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हमारा चैन छीन रहे हैं मार्केटिंग गुरू (Marketing gurus are taking away our peace)
भारत वर्ष ही नहीं, दुनिया भर में फैले भारतीय आज खुशी-खुशी दीवाली मना रहे हैं पर आप सब को दीवाली की शुभकामनाएं (Happy Diwali) देते हुए मेरे विचार गड्डमड्ड हुए जा रहे हैं।
सच यह है कि आज हम बेहोशी की हालत में जिये जा रहे हैं। मार्केटिंग गुरू हमारा चैन छीन रहे हैं और हम ईष्या और गलाकाट प्रतियोगिता के ऐसे युग में हैं कि झूठी शानो-शौकत और दिखावा ही जीवन हो गया है। "तेरी साड़ी, मेरी साड़ी से सफेद क्यों?" की ईर्ष्याभरी भावना में डूबकर हम अपना ही नुकसान कर रहे हैं और अपने बच्चों को पैसे और खिलौने तो दे रहे हैं पर साथ ही उन्हें अकेलेपन और उपेक्षा का ऐसा वातावरण दे रहे हैं जहां वे स्वयं को असुरक्षित और असहाय पाकर ऐसी दुनिया की शरण में जा रहे हैं जिसकी बंद गली का आखिरी दरवाज़ा जेल में खुलता है।
मैं जो कहना चाहता हूं, उसका कुछ और खुलासा करने से पहले, आइये, ब्रिटेन से आई एक खबर पर नज़रसानी करते हैं।
"नेचर स्कूल" क्यों जा रहे हैं उत्तरी लंदन के बच्चे?
Admissions are increasing in uk forest schools parents are sending their children to nature school so that they become emotionally and physically strong by staying away from gadgets.
उत्तरी लंदन में लोगों ने अपने बच्चों को "नेचर स्कूल" भेजना शुरू कर दिया है। यह बहुत तेजी से बढ़ रहा है। ऐसे स्कूलों में बच्चे पूरी तरह प्रकृति से जुड़ते हैं। मिट्टी में खेलते हैं। आंख मिचौली जैसे खेल हो रहे हैं। इस तरह के स्कूलों में कोई भी इलेक्ट्रोनिक गैजेट नहीं आने दिया जा रहा है, जिससे प्रकृति से जुड़ते रिश्ते बढ़ रहे हैं और बच्चे अपने को बहुत तरोताज़ा महसूस कर रहे हैं, उनकी कल्पनाशक्ति बढ़ रही है। ये बच्चे लकड़ी व अन्य प्राकृतिक संसाधनों से रोज़मर्रा के उपयोग की वस्तुएं बना रहे हैं या उन्हें बनाना सीख रहे हैं। जापानी बच्चे अलोहा की ताकत (The Power of Aloha) से "मैंटल मैथ" में पारंगत (Proficient in "Mental Math") हुए हैं और बिना किसी कैलकुलेटर के ही गणित के बड़े से बड़े सवाल हल कर लेते हैं।
Kilkari Bihar Bal Bhawan (किलकारी बिहार बाल भवन)
"किलकारी" नाम का बिहार बालभवन सोलह वर्ष से अधिक आयु वाले बच्चों को प्रशिक्षित करता है और यहां के बच्चे देश की नामी फिल्मों, टीवी शो में भी आ चुके हैं तथा उनके बारे में राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में लिखा गया है।
"किलकारी" के पास साधन, सुविधाएँ, पैसे, किसी चीज की कोई कमी नहीं है। बावजूद इसके यहां इन प्रशिक्षण-प्राप्त बच्चों के विदाई समारोह में जमीन पर बैठाकर पत्तल पर बिल्कुल पहले के गाँव-घर की तरह खाना परोसा और खिलाया गया, और अंत में दही-चीनी भी दी गई। खिलाने वाले प्रशिक्षकों, अधिकारियों, स्टाफ और बच्चों ने डटकर खाया। पांच सितारा होटलों में गांव का दृष्य बनाकर खाना खिलाना फैशन है।
हमारे गांवों से गांव की संस्कृति क्यों गायब हो रही है?
कार्पोरेट कंपनियों में उत्सव का माहौल बनाने के लिए कृत्रिम कुंए बनाकर, चारपाइयां बिछाई जाती हैं लेकिन हमारे गांवों से गांव की संस्कृति गायब है। जिस तरह कोरोना महामारी के समय कुछ देर के लिए हमारा प्रकृति प्रेम (nature love) जागा था, वह प्रकृति प्रेम था ही नहीं, एक सोडावाटरी उबाल था जिसकी झाग जल्दी ही खत्म हो गई।
ड्रग्स मामले में गिरफ्तारी के बाद आर्यन खान (Aryan Khan arrested in drug case) ने कहा कि पापा इतने व्यस्त हैं कि उनसे मिलने के लिए भी एप्वांयटमेंट लेना पड़ता है।
आर्यन खान को परवरिश ही ऐसी मिली है कि अंधाधुंध पैसा, नौकर-चाकर, खिलौने और सुविधाएं तो बहुत हैं लेकिन मां-बाप का तसल्ली देने वाला साथ बहुत कम नसीब है। यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि मां-बाप और दादा-दादी का निश्छल प्यार बच्चे को जो सुरक्षा और आत्मविश्वास देता है, आर्यन उससे वंचित रहा है। पैसे की दौड़ में हम लोगों ने पेरेंटिंग भी आउटसोर्स कर दी है, और अपने बच्चों को खिलौनों, ट्यूटरों और नौकरों के भरोसे छोड़ दिया है।
तकनीक की प्रगति के साथ हम खुद से दूर होते जा रहे हैं (With the advancement of technology we are getting away from ourselves)
तकनीक की प्रगति के साथ हम आगे बढ़ रहे हैं, प्रगतिशील हो रहे हैं पर खुद से दूर होते जा रहे हैं। शायद यही कारण है कि भविष्य की आवश्यकताओं के मद्देनज़र फेसबुक की जगह अब मेटा आ गया है जिसका लक्ष्य मेटावर्स की आभासी दुनिया को असल दुनिया से जोड़ना है। यह तैयारी है एक पूरी आभासी दुनिया, यानी, "वर्चुअल वर्ल्ड" बनाने की जिसमें सब कुछ असल दुनिया जैसा दिखेगा और इंटरनेट के ज़रिये हम इस आभासी दुनिया में घूमने, सामान खरीदने से लेकर अपने दोस्तों-रिश्तेदारों से मिलने जुलने तक सारे काम कर सकेंगे। यानी, असल दुनिया के अकेलेपन को, तन्हाई को खत्म करने के लिए नकली दुनिया का सहारा। समय ही बताएगा कि समाज पर इसका असर क्या होगा?
Competition has increased, insecurity has increased
प्रगति, प्रतियोगिता और फैशन की दौड़ में हमने जो जीवन अपनाया है वह बहुत खर्चीला है। उसके कारण प्रतियोगिता और बढ़ी है, असुरक्षा और बढ़ी है, लालच और बढ़ा है और जीवन भागमभाग का पर्याय बनकर रह गया है। यहां सुख है, सुविधा है, तकनीक है, सजावट है पर खुशी नहीं है। कभी हम प्रोमोशन को खुशी मान लेते हैं, कभी बड़ी कार को खुशी मान लेते हैं और कभी बड़े मकान को खुशी मान लेते हैं लेकिन जल्दी ही जब वो रुटीन बन जाता है तो उनसे खुशी मिलनी बंद हो जाती है। सुविधा बनी रहती है पर खुशी गायब हो जाती है क्योंकि खुशी सामान में नहीं है, खिलौनों में नहीं है, साथ खेलने वालों में है।
बच्चों के खिलौनों की ही तरह हम बड़ों ने भी अपने खिलौने चुन लिए हैं, बड़ा घर, बड़ी कारण बढ़ता बिजनेस, अगली प्रोमोशन आदि हम बड़ों के खिलौने हो गये हैं। समस्या यह है कि इनमें खुशी का अस्थाई आभास तो है, स्थाई खुशी नहीं है, सस्टेनेबल हैपीनेस नहीं है।
Success Driven by Happiness
आज हम "सक्सेस ड्रिवेन बाई हैप्पीनेस", यानी, खुशियों भरी सफलता का मंत्र छोड़कर सुख और सुविधा को खुशी मानने की गलती कर रहे हैं और उसी का परिणाम यह है कि हम समाज को आर्यन खान सरीखे बच्चे दे रहे हैं जो देखने में "डैशिंग" हैं पर जो मन से बहुत असुरक्षित हैं, अकेले हैं, तन्हा हैं। मैं न ड्रग्स की तरफदारी कर रहा हूं, न ड्रग्स लेने वालों की। मैं तो यह चेतावनी देना चाहता हूं कि पेरेंटिंग को आउटसोर्स करके, बच्चों के पालन-पोषण का काम ट्यूटरों और नौकरों के भरोसे छोड़कर हम अपने बच्चों का भविष्य बर्बाद कर रहे हैं। आर्यन खान तो सिर्फ एक उदाहरण है। फिल्मी दुनिया में ही संजय दत्त का उदाहरण हमारे सामने है जो गहरे नशे की गिरफ्त में था और लंबे इलाज व रिहैबिलिटेशन के बाद उस गिरफ्त से निकल पाया। भाजपा नेता स्वर्गीय प्रमोद महाजन का बेटा राहुल महाजन भी इसी कमी का शिकार होकर नशेड़ी हो गया था। इसलिए इसे किसी एक धर्म या किसी एक परिवार से जोड़कर देखने के बजाए हमें यह समझना चाहिए कि यह एक ऐसी समस्या है जो हमारे देश में जड़ें जमाती जा रही है और हमें अपने बच्चों को, अपने देश के भविष्य को इससे बचाना है।
क्या धन की आवश्यकता को नकारा जा सकता है? हमारे दैनिक जीवन में पैसे का महत्व क्या है?, क्या पैसा जीवन के लिए सबसे उपयोगी है?
धन की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता। सुख-सुविधा भरा जीवन जीना कतई बुरा नहीं है। लेकिन पैसे की अंधाधुंध दौड़ तब बुराई बन जाती है जब हम पैसे के लिए अपने परिवार की, अपनी सेहत की और यहां तक कि खुद की उपेक्षा करना शुरू कर देते हैं। हमें इसी से बचना है।
पी. के. खुराना
लेखक एक हैपीनेस गुरू और मोटिवेशनल स्पीकर हैं।
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