राजधानी दिल्ली बहुत दूर है मुझ से, या मैं दिल्ली से। मैं यहाँ सेवाग्राम में हूँ – बापू कुटी के पीछे बसे मेरे नीरव घर में। सेवाग्राम कभी इस देश की जनधानी हुआ करती थी; राजधानी दिल्ली से ज्यादा महत्वपूर्ण। देश का वर्तमान और भविष्य यहीं बनता था। यहां की मिट्टी में आज भी गांधीजी के हाथों की खुशबू है – चरखा चलाने वाले, कुष्ठ रोगी परचुरे शास्त्री के बहते घाव धोने वाले हाथ – उन हाथों का स्पर्श अभी भी यहाँ के कण-कण पर रेंग रहा है। सुबह नींद से जागने पर मुझे सिर्फ पंछियों का कलरव सुनाई देता है।
मेरे घर में टीवी नहीं है। सोशल मीडिया पर पोस्ट पढ़ने से भी कतराता हूं। लेकिन समय-समय पर, दिल्ली मुझ पर आक्रमण कर सब कुछ तहस-नहस कर देती है। काल और अवकाश, वास्तविकता और बुरे सपने, इतिहास और मिथक सभी एक दूसरे में विलीन हो जाते हैं।
देर रात अचानक आश्रम से फोन आता है,
“भाई, इतनी भयानक गंध कहाँ से आ रही है?”
मैं कहता हूं,
“गाँव के बाहर श्मशान में कोई कलेवर जलता होगा। सो जाओ, चिंता मत करो।”
लेकिन आज श्मशान में कोई शव नहीं था, और अब तो हवा भी ठहर सी गयी है, यह मैं जानता हूँ और फोन करने वाला भी।
घिनौना गंध कम नहीं होता। वास्तविक जीवन की, अन्तर्मन में महसूस की हुई वारदाताओं की रील दिमाग में उल्टी-सीधी घूमती हैं। निःशब्द विस्फोट होते रहते हैं। घर जलते हैं, छोटे बच्चे, गर्भवती महिलाएं, युवा और बूढ़े खून से नहाते हैं। कोई किसी का कटा सर त्रिशूल की नोंक पर रख कर पर नाचता है। फिर हर तरफ सन्नाटा… उस जानलेवा शांति में अचानक आवाज़ आती है, मानो थिएटर में बंद साउंड सिस्टम यकायक शुरू हो गयी हो। थके-मांदे बूढ़े हंगल की आवाज में एक अजीब सा सवाल आता है –
“इतना सन्नाटा क्यों है भाई ?“
जनवरी 1993, मुंबई। मेरी बेटी दस साल की है। हम लोकल ट्रेन से घर जा रहे हैं। ट्रेन में लोग हैं, लेकिन कोई आवाज़ नहीं। कोई किसी से बात नहीं करता। किसी निर्वात शून्य में से हम गुज़र रहे हैं। ठाणे स्टेशन आता है, लगता है, हम इन्सानों की बस्ती में लौटे हैं।
हम अगले ही स्टेशन पर – कलवा – उतर कर अपने घर पहुँचते हैं। उस के बाद कई दिनों तक मुंबई आग की लपेटों में झुलसती रहती है। लेकिन ठाणे से परे सब कुछ ठीक-ठाक है। हम सुरक्षित हैं (?)। हमारे घर पर हमला नहीं हुआ, किसी को जलाया नहीं गया। कोई चीख नहीं। लेकिन कई दिनों तक लोकल ट्रेन में सभी सहमे-सहमे से रहते हैं। चार महीने बाद, कॉलेज में एक लैब अटेंडेंट दावा करता है – हमारी चाल के सामने वाली दुकान फोड़ कर हम ने सब कुछ लूट लिया।
मेरी बोहरा सहयोगी पूछती है, ‘वह क्या कह रहा था?’
मैं जवाब टाल देता हूँ। पिछले महीने में उसके बुजुर्ग पिता का उसे पुणे से फोन आया था – ‘ यहाँ सब शांत है, पुणे में कभी गड़बड़ नहीं होती। हाँ, अपने बगल के बंगले वाले ने अपनी दीवार तोड़ कर अपने प्लॉट का कुछ हिस्सा अपने कब्जे में लिया है। लेकिन जाने दो। अपना प्लॉट काफी बड़ा है। अगर थोड़ा सा हिस्सा चला भी गया, तो क्या फर्क पड़ता है? घर तो बरकरार है। वैसे भी अपने को उन के पड़ोस में ही रहना है…’ वह कुछ नहीं कहती। डोंगरी में उसका अपना घर भी सुरक्षित है। आसपास सब मुस्लिम आबादी। हालांकि, उस का अपना कॉलेज, बच्चों के करियर इन को देखते हुए, वह डोंगरी छोड़ लोखंडवाला, अंधेरी में घर लेने की योजना बना रही थी, जो उस ने छोड़ दी है… इन दिनों बाबा आमटे मुंबई आए हुए हैं। हम उन्हें मिलने जाते हैं।
वैसे बाबा के चारों तरफ हमेशा पत्रकारों और प्रशंसकों की भीड़ हुआ करती थी। लेकिन इस बार, कोई जमघट नहीं। बाबा कहते हैं, “मैंने दंगों के खिलाफ पर्चा जो निकाला, उसी का नतीजा है … अब ठीक होने पर भारत जोड़ो अभियान फिर से छेड़ना होगा।” उसके बाद, मराठी मध्यम वर्ग ने बाबा को फिर अपनाया, लेकिन उन की मृत्यु के बाद।
दंगों के बाद, हमने मुंबई में जो भी संभव था, सब किया – अर्थात्, शांति यात्रा, पर्चे बांटना, दंगा पीड़ितों की मदद, दंगों के कारण खोजना, उस पर चर्चा … और कार्यकर्ताओं का प्रिय चिकित्सा कार्य – पोस्ट मार्टम ।
बड़ी होने पर मेरी बेटी ने उन दिनों के बारे में लिखा –
“वह मेरे मोहभंग की शुरुआत थी। तब तक मैं सोचती थी कि मेरे माता-पिता, नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ता और सभी प्रगतिशील कार्यकर्ता, यह कितनी बड़ी फौज है! इन के होते हुए मुंबई में कभी दंगे नहीं हो सकते…!”
कितने मासूम होते हैं बच्चे और कितना यातना मय होता है उन का हम पर और दुनिया की अच्छाई पर रखा भरोसा टूटना … हमें तो बड़े होने के बाद भी यही लगता था कि कामकाजी महानगरी मुंबई में कभी दंगा नहीं हो सकता!
आज भी जब मैं माहिम स्टेशन जाता हूं, तब मेरे दिल की धड़कन पल भर के लिए थम सी जाती है। वहाँ माहिम स्टेशन पर हुए ट्रेन विस्फोट में मारे जाने वालों की याद में एक छोटा स्मारक बनाया गया है, जिस लोकल ट्रेन में विस्फोट हुआ वह मेरी रोज की ट्रेन हुआ करती थी। मेरा रोज का कम्पार्टमेंट भी ‘वो’ही था। ‘उस’ दिन, हालांकि, जब मैं सांताक्रूज़ स्टेशन पहुंचा, तो यकायक मुझे इतनी थकावट महसूस हुई कि मैंने सीढ़ियाँ चढ़ -उतर कर रोज की ट्रेन पकड़ने की मेरी दिन चर्या टाल दी। अन्यथा उस सूची में मेरा भी नाम दर्ज़ होता!
नवंबर 1984. खलिस्तान आंदोलन जब पूरे जोरों पर था, तब उस का साहसपूर्वक विरोध करने वाले एक कार्यकर्ता मुंबई में आए हुए थे। उन्होंने सड़क नाटक के माध्यम से आतंकवाद के खिलाफ कैसा अभियान चलाया, यह दास्तां सुनते-सुनते हम सब भाव विभोर हो गए थे। लेकिन अचानक इंदिरा जी की हत्या की खबर आई और हम ने उन्हें हड़बड़ी में घर लौटने की सलाह दी। सर के बाल काट कर और ट्रेन में बेंच के नीचे चोरी-छिपे कैसे कैसे वे तीन-चार दिनों बाद अपने घर पहुंचे। जब तक उन का संदेशा नहीं आया, किसी की जान में जान नहीं थी। उस वक़्त भी दिल्ली में और देश भर में जो कुछ भी हुआ, उस के बारे में समाचारपत्र खामोश थे।
सन 1947 : पाकिस्तान में हिंदू और सिख, और दिल्ली में मुसलमान, 1984: दिल्ली में सिख, फिर कश्मीर में कश्मीरी पंडित, उसके बाद कश्मीर में कश्मीरी मुसलमान और सैन्यकर्मी …. इसी बीच मुरादाबाद, मुज़फ़्फ़रपुर, 2002 : गुजरात, और अब 2020 की शुरुआत में फिर दिल्ली? प्रतिशोध का यह चक्र थमता क्यों नहीं, बावजूद यह जानने के कि इस से कुछ हासिल नहीं होता?
सुना है दिल्ली में कोई अंकित शर्मा मरा है और कोई मुबारक हुसैन। अतीत में ऐसा हुआ था और अब भी हो रहा है। लेकिन यह समाचार पढ़ने के बाद सैकड़ों मील दूरी पर कलेजा काँपे, ऐसा कभी हुआ नहीं था। हो सकता है कि इस से पहले कोई ‘सी एम’ कानों पर मफलर इतनी कसकर बांधते नहीं थे, कि कोई चीख सुनाई न दे। आँखों के सामने दंगे होते देख हाथ बांध कर खड़ा रहने या हथियारबंद गुंडों को अपने वाहन द्वारा लाना- ले जाने का प्रशिक्षण तब पुलिस को दिया न जाता हो। दंगे को काबू करने में असमर्थ पुलिस कर्मियों पर कार्रवाई करने से उन के मनोबल पर विपरीत असर होगा ऐसा न्यायालय को सुनाने की ‘हिम्मत’ शायद पहले के सॉलिसीटर जनरल को होती नहीं थी। और ऐसे न्यायाधीश का तबादला घंटों में करने की कार्यक्षमता भी पहले वाले प्रशासन में नहीं रही होगी।
रास्ते पर उतर कर दंगे रोकने की हिम्मत रखने वाले नेता कम-से-कम काँग्रेस में एक जमाने में हुआ करते थे। माध्यम तब भी डरपोक और सरकार शरण थे, लेकिन आग में तेल डालने का काम तब नहीं करते थे।
सरकारी अफसर और न्यायाधीशों को तब जान का खतरा नहीं था। अब पूरा देश गोला-बारूद का एक भंडार बन गया है और यह गारंटी देना मुश्किल है कि यह भंडार चिंगारी से दूर रखा जाएगा।

The author is a practitioner and activist of the inter-relation of sociology
ड़र यह है कि हर जगह बोये गए भूसुरंग कैसे और कब फटेंगे यह कोई नहीं बता सकता। आज धरम के नाम पर शिकार को हाँका जा रहा है। कल किसी जाति विशेष, प्रदेश का या स्थानिक/ बाहरी ऐसा नाम लेकर किसी को अकेले या समूह में मारा नहीं जाएगा, यह दावा अब कोई नहीं कर सकता। अध्ययन, नौकरी-धंधा करने घर से बाहर शहर में, दूसरे वतन या परदेस गए अपने बच्चे सुरक्षित रूप से घर आएंगे, इस की अब क्या गारंटी है ?
वास्तव में, अब किसी बाहर वाले से ड़र नहीं लगता; दहशत महसूस होती है अपनों से। पड़ोसी, ऑफिस के सहकर्मी, बचपन के दोस्त, रिश्तेदार, प्याज-लहसुन तक का परहेज करने वाले शाकाहारी दोस्त, साहित्यिक-सांस्कृतिक दायरे में घूमने वाले, (सभी नहीं, बल्कि वे) जो हमें धमकाते हैं कि हमें हर हालत में अपने धर्म की रक्षा करनी चाहिए। धर्म रक्षा के लिए जो कुछ भी किया जाए, वाजिब है।
हर धर्म के ठेकेदार अपना अपना धर्म ‘खतरे में है’ ऐसी गुहार लगाते हैं।
‘हिंसा से दुखी होता है वह हिंदू’ और ‘इस्लाम शांति का दूसरा नाम है’ ये विनोबाजी की व्याख्याएँ वे हरगिज नहीं मानते।
दिल्ली की मिट्टी से गांधीजी के खून की गंध और ‘गोली मारो सालों को’ की ध्वनि आती है।
कुछ दिनों पहले दिल्ली दंगों में 25-30 या 50-60 लोग मारे गए। लेकिन अब तक के दंगों में मारे गए लाखों शवों का अंतिम संस्कार अभी बाकी है। वे हमारे देश के तहखाने में सड़ रहे हैं। उन की बद बू हर जगह आ रही है, इतनी दूर गांधीजी के सेवाग्राम तक । मेरी नींद कब की उड़ गयी है। क्या आप पर अभी भी नींद की गोलियों का असर बरकरार है?
रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ
The author is a practitioner and activist of the inter-relation of sociology
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