पितृपक्ष को यहां से देखें    

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Jagadishwar Chaturvedi जगदीश्वर चतुर्वेदी। लेखक कोलकाता विश्वविद्यालय के अवकाशप्राप्त प्रोफेसर व जवाहर लाल नेहरूविश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। वे हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।

मथुरा के चौबों में श्राद्ध पक्ष का क्या महत्व है?

इन दिनों पितृपक्ष शुरू हो गया है। मथुरा के चौबों में यहाँ श्राद्ध पक्ष का ख़ास महत्व है। अधिकांश चतुर्वेदी परिवारों श्राद्ध होता है। वे सुंदर भोजन कराते हैं। सुंदरी भोजन का स्वभाव चौबों के साथ मिलता है। वे भोजन प्रिय हैं।

मैं कभी श्राद्ध नहीं करता। मैं रहता मथुरा में हूँ। पर यह सब नहीं मानता। हमारे परिवार में श्राद्ध चार दशक पहले पिता ने ही बंद कर दिए। वे किसी का श्राद्ध नहीं करते थे। पक्के वेदज्ञानी और और तंत्र के उद्भट विद्वान थे। मैंने उनसे पूछा  था कि आपका अंतिम संस्कार कैसे किया जाये तो बोले वैदिक रीति से करना,लेकिन कभी श्राद्ध मत करना। पुनर्जन्म में उनकी कोई आस्था नहीं थी। यह भी कहा था कि पंडित न मिले तो वैसे ही जला देना।

खैर उनकी इच्छा के अनुसार उनका अंतिम संस्कार वैदिक रीति से किया लेकिन पितृपक्ष में हमारे परिवार में किसी का श्राद्ध नहीं होता। श्राद्ध न करने की परंपरा का श्रीगणेश पिताजी ने किया।

मुझे याद है माँ की मृत्यु हुई तब मैं मथुरा में ही माँ के पास था। माँ के अंतिम संस्कार को वैदिक रीति से किया। लेकिन किसी को भोजन नहीं कराया गया, बारहवीं के दिन कुछ लोगों का भोजन बनवाकर यमुनाजी- धर्मराज के मंदिर में चढ़ा आए। उसके बाद बहस हुई कि आगे क्या करें ?

इस बहस का परिणाम निकला कि हम माँ का मासिक का श्राद्ध नहीं करेंगे, वार्षिक और चतुर्वार्षिक श्राद्ध नहीं करेंगे और पितृपक्ष में श्राद्ध नहीं करेंगे। सन् 1976-77 से यह परंपरा परिवार में चल रही है। हम किसी का श्राद्ध नहीं करते। पिता का भी श्राद्ध नहीं करता।

इधर एक फिनोमिना प्रचलन में है श्राद्ध के अवसर पर भी नवोदित विवाहित परिवार में कनागत के समय भोजन के नाम पर भारी लेनदेन होता है। इस लेन देन में विगत पचास वर्षों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। शादी में दहेज प्रथा एक बड़ा फिनोमिना है।

सनातन हिन्दू धर्म और चौबों के परंपरागत रिवाजों का लेन-देन बढ़ा है। यह तब है जबकि चौबों में शिक्षा बढ़ी है, पैसा आया है। आधुनिक मध्यवर्ग तैयार हुआ है। कायदे से शिक्षा के प्रसार के बाद दहेज प्रथा ख़त्म होनी चाहिए, लेकिन वह बढ़ी है। हरेक तीज-त्यौहार पर लेन-देन बढ़ा है। ये सब सामाजिक रूढ़िबद्धता के लक्षण हैं। सामाजिक रूढ़िबद्धता और जाति के बंधनों से युवाओं को लड़ना चाहिए। लेकिन वे तो रूढ़ियों के उपकरण बन गए हैं। सामाजिक रूढ़ियों से बंधा समाज कभी आधुनिक नहीं बन पाता। आधुनिक बनने के लिए  आधुनिक संस्कार और आदतों को अपनाने की जरूरत है।

karl marx ki 100vin jayanti
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(यह फोटो पिता की मृत्यु के तीन दिन बाद मथुरा में आयोजित कार्यक्रम का है, मैंने वहां वक्तव्य पता,सबसे मिला। जबकि मैंने पिता अंतिम संस्कार किया था, नियमानुसार तेरह दिन सब सार्वजनिक काम बंद रखने का प्रावधान है, यह कार्यक्रम पिता की मृत्यु से पहले तय हो गया था, आयोजक रद्द करने को राजी थे, मैंने कहा कार्यक्रम तय दिन पर होगा और मैं बोलूंगा)

प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी

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