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न्यूजक्लिक के संपादक प्रबीर पुरकायस्थ (Newsclick editor Prabir Purkayastha) अपनी इस टिप्पणी में बता रहे हैं कि मुद्रास्फीति से लेकर कोविड-19 से मौतों तक मोदी सरकार के सामने विश्वसनीयता का संकट है। लेकिन भारत की साख के लिए यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि वह डब्ल्यूएचओ के 194 सदस्य देशों में अकेला ऐसा देश है, जिसने इस वैश्विक स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट को ठुकराया है।
WHO Report on COVID-19 Excess Deaths: Modi Government’s Attempt to Shoot the Messenger
भारत सरकार ने महामारी के वर्षों के दौरान, कोविड-19 से अतिरिक्त मौतों के विश्व स्वास्थ्य संगठन के आकलन पर विचार करने से ही इंकार कर दिया और वह इस पर बजिद है कि कोविड-19 से हुई मौतों की गणना (Counting of deaths due to Covid-19) के लिए, सिर्फ भारत के सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के आंकड़ों का ही उपयोग किया जाना चाहिए। यह सब देखने में ही अजीब लगता है।
आख्यान प्रबंधन का एक और मोर्चा (Another front of narrative management). क्या डब्ल्यूएचओ ने भारत के साथ सौतेला व्यवहार किया ?
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अतिरिक्त मौतों के अपने अनुमान, एक सिरे से लगाकर सभी देशों के लिए तैयार किए हैं। यूके तथा अमरीका जैसे देशों के मामले में भी, जहां जन्म-मृत्यु रजिस्ट्रेशन की व्यवस्थाएं, जो भारत की तुलना कहीं बहुत मजबूत हैं, विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट दिखाती है कि कोविड के दौरान अतिरिक्त मौतों की संख्या, कोविड-19 की रजिस्टरशुदा मौतों से कहीं ज्यादा है। जाहिर है कि ऐसा तो नहीं है कि इस तरह की मेहनत के लिए, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत को ही छांटकर चुना हो। लेकिन, भारत ऐसा अकेला ही देश है जो कोविड-19 के दौरान अतिरिक्त कोविड मौतों के लिए किसी भी तरह की मॉडलिंग का विरोध कर रहा है।
तब क्या यह इस सरकार के ‘आख्यान प्रबंधन’ की ही एक और मिसाल है, जिस चीज में मोदी सरकार को खास महारत हासिल है?
इंडियन एक्सप्रैस (10 मई 2022) में अनीशा दत्ता की रिपोर्ट{ Anisha Dutta reports in The Indian Express (10 May 2022) } बताती है कि वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार, संजीव सान्याल ने 2020 में भारत की ऋण रेटिंग गिरकर कचरे के स्तर पर पहुंच जाने के खतरे के सामने 36 स्लाइडों का एक प्रेजेंटेशन पेश किया था--‘भारत की संप्रभु रेटिंग को प्रभावित करने वाले मनोगत कारक : इस संबंध में हम क्या कर सकते हैं।’
प्रबंधन में प्रयोग की जानी वाली लफ्फाजी को हटाकर देखें तो वह बुनियादी तौर पर इसी की वकालत कर रहे थे कि रेटिंग को सुधारने के लिए ‘छवि को टीम-टाम कर के सुधारा जाए’, चाहे वास्तविक आंकड़े हालत के खस्ता होने की ही कहानी क्यों नहीं कर रहे हों।
वैसे तो कोविड की अतिरिक्त मौतों के आकलन की विश्व स्वास्थ्य संगठन की कोशिश के संबंध में मीडिया में काफी व्यापक पैमाने पर रिपोर्टिंग हुई है, फिर भी हम यहां संक्षेप में उसके व्यापक निष्कर्षों को रखना चाहेंगे।
क्या कहते हैं कोविड की अतिरिक्त मौतों के आकलन पर डब्ल्यूएचओ के निष्कर्ष
पहले, एक नजर इस रिपोर्ट के कुंजीभूत वैश्विक निष्कर्षों पर डाल ली जाए:
* विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2020 तथा 2021 के लिए हर एक देश में अतिरिक्त कोविड मौतों की गणना की है।
* भारत, रूस, इंडोनेशिया, अमरीका तथा ब्राजील में, सबसे ज्यादा अतिरिक्त मौतें हुई हैं।
* हर एक लाख की आबादी पर मौतों के मामले में भारत की दर बहुत ज्यादा भी नहीं है और मोटे तौर पर भारत के मामले में यह दर रूस, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील, रूस, तुर्की आदि के स्तर पर ही है।
इन निष्कर्षों का संक्षेपण करें तो, विश्व स्वास्थ्य संगठन की यह मेहनत हमें इस निष्कर्ष पर ले जाएगी कि इस महामारी से निपटने के मामले में भारत का कुल मिलाकर प्रदर्शन ऐसा बहुत खराब भी नहीं रहा है। इस मामले में भारत का प्रदर्शन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया आदि, मध्यम आय श्रेणी के बड़े देशों के और अमरीका जैसे कुछ धनी देशों के भी समकक्ष ही बैठता है। लेकिन, जिस चीज में भारत दूसरे इन सभी देशों से बहुत अलग दिखाई देता है, वह है कोविड-19 से सरकार द्वारा घोषित मौतों और विश्व स्वास्थ्य संगठन के अतिरिक्त मौतों के आंकड़े का अनुपात। इसका मतलब यह है कि इस सरकार ने कोविड-19 से हुई मौतों को बहुत गंभीर पैमाने पर, कम कर के गिना है।
डब्ल्यूएचओ के निष्कर्ष पर भारत सरकार की आपत्ति क्या है?
कोविड-19 की अतिरिक्त मौतों की गणना की विश्व स्वास्थ्य संगठन की इस पूरी प्रक्रिया पर भारत सरकार की प्रतिक्रिया यही रही है कि अतिरिक्त मौतों के आकलन के लिए विश्व संगठन को किसी भी तरह की मॉडलिंग का सहारा लेना ही नहीं चाहिए था और भारत के सिलसिले में कोविड-19 की मौतों के इकलौते प्रामाणिक आकलन के तौर पर, उसे सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (सीआरएस) के आंकड़ों का ही सहारा लेना चाहिए था। लेकिन, जैसा कि अनेक विशेषज्ञों ने ध्यान दिलाया है, इस दलील की तो कोई तुक ही नहीं बनती है।
वास्तव में 2020 के लिए सीआरएस के आंकड़े, विश्व स्वास्थ्य संगठन के अपने नतीजे जारी करने के दो दिन पहले ही आए थे और 2021 के आंकड़े तो अब तक नहीं आए हैं। इन हालात में भारत सरकार के आग्रह को गंभीरता से लेने का तो मूलत: यही अर्थ होता कि अतिरिक्त मौतों का कोई अध्ययन किया ही नहीं जाता।
मोदी सरकार का रुख अजीब क्यों है?
इस तरह का रुख इसलिए भी अजीब लगता है कि मोदी सरकार वैसे तो बड़े शौक से मॉडलिंग का सहारा लेती आयी है। बस वह इस मॉडलिंग का सहारा यही दिखाने के लिए करती रही है कि उसने कितनी कुशलता से कोविड-19 महामारी की चुनौती को संभाला है। और यह भी कैसे भारत सरकार का ‘सुपर मॉडल’ दिखाता था कि भारत जल्द ही कोविड-19 की पकड़ से छूट जाने वाला था, आदि।
याद रहे कि सुपर मॉडल के आधार पर यह दावा, 2021 में भारत में डेल्टा वेरिएंट आने से ठीक पहले किया जा रहा था। यह वही लहर थी जिसमें हमारे देश में अस्पतालों की तथा ऑक्सीजन की आपूर्ति की व्यवस्था करीब-करीब बैठ ही गयी थी। तब क्या इस सरकार की दलील यह है कि सिर्फ उन्हीं मॉडलों का प्रयोग किया जाना चाहिए, जो सब कुछ अच्छा-अच्छा दिखाएं और ऐसे किसी मॉडल का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए, जो सरकार को अप्रिय लगने वाली सचाइयों को सामने लाता हो।
क्या हैं महामारी की अतिरिक्त मौतें?
विश्व स्वास्थ्य संगठन के नतीजों में जाने से पहले, यह समझ लेना जरूरी होगा कि ‘अतिरिक्त मौतों’ का क्या अर्थ है (What is meant by 'extra deaths') और इस आंकड़े का अनुमान लगाना क्यों जरूरी है?
किसी भी महामारी के दौरान, अतिरिक्त मौतें वे मौतें होती हैं जिन्हें सरकारी एजेंसियों द्वारा तो महामारी से हुई मौतों के रूप में नहीं गिना जाता है, लेकिन जो महामारी के प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभावों के चलते ही होती हैं। कोविड-19 के मामले में इसमें ऐसी अतिरिक्त मौतें आ सकती हैं जो मौत के रूप में दर्ज ही नहीं की गयी हों या कोविड-19 से मौत के रूप में दर्ज नहीं की गयी हों, जैसा खासतौर पर महामारी की तेज लहर के दौरान हुआ हो सकता है। इसके अलावा इसमें ऐसी अतिरिक्त मौतें भी शामिल हो सकती हैं जो लोगों के रोजमर्रा की स्वास्थ्य देखभाल के टाले जाने या स्वास्थ्य एजेंसियों के अपना ज्यादा ध्यान कोविड-19 पर ही केंद्रित करने के चलते, सामान्य टीकाकरण, टीबी का इलाज, आदि के अनदेखा रह जाने से हुई हों। इन अतिरिक्त मौतों की गणना, महामारी के बिना यानी महामारी से पहले की मौत के आंकड़े और महामारी के दौरान हुई कुल मौत के अनुमान के अंतर के आधार पर की जाती है।
मॉडलिंग तथा जैव-सांख्यिकी के विशेषज्ञ, प्रोफेसर गौतम मेनन यह भी बताते हैं कि ऐसी किसी भी कोशिश में परोक्ष कारकों, जैसे सड>k दुर्घटनाओं, चिकित्सा सहायता मिल पाने में सामान्य कठिनाइयों, आदि के प्रभाव को निकालकर ही हम, महामारी के चलते ही अतिरिक्त मौतों का ठीक-ठीक अनुमान लगा सकते हैं।
जिन देशों में मृत्यु पंजीकरण की व्यवस्था अन्यथा भी काफी मजबूत है, वहां भी हम अतिरिक्त मौतों का आकलन क्यों करते हैं (Why assess additional deaths?)? और क्या वजह है कि ऐसे देशों में भी अतिरिक्त मौतों के आंकड़े काफी ज्यादा बैठते हैं?
कोविड-19 महामारी से हुई मौतों को घटाकर गिनने के मामले में भारत अकेला ही नहीं है। बेशक, अमरीका तो इस मामले में दूर से ही दिखाई देने वाली एक मिसाल है, जो अपने यहां अति-कुशल स्वास्थ्य व्यवस्था होने की शेखी बघारता है और कोविड-19 के मामले में उसका प्रदर्शन, सबसे खराब की श्रेणी में रहा है।
अतिरिक्त मौतें : दुनिया और भारत
पूरी दुनिया के लिए भी और भारत के लिए भी, अतिरिक्त मौतों के विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान क्या हैं?
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट का अनुमान है कि 2020 तथा 2021, दो वर्षों में कोविड-19 से दुनिया भर में लगभग 1 करोड़ 49 लाख मौतें हुई हैं और इनमें करीब 47 लाख मौतें भारत में ही हुई हैं। लेकिन, भारत सरकार का इन्हीं दो वर्षों में कोविड-19 से कुल 4 लाख 80 हजार मौतों का अनुमान है।
दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में कोविड-19 से मौतों का विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान, भारत सरकार के आंकड़े से दस गुना ज्यादा है।
तो क्या भारत में कोविड-19 से मौतों का विश्व स्वास्थ्य संगठन का यह आकलन, दूसरे विभिन्न ग्रुपों द्वारा लगाए गए अनुमानों की तुलना में बहुत ज्यादा है?
प्रोफेसर मेनन का कहना है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े, इसी प्रकार के अन्य आकलनों के आंकड़ों से बहुत दूर नहीं हैं। ये आंकड़े 20 लाख से 60 लाख तक मौतों के यानी सरकारी आंकड़े के 4 से 12 गुने के दायरे में ही हैं। अमरीका के मामले में भी, जो कहीं बहुत बेहतर जन्म-मृत्यु पंजीकरण की व्यवस्था का दावा करता है, विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार अतिरिक्त मौतों का आंकड़ा, सरकारी आंकड़े से तीन गुना ज्यादा है।
तब क्या वजह है कि भारत ऐसा अकेला देश है जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों पर विवाद खड़ा कर रहा है? इतना ही नहीं, इस पर जिरह करने के बजाए कि कोविड-19 से अतिरिक्त मौतों के इस आकलन के पीछे विश्व स्वास्थ्य संगठन का रुख क्यों दोषपूर्ण है, भारत सरकार ने तो कोविड-19 की मौतों के आकलन में मॉडलिंग का सहारा लिए जाने पर ही हमला बोल दिया है। इसकी वजह तो यही लगती है कि यह सरकार, इस तरह की प्रक्रिया को खारिज करने के पक्ष में कोई सुसंगत तर्क देने में ही असमर्थ है और शायद यह भी कि उसे इसका एहसास है कि किसी भी स्वतंत्र रुख से किया जाने वाला आकलन, कोविड-19 की मौतों के भारत के सरकारी आंकड़े में मौतें बहुत ही कम कर के गिने जाने को ही उजागर करेगा।
महत्वपूर्ण रूप से विश्व स्वास्थ्य संगठन का आकलन या अतिरिक्त मौतों के आकलन के लिए किसी भी मॉडल के उपयोग की दूसरी हर एक कोशिश भी यही दिखाते हैं कि सबसे ज्यादा अतिरिक्त मौतें इस महामारी की पिछली दो लहरों के दौरान ही हुई थीं और उसमें भी खासतौर पर 2021 में डेल्टा वैरिएंट की लहर के दौरान।
स्वतंत्र आकलन हो अतिरिक्त मौतों का
अपने अनुभव से और इस दौर की अखबारों की खबरों से हमें जो जानकारी पहले से है, ये नतीजे उससे भी मेल खाते हैं। इस दौर में कई प्रमुख शहरों में, सरकार के आंकड़े के हिसाब से कोविड-19 से मौतों की संख्या और कोविड-19 के प्रोटोकॉलों का पालन करते हुए किए गए वहां कफन-दफन तथा अंत्येष्टियों की संख्या में, उल्लेखनीय अंतर पाया गया था। और यह कहानी तो बड़े शहरों व कस्बों की थी। जैसा कि हम जानते ही हैं, ग्रामीण इलाकों में स्थिति और भी बदतर थी। कितनी ही लाशें तो गंगा में बहा दी गयीं क्योंकि उनका समुचित तरीके से कफन-दफन करने या अंत्येष्टि करने के लिए लोगों के पास पैसे ही नहीं थे। ऐसे में यह दावा करना या उम्मीद करना, जिसका दावा सरकार कर रही है, कि इस दौर में मौतों को सही तरीके से दर्ज किया गया होगा, मूर्खता की पराकाष्ठा ही है।
अगर सरकार यह चाहती है कि उसके इस दावे को गंभीरता से लिया जाए कि विश्व स्वास्थ्य संगठन का रुख दोषपूर्ण है, तो उपयुक्त रास्ता तो यही बनता है कि अतिरिक्त मौतों के आकलन के लिए एक कमेटी गठित की जाए, जिसमें समुचित साखसंपन्न लोगों को रखा जाए और जिसमें अंतर्राष्ट्रीय भागीदारी भी हो। सारी जानकारियां इस समिति को सौंप दी जाएं और यह कमेटी खुद ही तय करे कि कोविड-19 से हुई अतिरिक्त मौतों का आकलन किस तरह से किया जाए और यह कमेटी सरकार से स्वतंत्र रूप से काम करे। इस तरह पारदर्शी प्रक्रिया, तमाम डेटा उपलब्ध कराने और आकलन की पद्धति पर सार्वजनिक बहस से, अंतत: एक भरोसे के लायक रिपोर्ट सामने आएगी। इसके बजाए, भारत सरकार तो विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट पर हमले पर हमले करने में ही लगी हुई है। भारत की साख के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वह विश्व स्वास्थ्य संगठन के 194 सदस्य देशों में अकेला ऐसा देश है, जिसने इस विश्व संगठन की रिपोर्ट को ठुकराया है।
मोदी सरकार का तरीका तो यही है कि पहले तो आख्यान को ही अपने हिसाब से मोड़ने की कोशिश करो। अगर यह कोशिश सफल न हो तो, संदेशवाहक का ही मुंह बंद करने की कोशिश करो। लेकिन, समस्या यह है कि अगर ये दोनों ही तरीके नाकाम हो जाएं तब क्या?
विश्वसनीयता का यही संकट है जो मुद्रास्फीति से लेकर कोविड-19 की मौतों तक, कितने मामलों में इस सरकार के सामने आकर खड़ा हो गया है।
(न्यूजक्लिक में प्रकाशित लेख का किंचित् संपादित रूप साभार)