What was the crime of these workers?
(मोहम्मद खुर्शीद अकरम सोज़)
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रेल की पटरी पर
मज़दूरों की बिखरी लाशें
इधर-उधर इन लाशों के,
बिखरी है कुछ सूखी रोटी
सुनो ग़ौर से कुछ कहती है !
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इन मज़दूरों का जुर्म था क्या ?
जो केवल रोज़ी-रोटी की ख़ातिर
अपने गाँव को छोड़ कर
बड़े शहरों में आये थे
और अपना ख़ून-पसीना देकर
इस रोटी का क़र्ज़ चुकाया था
अपनी मेहनत के दम पर
इन बे-कस , बेचारों ने
कितनों के ख़ज़ाने भर डाले
कितनी सड़कें ,कितने पुल,
कितनी फ़ैक्टरियों का निर्माण किया
अपनी मेहनत से इन मजदूरों ने
कितनों को धनवान किया
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लेकिन जब इन शहरों में
कोविड की महामारी छाई
पूंजीपति धनवानों ने
और इनकी सरकारों ने
योगदान को भूल कर इनके
जीना इनका तंग किया
जीविका इनकी बंद किया
लॉक-डाउन के नाम पे इनको
बिन दाना, बिन पानी के ही
क़ैद में ऐसे डाल दिया कि
घर जाना दुश्वार हुआ
गर कोई हिम्मत करके
इनकी क़ैद से चाहे निकलना
तो, इन पर लाठी-डंडों से प्रहार किया
अंग्रेज़ों जैसा अत्याचार किया !
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फिर भी जैसे-तैसे इन धनवानों की
क़ैद से बचकर कुछ मज़दूर
रेल की पटरी पर जा पहुँचे
और निकल पड़े इस पटरी से
अपने-अपने गाँव की ओर !
दिल में बस यह आस लिये !
एक नया विश्वास लिये !
अब जीना हो या मरना हो !
बस गाँव में अपने रहना हो !
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यूँ अपनी धुन में चलते-चलते
कब थकन ने इनको जकड़ लिया
नींद ने ऐसे पकड़ लिया
कि रेल की पटरी पर ही थक कर
आँखें बंद कर सो गये
गाँव के सपनों में खो गये
फिर ..........................!!!
नींद खुली न सपना टूटा
धड़-धड़ करती मौत बनकर
आ पहुंची एक रेल गाड़ी , इनके और
इनके सपनों के ऊपर से गुज़र गई
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मोहम्मद खुर्शीद अकरम
अब रेल की पटरी पर
इन मज़दूरों की बिखरी लाशें
इधर-उधर इन लाशों के,
बिखरी हुई कुछ सूखी रोटी
सुनो ग़ौर से कुछ कहती हैं !
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इन मज़दूरों का जुर्म था क्या ?
इन मज़दूरों का जुर्म था क्या ?