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कोरोना में सांप्रदायिक विकार : भारत में दुहरी मार, कोरोना से ज्यादा घातक नफरत का वायरस

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hastakshep
15 Apr 2020
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हम मिडिल क्लास घर में बैठ कर पर्यावरण का आनंद ले रहे लेकिन लॉकडाउन ने करोड़ों मज़दूरों की आजीविका को संकट में डाल दिया है

कोरोना के खिलाफ देश की लड़ाई को इतने साफ तौर पर कमजोर क्यों किया जा रहा है?

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Why is the country's fight against Corona being so clearly weakened?

कोरोना के संकट का सचेत तरीके से संप्रदायीकरण किया जा रहा है (The crisis of Corona is being communalized in a conscious manner.)। सीधे-सीधे कहें तो उसे ‘‘मुस्लिम खतरा’’ (Muslim menace) बल्कि ‘‘मुस्लिम हमला’’ ही बनाने की, संगठित तरीके से कोशिश की जा रही है। इसमें अगर किसी शक की गुंजाइश रही भी हो तो कम से कम अब वह भी खत्म हो जानी चाहिए, जब इन कोशिशों के नतीजे कानून और व्यवस्था की ऐसी समस्याओं के ठोस रूप में सामने आने शुरू हो चुके हैं, जिन पर संकट के इस दौर में पुलिस तथा प्रशासन पर बढ़ती ताकत लगानी पड़ रही है। इनमें पहली श्रेणी में उत्तराखंड समेत देश के कई हिस्सों में गांवों के बाहर बाकायदा मुसलमानों के तथा खासतौर पर मुसलमान फेरीवालों आदि के प्रवेश पर पाबंदी के नोटिस लगाए जाने या कर्नाटक के एक गांव में पंचायत द्वारा बाकायदा डोंगी पिटवाकर ऐसी मुनादी कराए जाने जैसे मामले शामिल हैं।

Post the massacre of Gujarat, there were Posters "Welcome to the Hindu nation".

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याद रहे कि ऐसे मामलों की संख्या कोई थोड़ी नहीं है और निश्चित रूप से बढ़ रही है। यह अनिष्टकर तरीके से, 2002 के शुरू के गुजरात के नरसंहार के बाद वहां जगह-जगह लगाए गए ‘‘हिंदू राष्ट्र में आप का स्वागत है’’ के बोर्डों और छपवाकर बड़े पैमाने पर बांटे गए मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार के पर्चों की याद दिलाता है।

इसमें राजधानी दिल्ली तक में एक मोहल्ले में बाकायदा वहां रहने वालों की बैठक कर, मुसलमान फेरीवालों को धर्म पूछकर भगाने का फैसला लिए जाने जैसे मामले भी शामिल हैं।

राजधानी का उक्त मामला भी शासन की किसी कार्रवाई की वजह से नहीं बल्कि सोशल मीडिया में उक्त बैठक तथा उसके निर्णय पर आधारित जमीनी कार्रवाई का वीडियो वाइरल होने से नोटिस में आया।

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यह भी कोई संयोग ही नहीं है कि राजधानी के ही बाहरी हिस्से में, बवाना में मुस्लिमविरोधी भीड़ हिंसा की एक घटना के साथ इस गोलबंदी की आक्रामकता के अगले चरण की शुरूआत भी हो चुकी है। खुशकिस्मती से लॉकडाउन में जैसे-तैसे मध्य प्रदेश से भागकर दिल्ली पहुंच गया मुस्लिम युवक, अपने गांव के निकट ही पकड़कर ‘‘कोरोना फैलाने के षड़यंत्र’’ का आरोप लगाते एक ग्रुप की कातिलाना पिटाई के बाद भी, जिंदा बच गया, हालांकि शुरू में उसकी हालत देखकर, उसकी पिटाई से मौत की खबरें भी चल गयी थीं। ऐसी हिंसा के भी दूसरे कई मामले खबरों में आए हैं।

Incidents of attacks on Dalits encountered during nationwide lockdown

इन हमलों के संदर्भ में देश में यहां-वहां हुई ‘‘कोरोना फैलाने’’ के आरोप में, पहले एअरलाइन कर्मचारियों तथा दूसरे देशों से आए या लौटे लोगों के साथ और फिर डॉक्टरों व अन्य स्वास्थ्यकर्मियों के साथ, सामाजिक बहिष्कार से लेकर हमलों तक की घटनाओं की याद आना स्वाभाविक है। इसमें अगर हम चाहें तो ‘‘कोरोना’’ के खतरे के ही बहाने से, देशव्यापी लॉकडॉउन के दौरान सामने आयी दलितों पर हमलों की घटनाएं भी जोड़ सकते हैं, जिनमें प्रधानमंत्री के आह्वान पर लॉकडॉउन के दौरान एक शाम नौ मिनट के लिए बिजली बुझाकर दीपक-मोमबत्ती-टार्च जलाने से इंकार करने पर, हरियाणा में एक दलित पर हुए हमले जैसी घटनाएं भी शामिल हैं।

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बेशक, हमलों की ये सभी घटनाएं हमारे भेदभावग्रसित समाज में करुणा की कमी को दिखाती हैं, जो संकट के सामने पीड़ित या कमजोर हैसियत वालों के प्रति दया के बजाए, हिंसकता को सामान्य बनाती है। इसमें भी शक नहीं कि इस हिंसकता को हिंदुत्ववादी राजनीति के ‘‘खतरे’’ के आख्यानों और ‘‘युद्ध’’ के आह्वानों ने और संगठित बनाने के साथ-साथ, अपने विस्तार में और ज्यादा व्यापक तथा और ज्यादा समान्य व स्वीकार्य बना दिया है। इस सचाई को हमने लॉकडॉउन के बाद महानगरों से उजड़ कर अपने गांवों के लिए पलायन करने के लिए मजबूर हो गए प्रवासी मजदूरों के प्रति निर्मम उदासीनता से लेकर नफरत तक में बखूबी देखा है। फिर भी, कोरोना के खतरे को ‘‘मुस्लिम खतरे’’ में बदलने का उद्यम, एक गुणात्मक रूप से भिन्न और कई गुना खतरनाक मामला है।

इस मुहिम के पीछे कितनी बड़ी ताकत है, इसका अंदाजा सोशल मीडिया पर चल रही झूठ के प्रचार की आंधी की मामूली सी भी जानकारी रखने वालों को भी होगा।

बहरहाल, झूठ और सांप्रदायिक दुष्प्रचार की यह मुहिम इसलिए और भी मारक हो गयी है कि केंद्र में नरेंद्र मोदी के और अनेक राज्यों में भी भाजपा के राज के पांच साल से ज्यादा में, मीडिया और खासतौर पर खबरिया टेलीविजन चैनलों का बढ़ता हिस्सा, अलग-अलग हद तक, इस मुहिम का औजार बनता गया है। नौबत कहां पहुंच गयी है इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि कोराना से लड़ने के लिए देशव्यापी लॉकडॉउन के दौरान ही और किसी को भी नहीं बल्कि प्रशासन तथा पुलिस तक को, समाचार चैनलों का नाम लेकर उनके सांप्रदायिक झूठ को झूठ कहना पड़ा है। सिर्फ दो उदाहरण देना काफी होगा।

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मोदी शासन की विशेष कृपाप्राप्त, समाचार एजेंसी एएनआई ने जब नोएडा में हरोड़ा में प्रशासन द्वारा संक्रमण संभावितों के लिए क्वारंटीन की व्यवस्था शुरू किए जाने को झूठे ही जब तब्लीगी जमात के लोगों से फैले संक्रमण से जोड़ दिया, नोएडा के डीसीपी को बाकायदा बयान जारी करना पड़ा कि समाचार एजेंसी ने इस मामले में झूठे जमात का नाम जोड़ा था और अपने झूठ को चलाने के लिए पुलिस का झूठा हवाला दिया था।

तब्लीगी जमात के ही संबंध में फेक न्यूज के ऐसे ही एक और मामले में, जी न्यूज ने जब अरुणाचल में 11 जमाती कोरोना पॉजिटिव पाए जाने का दावा किया, राज्य के सरकारी ट्विटर हैंडल को खंडन करते हुए कहना पड़ा कि यह खबर फर्जी थी और राज्य में तब तक कुल एक व्यक्ति कारोना पॉजिटिव पाया गया था।

और यह सिर्फ या मुख्यत: एनएनआइ या जी न्यूज जैसे या रिपब्लिक टीवी या टाइम्स नाऊ जैसे कुख्यात रूप से मोदी-भक्त समाचार माध्यमों का मामला नहीं है। तब्लीगी जमात से जुड़े प्रकरण का सहारा लेकर चलायी गयी कोरोना के हमले को इस्लामी टोपी पहनाने की मुहिम को मुख्यधारा में लाने में जाने-अनजाने इंडिया टुडे जैसे समाचार संस्थान भी आंकड़ों के इसके खेल से शामिल हो गए कि भारत में कोरोना पॉजिटिव पाए गए लोगों में, जमात से जुड़े लोगों का अनुपात चौंकाने वाले तरीके से ज्यादा था।

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जाहिर है कि यह संभव ही नहीं है कि इतने बड़े समाचार प्रतिष्ठान को सनसनीखेज सुर्खियां लगाने तथा ग्राफिक चलाने से पहले, इसका ख्याल ही नहीं आया होगा कि दिल्ली में तब्लीगी जमात के मरकज में कोरोना पॉजिटिव मामले पाए जाने के बाद कई दिन तक और देश के विभिन्न हिस्सों में, कोरोना टेस्टिंग मरकज से निकले लोगों तथा देश के विभिन्न हिस्सों में उनके संपर्क में आए लोगों पर ही केंद्रित रही थी।

बेशक, टेस्टिंग की प्राथमिकताओं का ऐसा केंद्रीयकरण, एक व्यावहारिक जरूरत हो सकता था, लेकिन इसे वायरस की चुनौती के संप्रदायीकरण का हथियार बनाना या बनने देना नहीं।

वैसे मोदी राज में इसे भी संयोग मानने के लिए बहुत ज्यादा भोला होने की जरूरत होगी कि तब्लीगी मरकज से जुड़े लोगों के संपर्कों की जैसी सघन तथा तत्पर टैस्टिंग व ट्रेसिंग की गयी और उससे भी बढ़कर उसका प्रचार किया गया, वैसा उसी तरह के दूसरे किसी मामले में नहीं हुआ। मिसाल के तौर पर भिंड में दुबई से लौटे व्यक्ति द्वारा आयोजित मृतक-भोज में शामिल 1,500 लोगों के मामले में, टेस्टिंग की वैसी तत्परता दूर तक नजर नहीं आयी। और लॉकडॉउन के दौरान उत्तराखंड में फंसे 1,800 गुजराती तीर्थयात्रियों को लक्जरी बसों से गुजरात पहुंचाए जाने की तो खबर ही दफन कर दी गयी, फिर ट्रेसिंग, टैस्टिंग वगैरह का तो जिक्र ही क्या करना?

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अचरज नहीं कि खुद केंद्र सरकार की ओर से यह आख्यान प्रचारित किया जा रहा था कि लॉकडॉउन के बाद, कोविड-19 के संक्रमणों की बढ़त पर अंकुश बस लग ही गया था, लेकिन तब्लीगियों ने सारी कोशिशों पर पानी फेर दिया। उत्तर प्रदेश में योगी राज ने तो बाकायदा इसका डंका ही पीट दिया। यहां से कोरोना को मुस्लिम हमले के रूप में प्रचारित करना और मुसलमानों के खिलाफ हमले के हथियार में तब्दील करना, दूर नहीं रह जाता था।

इसने कम से कम दो प्रत्यक्ष अर्थों में कोरोना के हमले के खिलाफ भारत की लड़ाई को कमजोर किया है। पहला तो यही कि इसने मोदी राज में पहले ही बहुत पराए कर दिए गए, देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय में असुरक्षा की भावना बहुत बढ़ा दी है। यह कोरोना से बचाव के प्रयत्नों की मुश्किलें बढ़ा रहा है।

बेशक, हमारे देश में बचाव के इन प्रयासों में लोगों की जागरूकता पर कम और शासन के दमन पर ही ज्यादा भरोसा किया जा रहा है। लेकिन, यह एक असुरक्षित समुदाय के बीच बचाव के प्रयासों को और मुश्किल बना रहा है।

Rajendra Sharma राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं। वह लोकलहर के संपादक हैं। Rajendra Sharma राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं। वह लोकलहर के संपादक हैं।

इंदौर में टाट-बाखल की या बिहार में शबे-बरात पर एक मस्जिद में जमावड़े की जैसी घटनाएं इसी के इशारे हैं।

वास्तव में दक्षिण भारत में, शासन के संवेदनशील रुख के चलते ही, जमात के संपर्कों की जांच का काम उत्तरी भारत के मुकाबले बहुत आसान रहना भी, इसी की पुष्टि करता है। दूसरे, यह बाकी हर ओर खतरे के बिंदुओं की पहचान और रोकथाम के प्रयासों की मुस्तैदी को कमजोर करता है। खुद प्रधानमंत्री के आह्वान पर लॉकडॉउन के दौरान हुए दो विराट आयोजनों में सोशल डिस्टेंसिंग के तकाजों की बड़े पैमाने पर धज्जियां उडऩा, इसी का इशारा करता है।

और कोरोना के खिलाफ देश की लड़ाई को इतने साफ तौर पर कमजोर क्यों किया जा रहा है?

इस संकट के बीच खुलकर दिखाई दे रही, मोदी निजाम की और राज्यों की भाजपा सरकारों की घोर विफलताओं की ओर से, लोगों का ध्यान बंटाने के लिए। इस सिलसिले में सिर्फ एक आंकड़े का जिक्र काफी होगा। अप्रैल के पहले सप्ताह तक, भारत में कुल टैस्टिंग का अनुपात, दस लाख की आबादी पर 102 से ज्यादा नहीं था। जबकि आर्थिक रूप से खस्ताहाल पाकिस्तान में भी यही अनुपात 191 था यानी भारत के मुकाबले करीब दोगुना। भारत में कोरोना वाइरस में सांप्रदायिक विकार, मौजूदा शासन की इसी घोर विफलता को छुपाता और इस प्रयास में इस घातक वाइरस को और घातक बनाता है।

0 राजेंद्र शर्मा

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