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लोकतंत्र में महिलाओं को अवसर पर हिलेरी क्लिंटन के विचार | Hillary Clinton's views on opportunities for women in democracy
हिलेरी क्लिंटन के शब्दों में, “जब तक महिलाओं की आवाज़ नहीं सुनी जाएगी तब तक सच्चा लोकतंत्र नहीं आ सकता। जब तक महिलाओं को अवसर नहीं दिया जाता, तब तक सच्चा लोकतंत्र नहीं हो सकता।“
आज हम किसी भी पार्टी के मेनीफेस्टो को उठाकर देख लें, महिलाओं के सामाजिक सुरक्षा, आर्थिक, राजनैतिक और उनसे जुड़े मामले हर जगह लगभग नदारद ही रहे हैं। देखा जाए तो महिला मुद्दा कभी मुद्दा रहा ही नहीं। रही बात 33% आरक्षण (33% reservation for women) की तथाकथित सेवकों के लिए ये मसला कभी इतना गंभीर रहा ही नहीं कि इस पर गंभीर चर्चा की जाए और हो भी क्यों भला जब स्वयं महिलाएं जागरूक नहीं?
देश में चुनावों का माहौल में भले ही ये मुद्दा पक्ष/विपक्ष की तरफ से उठाया जाता रहा हो, लेकिन दर हकीकत समानता का अधिकार या 33 फीसदी आरक्षण किसी राजनीतिक दल ने बात नहीं की। वक़्त दर वक़्त बाकी मसलों की तरह इस मुद्दे पर भी सरसरी तौर पर सुगबुगाहट होती रही है।
Participation of women in Panchayats and Municipalities through 73rd and 74th Constitutional Amendments
1993 में भले ही 73वें ओर 74वें संविधान संशोधन के ज़रिए पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की गई है मगर अप्रत्यक्ष रूप से पुरूषों के माध्यम से ही निज़ाम चलाया जा रहा है।
संसद में पहली मर्तबा आकलन संबंधी समिति ने अपनी रिपोर्ट में सन् 1974 में देश में महिलाओं की स्थिति एवं महिलाओं के प्रतिनिधित्व का मुद्दा (The issue of women's status and women's representation in the country) उठाया गया था। लंबे सफ़र के बाद एच.डी. देवगौड़ा सरकार ने 1996 में (81वें संविधान संशोधन विधेयक) पहली बार महिला आरक्षण विधेयक को संसद में पेश किया था। सन् 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी जी की सरकार ने इस पर दिलचस्पी दिखाई पर किस कारणवश फिर ठंडे बस्ते में चला गया।
इसी क्रम में सन् 1999, 2002 एवं 2003 में इस पर फिर काम किया गया, लेकिन नतीजा हम सबके सामने है।
सन् 2008 में आती है मनमोहन सिंह जी की सरकार, जो लोकसभा और विधानसभाओं में 33 फीसदी महिला आरक्षण से जुड़ा 108वाँ संविधान संशोधन विधेयक राज्यसभा में पेश करते हैं। जिसे 2010 के आते-आते तमाम जद्दोजहद के बाद राज्यसभा में पारित कर दिया जाता है, लेकिन लोक सभा में ऐसा अटका कि 33% आरक्षण बिल राज्यसभा से पारित होने के बाद भी इतने वर्षों से लोकसभा में पेंडिग पड़ा है।
भारत की संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व Representation of women in the Parliament of India
भारत की संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की बात करें तो महज़ 11.8 फीसदी है। अन्य देशों के मुकाबले ये आँकड़ा बहुत पिछड़ापन दर्शाता है। जनवरी, 2019 के आंकड़ों बाद जिन देशों की संसद में महिलाओं की संख्या 50 फीसदी से ज्यादा है, उसमें पहले नंबर पर रवांडा, दूसरे पर क्यूबा और तीसरे पर बोलिविया है। इस मामले में भारत पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश और पाकिस्तान से भी पीछे है।
विकासशील देशों के हालात भी इस मामले में संतोषजनक नहीं हैं। अमेरिका की संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व महज़ 23 फीसदी है। वहीं फ्रांस 39.7%, ब्रिटेन में 32%, जर्मनी में 30.9% संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व है।
1952 के लोकसभा चुनाव में 22 सीटों पर महिलाएं चुनी गई थीं, यानी कि उस समय महिलाओं का प्रतिनिधित्व 4.4 फीसदी था। 62 सालों के गुज़र जाने के बाद सन् 2014 के लोकसभा चुनाव तक ये आंकड़ा महज़ 62 तक पहुंचता है जिससे साफ़ ज़ाहिर है कि महज़ 11 फीसदी महिलाओं की संसद तक पहुंच है। ज़ाहिरी तौर पर ये आंकड़ा वैश्विक औसत से आज भी 20 फीसदी कम है।
फेस वैल्यू के चलते संसद में हेमा मालिनी, जया बच्चन, जया प्रदा, रेखा आदि महिलाओं को जगह मिली मगर उनकी उपस्थिति कितनी सार्थक रही ये भी विचारणीय है। इन हस्तियों में न तो राजनीति की समझ ही रही और न समाज कल्याण से सरोकार। ऐसे मौकापरस्त कुछ भी हो सकते हैं नेता नहीं। इन सभी महिलाओं को मात्र डमी के रूप में प्रयोग किया गया ताकि जनता को डायवर्ट/भ्रमित किया जा सकें।
Where do outspoken girls been tolerated in any area of society?
वैसे तो मुखर लड़कियां समाज में किसी क्षेत्र में भी किसी को बर्दाश्त ही कहाँ होती हैं। स्व. इंदिरा गांधी, ममता बनर्जी, स्व. जय ललिता, स्व. शीला दीक्षित, सोनिया गांधी, सुषमा स्वराज ऐसी महिलाएं हैं जिन्होंने राजनीति के क्षेत्र में अपना लोहा मनवाया हैं। मुखर और सामाजिक सरोकार वाली महिलाओं को इस क्षेत्र में आना होंगा जो अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर आकर यथार्थ में काम कर सकें।
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राजनीति में ऐसी महिलाओं का होना बेहद ज़रूरी है जो राजनीति/कूटनीति की न सिर्फ समझ रखती हैं बल्कि जो अपनी बात पुख्तगी से रखने का हुनर भी जानती हैं और जिनका रिमोट कंट्रोल किसी अन्य व्यक्ति के पास न हो, जिनकी अपनी सोच अपनी आइडोलॉजी हो।
दोषारोपण से कुछ नहीं होगा, आगे तो आना ही होगा वरना तो फेस वैल्यू के लिए किसे भी टिकट बांटो क्या फर्क पड़ना है। भारत देश में लोकतंत्र की खूबसूरती के साथ एक पहलू ये भी है कि यहां पुरूष नेता भी यूँही लहर के चलते बिना योग्यता के चुन ही लिए जाते हैं।
सफ़र ओर संघर्ष लम्बा है प्रयास किया तो मंजिल दूर नहीं। इसके लिए संवैधानिक सोच विकसित कर महिलाओं को आगे आना ही होगा ताकि आधी आबादी कहलाई और गिनी जाने वाली देश की महिलाओं को पूर्ण अधिकार मिल सकें। आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी भारत की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी का कम होना और महिलाओं के प्रतिनिधित्व या राजनीतिक वर्ग का भेदभावपूर्ण रवैया चिंताजनक विषय है। अफसोस है कि इस मुद्दे पर खुले मंच से आज भी कोई आवाज़ नहीं आती।
नगीना खान