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What is the importance of life values in literature?
भारतीय समाज में मूल्यों का प्रमुख स्रोत क्या है? धर्म की जीवन मूल्यों के प्रति क्या भूमिका है? मूल्यों के निर्माण में परिवार व समाज की भूमिका क्या है?
मूल्यों का प्रारंभ परिवार से होता है। परिवार के दायरे से बाहर निकलकर मनुष्य व्यापक समाज में आता है। ग्राम, प्रांत, देश सब उन व्यापक समाज के घटक हैं। अत: साहित्य समाज का दर्पण है। उपनिषदों के 'सत्यम' वद् धर्मचार' से लेकर कबीर तथा तुलसीदास से लेकर रहीम के नीति काव्य तक व्याप्त नीति साहित्य मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा का प्रत्यक्ष प्रयास हैं।
आधुनिक साहित्य में 'मूल्य' शब्द का प्रयोग किस तरह किया गया है? | How is the word 'value' used in modern literature?
आधुनिक साहित्य में 'मूल्य' शब्द का प्रयोग वैयक्तिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक तथा सांस्कृतिक स्तर का संपूर्ण मानव व्यवहार के मानदंड के रूप में किया जाता है। 'मूल्य' शब्द का आवश्यकता, प्रेरणा, आदर्श, अनुशासन, प्रतिमान आदि अनेक अर्थों में प्रयोग होता है।
आज मनुष्य पुराने विचारों को काल बाह्य समझने लगा है, प्राचीन मूल्य अस्वीकृति हो रहे हैं और नए-नए मूल्य स्वीकार किए जा रहे हैं।
भारतीय संस्कृति में वर्गचतुष्ठय का एक सुभाषित विचारणीय प्रतीत होता है- ''आहारनिद्राभय मैथुनंच, सामान्यमेतम् पशुभि: नराणाम धर्मोहि- तेषु अधिको विशेष: धर्मणहीरन: पशभि: समान।''
यहां धर्म परंपरा उत्कृष्ट मूल्य मानते हुए कहा गया है कि धर्म के अभाव में मनुष्य पशुओं से श्रेष्ठ नहीं है। अर्वाचीन साहित्य में भी मानव व्यवहार को दिशा देने का बहुत प्रयास हुआ है, पाश्चात्य विद्ववानों ने अच्छे-बुरे की छानबीन मूल्य के संदर्भ में की है।
मूल्य विकास क्या है? मूल्य की परिभाषा क्या है?
'अर्बन' ने मूल्य की तीन संक्षिप्त पभिाषाएं (What is the definition of value?) प्रस्तुत की है।
प्रथम व्याख्या के अनुसार 'मानवीय इच्छा की तृष्टि करें वही 'मूल्य' है।
'द्वितीय परिभाषा में 'मूल्य वह वस्तु है जो जीवन को सदैव विकास की ओर ले जाती है और उसे सुरक्षित रखती है।' तीसरी परिभाषा के अनुसार- जीवन- मूल्यों के संबंध में अनेक मत प्रचलित हैं।
वस्तुत: मूल्यों को परिभाषा की संकुचित सीमा में सही सही नहीं बांधा जा सकता। हर एक समाज अपनी आवश्यकता के अनुसार मूल्यों का निर्माण करता है।
परंपरागत मूल्यों के बारे में धर्मवीर भारती विचार
परंपरागत मूल्यों के बारे में धर्मवीर भारती कहते हैं- 'पुराने मूल्य अब मिथ्या लगने लगे हैं। इस प्रकार की श्रद्धा, आस्था और करुणा अमानवीय वृत्तियों को जन्म देती है, वे मानवीय गौरव को प्रतिष्ठित करने की बजाय उसको विकलांग बनाते हैं। जैसे श्रद्धा, आस्था, करुणा दया आदि मूल्य आज समाज में कम नजर आते हैं। उत्कर्ष ही जीवन-मूल्यों की कसौटी है, उन व्यवहारों को ही जीवनमूल्य माना जाता है। हर एक धर्म में कुछ नैतिक आदर्श होते हैं, उनके आधार पर ही समाज में अनेक मूल्यों का प्रचलन होता रहता है।
मानव जीवन को स्थायित्व प्रदान करते हैं मूल्य
मूल्यों द्वारा सामाजिक व्यवस्था का निर्माण होता है। मूल्यों का प्रश्न केवल आयामों के लिए महत्व रखता है, ऐसा नहीं है। साहित्य के प्रत्येक अध्येता के लिए वह एक गुरुत्तर प्रश्न है और लेखक के लिए तो उसकी मौलिकता असंदिग्ध है, क्योंकि कृतिकार अपनी कृति का सबसे पहला और सबसे अधिक निर्मम परीक्षक है।
प्राचीन और नवीन मूल्यों का संघर्ष (clash of old and new values)
प्राचीन युग में मूल्यों का निर्धारण, राज्य, धर्म एवं समाज के द्वारा किया जाता था। किंतु आज वैसा नहीं है, इस मत को व्यक्त करते हुए डा.देवराज उपाधयाय कहते हैं मनुष्य अपना कत्ता-धर्ता स्वयं है, अर्थों तथा मूल्यों का निर्णायक भी वहीं है। पुराने और नये मूल्यों का संघर्ष आज अत्यंत प्रखरता से अनुभव किया जा रहा है। साहित्य पाठकों को जीवन के यर्थाथ से जोड़ता है, और नैतिक मूल्यों के प्रति आस्था उत्पन्न रपका है। साहित्य शब्द 'काव्यशास्त्र में 'साहितस्य भाव: इति साहित्यम्।' इसके अनुसार साहित्य में हित की भावना का होना अनिवार्य है।
साहित्य की पहचान का वास्तविक आधार क्या है?
साहित्य की पहचान का वास्तविक आधार आज भी मानव-मूल्य ही है। साहित्य जो मानवीय संस्कृति, सभ्यता एवं व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। साहित्य और जीवन मूल्यों का शाश्वत संबंध है।
साहित्यकार का उद्देश्य (writer's purpose) कृति के द्वारा आनंद की सृष्टि तथा समाज मार्गदर्शक के रूप में होता है। इस संदर्भ में डॉ. जगदीशचंद्र गुप्त का मत है 'कला और साहित्य दोनों एक प्रकार से जीवन का ही परिविस्तार करते हैं, मानव मूल्यों की स्थापना साहित्यकार से इस बात की अपेक्षा रखती है कि वह साहित्यिक मूल्यों को भी उतना ही समादर प्रदान करे जितना मानव-मूल्यों की, क्योंकि तत्वत: दोनों एक ही हैं।'
साहित्यिक या कलात्मक निर्मिति के अंतर्गत साहित्य के कलात्मक मूल्यों की खोज तथा संवर्धन किया जाता है। साहित्य में जीवन-मूल्य कल्पनाजन्य नहीं होते, बल्कि साहित्यकार के अनुभूत सत्य होते हैं, जो उसकी आत्मोपल की प्रक्रिया में स्थापित होकर अपनी सुंदरता महत्ता और उदारता के कारण समाज द्वार जीवन-मूल्यों के रूप में स्वीकार किए जाते हैं।
हमारे अव्यक्त भावों को व्यक्त करता है साहित्य | एक ही सिक्के के दो पहलू हैं साहित्य और मूल्य
साहित्य में जीवन के विविध रूप हमारे सामने आते हैं। साहित्य का आधार मनुष्य और उसके अपने यथार्थ के बीच जीवित संबंधों में है। साहित्य और मूल्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
अस्तित्ववादी दर्शन के प्रभाव से आज प्रत्येक क्षेत्र में मूल्यकरण की स्वतंत्रता पर बल दिया जा रहा है। लेकिन साहित्य का संबंध व्यक्तिगत रूचि से न होकर सामाजिक, आर्थिक, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था से होता है। वही जीवन का साहित्य कहलाता है।
साहित्य जीवन की व्याख्या है : मैथ्यू अर्नाल्ड
साहित्य और जीवन मूल्य के संबंध को स्पष्ट करते हुए मैथ्यू अर्नाल्ड ' ने 'साहित्य को जीवन की व्याख्या कहा है।''
इस व्याख्या से उनका तात्पर्य जीवन के गुण दोष कथन से नहीं है, अपितु जीवन के सर्वांगीण विकास से है। वास्तव में जीवन के शाश्वत मूल्य सत्यं शिवं सुंदरम् तीनों की सामंजस्यपूर्ण प्रतिष्ठा ही सफलता की पराकाष्टा है। 'हितेन सह सहितं' कहकर साहित्य शब्द के व्याख्याकारों ने उसमें स्वयं कल्याण भावना की प्रतिष्ठा की है।
साहित्य में जीतना संदेश होता है, जैसे 'तमसो मा ज्योतिर्गतम' उसी प्रकार धर्म और साहित्य का घनिष्ठ संबंध होता है। यदि समाज न होता तो साहित्य भी नहीं होता यदि साहित्य होगा तो समाज भी होगा। समष्टि ही साहित्य में अभिव्यंजित है। अत: मानव, साहित्य और समाज के बाहर जी नहीं सकता।
साहित्यिक मूल्य : मूल्य किसे कहते हैं साहित्य में उनकी क्या आवश्यकता है?
साहित्य जिन मानव मूल्यों को ग्रहण कर उनके स्वरूप को अभिव्यक्त करता है, वे साहित्यिक मूल्य कहलाते हैं। मानव मूल्य एवं साहित्यिक मूल्य वस्तुत: एक ही हैं। मूल्य समाज की मान्यताओं और धारणाओं के अनुसार बनते-मिटते और बदलते रहते हैं। किंतु शाश्वत मूल्य न कभी बदलते हैं और न मिटते हैं।
प्रो. अशोक बली कांबले
कर्मवीर हिरे माहाविद्यालय, गारगोटी, मु. परिते, त. करवीर,
जि. कोल्हापुर.