के साथ खिलवाड़ की सरकार की योजना की आलोचना करें, तो अनुपम खेर जैसे लंपट अंधभक्त नकारात्मकता का रोना रोने लगेंगे। प्रधानमंत्री जी ने मन की बात में (वे जन की बात कभी नहीं करते, मन की ही करते हैं), लोगों से लॉकडाउन की माफी मांगी कि लोगों को तकलीफ हो रही है, खासकर गरीबों को।
नोटबंदी के समय उन्होंने उप्र की चुनावी सभा में 50 दिन की मोहलत मांगी थी कि 50 दिन में सब ठीक न हो जाए तो उन्हें लोग चौराहे पर जूता मारें।
अजीब प्रधानमंत्री है मार-काट की ही भाषा बोलते हैं, 100 दिन में काला धन वापस न लाने पर फांसी लगा देने की बात की थी। नोटबंदी का खामियाजा देश अभी तक भुगत रहा है लेकिन प्रधान मंत्री जी कभी जेड प्लस छोड़कर चौराहे पर आए नहीं।
प्रधानमंत्री जी लॉकडाउन की आलोचना (Criticism of lockdown) कोई नहीं कर रहा है, बिना सोचे, बिना योजना बनाए, संभावित प्रभावितों से बिना कोई विमर्श किए, राज्यों के साथ बिना किसी समन्वय के नोटबंदी की तरह लाक डाउन की घोषणा से आपने मुल्क को अनिश्चितता की मझधार में डाल दिया।
मन की बात में आपको पुलिस वालों से भी निवेदन करना था कि जो लोग बिना अन्न पानी के सामान और बीबी-बच्चों के साथ किसी यातायात के अभाव में सैकड़ों किलोमीटर, की पैदल यात्रा पर निकल पड़े हैं उनके साथ पशुवत व्यवहार न करें।
वीडियो में दिख रहा है कि पैदल जाते लोगों को पुलिस मुर्गा बना रही है। बरेली के एक वीडियो में दिल्ली से बरेली पहुंचे मजदूरों पर कीटनाशक छिड़क कर सैनिटाइज (Sanitize workers by spraying pesticides) किया जा रहा है। राजस्थान के प्रवासी मजदूरों को मकान मालिकों ने घर से निकाल दिया है वे अधर में लटके हैं, हजारों मजदूर गुजरात से काम-काज बंद होने से भाग रहे हैं।
सरकारी खर्च पर आप विदेशों से अमीर भारतीयों को स्वदेश वापस लाए, उसका साधुवाद, लेकिन गरीबों का भी कुछ ध्यान देना चाहिए। सुना है आप चाय बेचते थे लेकिन अडानी-अंबानी की सोहबत में गरीबी भूल गए होंगे। मैंने गरीबी और भूख पढ़ा ही नहीं जिया भी है, बहुत दिनों सुविधा संपन्न नौकरी में रहने के बाद भी गरीबी और भूख भूला नहीं हूं। प्रवासी मजदूर ही दिल्ली की ईंधन-पानी हैं।
भूमंडलीकरण के उदारीकरण ने संगठित क्षेत्र खत्म कर दिया है ज्यादातर प्रवासी मजदूर ठेकेदारी प्रथा में हैं, दिहाड़ी करते हैं, निर्माण मजदूर हैं, रिक्शा चलाते हैं, रेड़ी-खोमचा लगाते हैं, रिक्शा चलाते हैं या छोटे-मोटे उद्योगों में काम करते हैं। वे दिल्ली या एनसीआर में 2500-5000 रुपए में 10 X10 के कमरे में 5-6 के परिवार के साथ रहते हैं या ऐसे रिक्शाचालक या दिहाड़ी मजदूर जो परिवार घर छोड़ अकेले कमाने आए हैं एक कमरे में 5-6 रहते हैं। लाक डाउन, काम-धंधा बंद। ज्यादातर रोज कुंआ खोदने-पानी पीने वाले हैं।
केजरीवाल ने कहा वे सबके खाने का इंतजाम कर रहे हैं, लेकिन लोग बहुत ज्यादा हैं, वीडियो में केवल आनंद विहार बस अड्डे पर ही लाखों का हुजूम दिख रहा है। यह भीड़ सोशल-डिस्टेंसिंग (सामाजिक दूरी) का पालन कैसे कर सकती है?
जनवरी से ही चीन से चेतावनी मिल रही है लेकिन आपकी सरकार तो दिल्ली पुलिस के गुजरातीकरण से दंगा आयोजन में व्यस्त थी।
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काश! थोड़ा समय निकाल कर कोरोना प्रकोप से निपटने की पूर्व तैयारी करते। लाक डाउन के पहले प्रभावित होने वाले पक्षों से बात करते, प्रदेश सरकारों से बात करते। लॉकडाउन घोषित करने के पहले प्रवासी मजदूरों के लिए डॉक्टरों और सेनिटाइजेसन सुविधा के साथ कुछ विशेष रेल गाड़ियां चलाते। दिल्ली सरकार से कहते, वैसे उसे खुद ही यह करना चाहिए था कि डीटीसी की कुछ बसें चिकित्सा सुविधा के साथ प्रवासी मजदूरों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने के लिए लगा देते। राज्य सरकारों को कहते और उन्हें खुद करना चाहिए था कि शहरों से मजदूरों के घर वापसी का प्रबंध करते। सुना है झारखंड सरकार ने ऐसा किया है।
मैं तो नास्तिक हूं तो इन गरीबों के उत्पीड़कों भगवान की सजा में यकीन नहीं करता, लेकिन इतना जानता हूं कि गरीब की आह बहुत खतरनाक होती है। सुनो घरों में सुरक्षित रामायण-महाभारत देख कर समय काटने वाले मध्य वर्ग तुम्हें मेरी बात बुरी लगे तो जितनी बददुआ देना हो दे लेना, शैलेंद्र के शब्दों में, “ये गम (कोरोना) के और चार दिन, सितम के और दिन ये दिन भी जाएंगे गुजर, गुजर गए हजार दिन”।
प्रो. ईश मिश्र