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क्या बिहारवासी लॉकडाउन की यंत्रणा को भूल पाएंगे !

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hastakshep
01 Nov 2020
क्या बिहारवासी लॉकडाउन की यंत्रणा को भूल पाएंगे !

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Will Biharis forget the mechanism of lockdown!

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बिना किसी तैयारी के गत 24 मार्च को प्रधानमंत्री मोदी द्वारा महज चार घंटे की नोटिस पर लॉकडाउन की घोषणा किए जाने के बाद देश की सड़कों का खून से रंगे जाने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह इक्कीसवीं सदी की सबसे अमानवीय घटना के रूप में इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया। इसकी घोषणा के दो तीन दिन बाद ही जब मजदूरों को यह इल्म हुआ कि सरकार ने उन्हें राम भरोसे छोड़ दिया है, उसके बाद तो दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, सूरत, पुणे, नासिक, पंजाब और हरियाणा इत्यादि से लाखों की तादाद में नंगे-पांव, भूखे-प्यासे मजदूर अपने बीबी- बच्चों के साथ उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, बंगाल, ओडिशा इत्यादि के सैकड़ों, हजारों कीलिमीटर दूर अवस्थित अपने गाँवों के लिए पैदल ही निकल पड़े। इससे ऐसे-ऐसे मार्मिक दृश्यों की सृष्टि जिसकी 21वीं सदी के सभ्यतर युग में कल्पना भी नहीं की जा सकती। बहुतों को ये दृश्य भारत-पाक विभाजन के विस्थापितों से भी कहीं ज्यादा कारुणिक लगे।

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ताज्जुब की बात है कि लॉकडाउन पूरी दुनिया में ही हुआ किन्तु, किसी भी देश, यहाँ तक कि भारत के पिछड़े प्रतिवेशी मुल्कों पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल इत्यादि में भी ऐसा दृश्य नहीं देखा गया।

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भारत में सड़कों पर लॉन्ग मार्च करते मजदूरों की जो सैकड़ों, हजारों तस्वीरें वायरल हुईं, वे शायद वर्तमान पीढ़ी की स्मृति से कभी लोप नहीं होंगी।

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इस पर चर्चित दलित कवियत्री डॉ. पूनम तुषामड ने ठीक ही लिखा था - ‘विभाजन नहीं देखा मैंने केवल सुना, पढ़ा सुन, पढ़कर ही रूह कांप गयी। किन्तु.. पलायन देख रही हूँ इन आँखों से हर रोज, न केवल शहर से गाँव का बल्कि इन्सानों जीवन का दिलों से अहसास का। दिल दिन में बेबस सा घुटता है। और खौफजदा हो जाता है सोचकर। आने वाली पीढ़ियाँ सिहर उठेंगी पढ़ कर, सुनकर वैसी ही, महामारी? नहीं! पलायन।‘  

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बेबस मजदूरों का सड़कों पर उतरना मोदी सरकार को गंवारा नहीं हुआ था। इसलिए चर्चित पत्रकार सत्येन्द्र पीएस के शब्दों में भारत की सड़कें जालियावालां बाग बन गयीं थीं। पुलिस जगह–जगह उन्हें रोकने लगी थी। फिर तो पैदल चल रहे लोग पुलिस से बचने के लिए राष्ट्रीय राजमार्गों को छोडकर ऊबड़- खाबड़ सड़कों और रेल की पटरियों का सहारा लेना पड़ा था। उसके बाद रोज-रोज कुछ न कुछ लोग दम भी तोड़ने लगे। कुछ भूख-प्यास से तो, कुछ दुर्घटनाओं से।

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इस क्रम में 7 मई को महाराष्ट्र में रेल के पटरियों पर सो रहे 16 लोगों के माल गाड़ी से कटकर मर जाने की एक ऐसे घटना सामने आई जिसे सुनकर पूरा देश हिल गया था। मानवता को शर्मसार करने वाली उस घटना से राष्ट्र को विराट आघात जरूर लगा पर, उम्मीद बंधी कि इससे सबक लेते हुये केंद्र और राज्य सरकारें मजदूरों के घर वापसी की उचित व्यवस्था करने के लिए युद्ध स्तर पर तत्पर होंगी। किन्तु, वैसा कुछ नहीं हुआ। सरकारें कोरी हमदर्दी जता कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली थीं। उसके बाद तो पैदल या साइकल से घर वापसी का सिलसिला और तेज हो गया था।

यह सिलसिला इसलिए भी और तेज हुआ था क्योंकि जो श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलायी जा रही थीं, वह अपर्याप्त साबित हो रही थीं। उस पर भी समस्या यह थी कि इनमें टिकट पाने की प्रक्रिया मजदूरों के बूते के बाहर की बात थी। टिकट मिलना लॉटरी लगने जैसा हो गया था। ऐसे में किसी भी तरह घर पहुँचने की तत्परता और तेज हो गयी थी। ट्रेनों और सरकारी बसों में जगह पाने की उम्मीद छोड़ चुके ढेरों लोग दो-दो, चार-चार हजार रुपए देकर माल ढुलाई करने वाले ट्रकों में सवार होकर असुरक्षित तरीके से वापसी करने लगे थे। ट्रकों में सफर कर रहे मजदूरों के साथ भी दुर्घटनाएँ सामने आने लगी थीं।

इस सिलसिले में 16 मई की सुबह 3 बजे उत्तर प्रदेश के औरैया में हुई सड़क दुर्घटना ने 7 मई के बाद एक बार फिर राष्ट्र को हिलाकर रख दिया था। उस दिन लखनऊ- इटावा हाइवे पर औरैया शहर से करीब छह किमी पहले मिहौली गाँव स्थित शिवजी ढाबे पर खड़ी मजदूरों से भरी एक डीसीएम को ट्राला ने पीछे से आकर जबर्दस्त टक्कर मार दी थी। टक्कर के बाद चूने की बोरियों से भरा ट्राला और डीसीएम करीब 30 मीटर दूर जाकर सात फीट गहरे गड्ढे में पलट गया था। टक्कर से डीसीएम में सोये मजदूर नीचे जा गिरे और उनके ऊपर ट्राले में भरी चूने की बोरियां आ गिरी थी जिससे 26 मजदूरों की मौत हो, जबकि 42 बुरी तरह घायल हो गए थे। मृतकों में तीन उत्तर प्रदेश, एक मध्य प्रदेश, चार बिहार, छह पश्चिम बंगाल, जबकि 12 झारखंड से थे। ये मजदूर दो – दो हजार रुपए देकर उस डीसीएम में सवार हुये थे।

बहरहाल मजदूरों के दुर्भाग्य का यहीं अंत नहीं हुआ था। औरैया हादसे के दूसरे दिन पोस्टमार्टम के बाद शवों को काली पोलिथिन में बांधकर बिना बर्फ और अवश्यक सुरक्षा के तीन डीसीएम में भरकर झारखंड के लिए रवाना कर दिया गया था। इन्हीं शवों के बीच घायलों को बिठा दिया गया था, बिना यह सोचे कि 27-28 घंटे पुराने शवों के बीच 40 डिग्री सेलसियस की गर्मी के बीच ये 800 किमी की दूरी कैसे तय करेंगे।

7 मई को महाराष्ट्र की रेल पटरियों के बाद 16 मई को उत्तर प्रदेश की सड़कों पर हुई उस घटना के बाद लोग मोदी सरकार के लॉकडाउन की टाइमिंग को लेकर आलोचना में फिर मुखर हो उठे थे। सबका कहना था कि लॉकडाउन था तो जरूरी पर, मजदूरों की सुरक्षित घर वापसी की व्यवस्था करने के बाद ही इसकी घोषणा करनी चाहिए थी। लॉकडाउन करने से पहले मजदूरों को कम से कम एक सप्ताह का समय घर पहुँचने के लिए देना चाहिए था। उसके लिए विशेष बस और ट्रेनें चलाई जानी चाहिए थी। अगर लॉक डाउन के पहले मजदूरों के घर वापसी की व्यवस्था कर दी गयी होती तो कोरोना के फैलने की उतनी संभावना भी नहीं रहती, जितनी अब हो गयी है।

बहरहाल प्रधानमंत्री मोदी के लॉकडाउन के फैसले की जो कीमत भारत के श्रमिक वर्ग को अदा करनी पड़ी, वह एक शब्द में अभूतपूर्व रहा, जिसकी मिसाल आधुनिक विश्व में मिलनी मुश्किल है। उनके उस फैसले को ढेरों लोग नोटबंदी की भांति ही तुगलकी फैसला करारा दिए थे।

मोदी का नोटबंदी का वह फैसला एक सुपरिकल्पित निर्णय था, जिसके पीछे कुछेक खास मकसद थे ! पहला मकसद था 5 राज्यों, खासकर यूपी में होने वाले विधानसभा चुनाव पूर्व विपक्ष के धन पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ करना। दूसरा, विदेशों से काला धन लाकर प्रत्येक के खाते में 15 लाख जमा कराने की विफलता को ढंकने के लिए यह संदेश देना कि मोदी भ्रष्टाचार के विरुद्ध पहले की भांति ही दृढ़ प्रतिज्ञ हैं और तीसरा यह कि मोदी कठोर शासक हैं, जो देशहित में कड़े फैसले ले सकते हैं। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुये मोदी ने भाजपा की आर्थिक स्थिति पूरी तरह सुरक्षित रखते हुये नोटबंदी का फैसला लिया था।

नोटबंदी के फैसले से देश भले ही तबाह हुआ, जनता को बेशुमार मुसीबतों का सामना करना पड़ा, पर, मोदी अपना लक्ष्य साधने में कामयाब रहे!

लॉकडाउन के पीछे भी मोदी के ऐसे ही कुछ लक्ष्य रहे हैं। 31 जनवरी को कोरोना का पहला मामला रोशनी में आने के बाद उन्हें इसकी भयावहता का इल्म हो गया था। इसलिए उन्होंने जनवरी से मार्च के मध्य 15 लाख लोगों को विदेशों से भारत बुला लिया। किन्तु, उनके सामने कुछ जरूरी टास्क थे। उन्हें कुछ राज्यों में अपनी सरकार बनाने तथा ट्रम्प का स्वागत करने का पूर्वनिर्धारित टास्क पूरा करना था, जो किया। इन सब कामों को अंजाम देने के मध्य कोरोना बढ़िया से पैर पसारना शुरू कर चुका था, जिसका आभास मोदी को हो गया। खासकर नमस्ते ट्रम्प के भविष्य में सामने आने वाले भयावह परिणामों का उन्हें भलीभाँति इल्म हो गया था। ऐसे में नोटबंदी की भांति ऐसा कुछ स्टेप उठाना जरूरी था, जिससे लगे मोदी भ्रष्टाचार की भांति ही कोरोना के खिलाफ कठोर हैं। और कोरोना के खिलाफ छवि निर्माण की जरूरत ने ही मोदी को 2020 के मार्च 24 की रात 8 बजे चार घंटे की नोटिस एक और नाटकीय घोषणा के लिए राष्ट्र के समक्ष आने के लिए मजबूर कर दिया।

लॉकडाउन की घोषणा के बाद मोदी नोटबंदी की भांति फिर एक बार हीरो बनकर सामने आए, जिसका पता इस बात से चलता है कि उन्होने ताली, थाली के बाद भी कोरोना से लड़ने के लिए जो टोटके आजमाए, अवाम ने बढ़-चढ़ कर साथ दिया।

उधर भारतीय मीडिया उन्हें कोरोना के विरुद्ध युद्ध लड़ने वाला सबसे बड़ा नेता साबित में लगतार जुटी रही। आज भारत में कोरोना पीड़ितों की संख्या 80 लाख पार कर चुकी है, जो साबित करती है कि कोरोना के मोर्चे पर मोदी हीरो नहीं, जीरो साबित हुए।

बहरहाल उनकी हीरोगिरी के शोर तब जाकर विराम लगना शुरू हुआ, जब मंजदूरों के दुर्दशा की हृदय विदारक कहानियों से सोशल मीडिया भरने लगी।

बहरहाल लॉकडाउन के बाद भारत, विशेषकर बिहार के श्रमिक वर्ग की जो दुर्दशा हुई है,वह अतुलनीय है। श्रमिकों के इस दुर्दिन में मोदी सरकार ने जो उदासीनता दिखाई है, वह इतिहास की एक चौंकाने वाली घटना के रूप में दर्ज हो चुकी है। आज सवाल पैदा होता है कि लॉकडाउन के दरम्यान हुई बेनजीर दुर्दशा का हिसाब क्या बिहार के लोग चुकता करेंगे! क्या बिहार के लोग मोदी को इस तरह दंडित करेंगे कि फिर कोई शासक भारत के जन्मजात श्रमजीवी वर्ग के खिलाफ लॉक डाउन जैसी साजिश रचने का दुःसाहस न करे !

-एच एल दुसाध

दिनांक: 1 नवम्बर, 2020

एच.एल. दुसाध (लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.)  

लेखक एच एल दुसाध बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। इन्होंने आर्थिक और सामाजिक विषमताओं से जुड़ी गंभीर समस्याओं को संबोधित ‘ज्वलंत समस्याएं श्रृंखला’ की पुस्तकों का संपादन, लेखन और प्रकाशन किया है। सेज, आरक्षण पर संघर्ष, मुद्दाविहीन चुनाव, महिला सशक्तिकरण, मुस्लिम समुदाय की बदहाली, जाति जनगणना, नक्सलवाद, ब्राह्मणवाद, जाति उन्मूलन, दलित उत्पीड़न जैसे विषयों पर डेढ़ दर्जन किताबें प्रकाशित हुई हैं।

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