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भारतीय कृषि व्यवस्था की रीढ़ हैं महिलाएं, जनांदोलन के कंधे पर चढ़ कर आयी सरकार, जनांदोलनों के विरूद्ध दुश्मनी पर उतरी

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hastakshep
09 Mar 2021
भारतीय कृषि व्यवस्था की रीढ़ हैं महिलाएं, जनांदोलन के कंधे पर चढ़ कर आयी सरकार, जनांदोलनों के विरूद्ध दुश्मनी पर उतरी

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Women are the backbone of the Indian agricultural system: Vijay Shankar Singh

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सौ दिन से चल रहे किसान आन्दोलन की उपलब्धि क्या है | What is the achievement of the farmer movement that has been going on for a hundred days?

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यदि एक शब्द में इस सौ दिन से चल रहे किसान आन्दोलन की उपलब्धि बतायी जाय तो वह है जनता का तंद्रा से उठ खड़ा होना। यानी जाग जाना, जागरूकता। जनता में अपने अधिकारों और श्रम की उचित कीमत के लिये खड़े होने का साहस और निर्भीकता, इस किसान आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि (The biggest achievement of the peasant movement) है।

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एक जन आंदोलन के कंधे पर चढ़ कर आयी यह सरकार, जन आंदोलनों के विरूद्ध दुश्मनी भरा और दमनात्मक रवैया अपना लेगी, यह 2014 के अच्छे दिनों के प्रत्यूष काल में भी सोचा नहीं जा सकता था। पर इस किसान आंदोलन के खिलाफ जिस प्रकार से सत्तारूढ़ दल और सरकार के समर्थक संगठनों ने दुष्प्रचार का माया जाल फैलाया उससे यह आंदोलन और भी परिपक्व हुआ और दृढ़ संकल्पित भी । इस आंदोलन की रिपोर्टिंग करने वाले विभिन्न वेबसाइट्स और युट्यूबर पत्रकार जो दिखा रहे हैं, उनसे यही लगता है फसल की उचित कीमत प्राप्त करने और तीनों कृषि कानून के वापस लेने के संकल्प के लक्ष्य से यह आंदोलन कहीं आगे निकल गया है।

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देशव्यापी हुआ किसान आंदोलन

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यह आंदोलन देश की मौजूदा अर्थव्यवस्था, 2014 के बाद देश मे लायी गयी गलत और जनविरोधी आर्थिक नीतियों, और सरकार के 2014 और 2019 के संकल्पपत्रों में किये गए वादों के पूरा न किये जाने के खिलाफ एक व्यापक अंसन्तोष की अभिव्यक्ति के रूप में मुखरित हो रहा है। अब मसला केवल तीन कृषि कानूनो के निरस्तीकरण तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि यह पूरी आर्थिकी के खिलाफ एक आक्रोश के समान घनीभूत हो रहा है। अब यह आंदोलन, दिल्ली सीमा पर ही केंद्रित नहीं है, बल्कि देश के लगभग हर कोने में धीरे-धीरे फैलता जा रहा है।

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किसान आंदोलन का सच

यह बात भी सच है कि किसान आंदोलन का जो असर पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की तराई में जितना व्यापक है, देश के अन्य भूभाग में अभी उतना असर इस आंदोलन का नहीं है। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जाना चाहिए कि, अन्य जगह के किसान संतुष्ट हैं और उन्हें, उनकी उपज की उचित कीमत मिल रही है। बल्कि सच तो यह है कि, वे अभी पूरे कानून और इनके पीछे छुपी कुत्सित पूंजीवादी इरादों को समझ नहीं पा रहे हैं।

कहने को राष्ट्रवादी लेकिन हैं राष्ट्रघाती

2014 के बाद देश की राजनीति और लोकतंत्र में एक शातिर बदलाव लाया गया है, जो कहने के लिए तो राष्ट्रवादी है, पर वास्तव में वह एक आत्मघाती और राष्ट्रघाती बदलाव है। वह बदलाव नहीं एक एजेंडा है, देश को सांप्रदायिक आधार पर बांटे रहने, धर्म ही राष्ट्र है के मृत द्विराष्ट्र के सिद्धांत (Two-nation theory) के आधार पर राष्ट्रवाद की परिभाषा (Definition of nationalism) थोपने और इतिहास को पीछे ले जाने की एक सोची समझी साजिश का। 2015 में ही, भाजपा सरकार ने 2014 में जो वादे किये थे, उन्हें पूरा करना तो दूर, उसकी बात तक करना छोड़ दिया और निर्लज्जता इतनी कि, सार्वजनिक मंच से ही सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष ने अपने संकल्पों को जुमला कह दिया। जब संकल्प जैसे पवित्र शब्द जुमले और लफ्फाजी के रूप में परिभाषित किये जाने लगें तो उन वादों का क्या हश्र हो सकता है, इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है।

सरकार ने तभी किसानों से भी यह वादा किया था कि, वर्ष 2022 में किसानों की आय दुगुनी हो जायेगी और न्यूनतम समर्थन मूल्य ( एमएसपी ) से जुड़ी डॉ स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को लागू किया जाएगा। पर यह सब भी जुमले सिद्ध हुए और सरकार ने किसानों के हित के नाम पर, पूंजीपतियों के हित मे तीन नए कृषि कानून बना दिये, जिनका विरोध किसान संगठन एकजुटता के साथ कर रहे हैं और अब सरकार की समझ में यह नहीं आ रहा है कि वह इसका समाधान कैसे करे।

इस आंदोलन की एक और बड़ी उपलब्धि है, आंदोलन में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी। खेतों, बगीचों में काम करती हुयी महिलाएं तो बहुत दिखती हैं और ग्रामीण संस्कृति में महिलाओं के श्रम की सक्रिय और प्रमुख भागीदारी भी है, पर अपने अधिकारों के लिए सड़क पर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर अग्रिम पंक्ति में खड़ी हुयी महिलाओं को देखना, एक सुखद परिवर्तन को महसूस करने जैसा है।

ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि जन अधिकार के मुद्दों पर महिलाओं की सक्रिय भागीदारी पहली बार दिखी हो, बल्कि इस के पहले नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध और 2018 में नासिक से मुम्बई तक हुए किसानों के लाँग मार्च में महिलाओं की उत्साह से भरपूर सक्रिय भागीदारी भी दिखी थी। यह तो मैं ज़मीनी भागीदारी की बात कर रहा हूँ। इसके अतिरिक्त सोशल मीडिया पर तो महिलाओं का इस आंदोलन को विश्वव्यापी समर्थन व्याप्त है।

अमेरिका की प्रतिष्ठित पत्रिका टाइम ने इस बार अपने कवर पेज में आंदोलन में शामिल महिलाओं की फ़ोटो छाप कर इस महिला भागीदारी के मुद्दे को विश्वव्यापी बना दिया है।

केवल भारत की महिलाओं की ही बात न करके, यदि पूरे वैश्विक कृषि संस्कृति की चर्चा की जाय तो, हर देश, समाज और खेती किसानी में महिलाओं का योगदान, प्रमुखता से है। दुनिया भर में महिलाओं का कृषि क्षेत्र में योगदान 50 प्रतिशत से भी अधिक है।

बीबीसी में प्रकाशित एक शोध रपट के अनुसार, पूरे विश्व के खाद्य उत्पादन में से आधे उत्पादन का योगदान ग्रामीण महिलाओं द्वारा किया जाता है। यदि हम खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के आंकड़ों का अध्ययन करें तो पाएंगे कि,

"कृषि क्षेत्र में शामिल कुल श्रम में ग्रामीण महिलाओं का योगदान 43 प्रतिशत है, वहीं कुछ विकसित देशों में यह आंकड़ा 70 से 80 प्रतिशत भी है। इनमें एक बड़ी बात यह भी है कि वे चावल, मक्का जैसे अन्य मुख्य फसलों की ज्यादा उत्पादक रही हैं, जो 90 % ग्रामीणों के भोजन का अंश है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि पूरी दुनिया में महिलाएं ग्रामीण और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं के विकास की रीढ़ हैं।"

अफ्रीका में 80 प्रतिशत कृषि उत्पादन छोटी जोत के किसानों से आता है, जिनमें अधिकतर संख्या ग्रामीण महिलाओं की है। उल्लेखनीय है कि, कृषि क्षेत्र में कार्यबल का सबसे बड़ा प्रतिशत महिलाओं का है, मगर खेतिहर भूमि और उत्पादक संसाधनों पर महिलाओं की पहुंच और नियंत्रण नहीं है। हालांकि पिछले 10 सालों में कई अफ्रीकी देशों ने महिलाओं के भूमि अधिकार स्वामित्व को मजबूत करने के लिए नये भूमि कानून को अपनाया है। इस पहल ने कृषि क्षेत्र में ग्रामीण महिलाओं की स्थिति को काफी हद तक मजबूत किया है।

एफएओ की एक रिपोर्ट के अनुसार,

"अफ्रीका के निचले सहारा क्षेत्र और कैरेबियन इलाके में, ग्रामीण महिलाएं, वहां उपजने वाले खाद्य पदार्थों में 80 प्रतिशत तक के उत्पादन में अपना योगदान करती हैं। वहीं, एशिया में वे धान की खेती में 50 से 90 प्रतिशत तक अपने श्रम का योगदान करती हैं। दूसरी तरफ यदि लेटिन अमेरिका की बात की जाय तो, यह आंकड़ा 40 प्रतिशत तक है। हालांकि ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग सभी महिलाएं विशेष रूप से अपने बच्चों के पोषण की जिम्मेदारी वहन करती हैं।"

दुनियाभर में यह एक आम धारणा है कि, स्त्रियों का कार्य क्षेत्र पारिवारिक कार्यों तक ही केंद्रित है और उन्हें आर्थिक व सामाजिक उत्पादन कार्यों से विरत रहना चाहिए। घरेलू महिला या घर की चारदीवारी तक ही महिलाओं की गतिविधियों को सीमित कर के देखने और इसे संस्कृति से जोड़ कर महिमामंडित करने की पितृसत्तात्मक आदत ने, महिलाओं के श्रम, क्षमता, प्रतिभा और ऊर्जा की उपेक्षा ही की है। लेकिन इसके बावजूद, वे मुख्य फसलों की उत्पादक हैं और अपने परिवार के भरण पोषण में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। खाद्य और कृषि संगठन की ही रिपोर्ट के अनुसार,

"सामान्य रूप से ज्यादातर खाद्य उत्पादन वे घर के बगीचे या सामुदायिक भूमि का उपयोग कर के करती हैं। इतना ही नहीं, यह भी देखा गया है कि ग्रामीण महिलाएं अपनी घरेलू आय से एक महत्वपूर्ण हिस्सा खर्च करती आई हैं और यह आंकड़ा पुरुष के अनुपात में एक बड़ा हिस्सा रहा है।"

आश्चर्यजनक रूप से यह प्रवित्ति सार्वदेशिक और सभी समाज में थोड़े बहुत फेरबदल के साथ मिलती है। यह सीमित संसाधनों में खुद को आत्मनिर्भर बनाये रखने की प्रवित्ति का द्योतक है।

एफएओ ने समय प्रबंधन पर भी एक अध्ययन रिपोर्ट प्रस्तुत की है। उक्त रिपोर्ट के आंकड़ों के अनुसार,

"दुनिया के कई क्षेत्रों में महिलाएं प्रतिदिन अपना पांच घंटे का समय ईंधन के लिए लकड़ियों को एकत्र करना, पीने के पानी के इंतजाम और लगभग चार घंटे भोजन की तैयारियों पर व्यतीत करती हैं। इसके बावजूद, ग्रामीण महिलाएं खेती के लिए समय निकाल लेती हैं, और वहां सबसे अधिक श्रम करती हैं। खेती की मिट्टी तैयार करने से लेकर फसल उपजाने तक हर कृषि कार्य मे वे अपना सक्रिय योगदान देती हैं। फसल तैयार होने के बाद ग्रामीण महिलाएं फसल का भंडारण, हैंडलिंग, मार्केटिंग समेत अन्य कार्यों में भी अपना सक्रिय योगदान देती हैं। ऐसे में ग्रामीण महिलायें, पुरुषों की अपेक्षा काम का अधिक बोझ उठाती हैं। अफ्रीका के कुछ क्षेत्रों में ग्रामीण महिलाएं का अपने परिवार में श्रम का योगदान, 60 प्रतिशत तक है।"

भारत में कृषि क्षेत्र में महिलाओं के अहम योगदान का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि कृषि क्षेत्र में कुल श्रम की 60 से 80 फीसदी हिस्सेदारी ग्रामीण महिलाओं की है। इसमें, रोपाई, निराई, कटाई, छंटाई भंडारण आदि महीन कार्य आते हैं। एफएओ द्वारा समय प्रबंधन पर ही, एक शोध परिणाम, जो गांव कनेक्शन वेबसाइट पर कुशल मिश्र के एक लेख से लिया गया है, के अनुसार,

"हिमालय क्षेत्र में एक ग्रामीण महिला प्रति हेक्टेयर / प्रति वर्ष औसतन 3485 घंटे काम करती हैं, वहीं पुरुष का यह औसत 1212 घंटे का है।'

ग्रामीण महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा घंटे काम करती हैं। जबकि महिलाएं कृषि कार्य करने के साथ-साथ घर और बच्चों की देखभाल भी करती हैं। पारिवारिक कार्य अवैतनिक ही होता है।

कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी और उनका महत्व | Participation and importance of women in agriculture

आंकड़ों में देखें तो ओशिनिया में कृषि में महिला कर्मचारियों की संख्या (Number of female employees in agriculture) 69 प्रतिशत है जबकि पारिवारिक कार्यों में लगभग 60 प्रतिशत महिलाएं व्यस्त रहती हैं। उप सहारा अफ्रीका में ये आकड़ा 60,40, दक्षिणी एशिया में 40,55, उत्तरी अफ्रीका में 40,20, पूर्वी अफ्रीका में 38,20 प्रतिशत है।

इस आंकड़े से कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी और उनके महत्व का अनुमान लगाया जा सकता है। इस प्रकार यह प्रचलित धारणा कि, महिलाओं का कृषि में श्रम और समय का योगदान पुरुषों की तुलना में कम है, इन अध्ययनों के आलोक में मिथ्या ही ठहरती है।

कृषि व्यवस्था में महिलाओं का योगदान क्या है | What is the contribution of women in the agricultural system

कृषि व्यवस्था में महिलाओं के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। इतना ही नहीं, कृषि कार्यों के साथ ही महिलाएं मछली पालन, कृषि वानिकी और पशुपालन में भी अपना पर्याप्त योगदान दे रही हैं। महिलाओं को ग्रामीण अर्थव्यवस्था का रीढ़ कहा जाना चाहिए। उन्हें घर औऱ बाहर दोनों ही मोर्चों पर समान रूप से जूझना पड़ता है। विकासशील देशों में तो उनकी भूमिका और महत्वपूर्ण है, लेकिन वहां एक त्रासदी भी है कि, महिलाओं को ज्यादातर मजदूर के रूप में ही समझा जाता है। ज़मीन में उनकी वैधानिक हिस्सेदारी की बात कम ही की जाती है।

इसके अलावा लगभग सभी देशों में कृषि कार्य कर रहीं महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा मेहनताना भी बहुत कम मिलता है। ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादातर महिलाएं खेतों में काम करने के बाद घर का भी काम करती हैं जबकि पुरुष अपना समय मनोरंजन या अन्य कार्यों में खपाते हैं। बावजूद इसके ग्रामीण महिलाओं को बराबरी का हक नहीं मिलता।

ज्यादा कमाई देने वाले उत्पादों में भी आगे हैं महिलाएं

कई देशों में महिलाओं की संख्या 70 प्रतिशत से भी ज्यादा है। केन्या में केले के उत्पादन में 75 प्रतिशत हिस्सेदारी महिलाओं की है। इसी तरह सेनेगल में पैदा होने वाले टमाटर में 60 प्रतिशत, युगांडा के फूलों में 60, साउथ अफ्रीका में पैदा होने वाले फलों में 53 प्रतिशत शेयर महिलाओं का होता है।

मैक्सिको में सब्जियों के उत्पादन में महिलाओं की हिस्सेदारी 90 प्रतिशत है। ज्यादा मेहनत और उत्पादन करने के बावजूद कृषि लायक खेतों का मालिकाना हक पुरुषों के पास ही है। लैटिन अमेरिका में 80 फीसदी जमीन पर हक पुरुषों का है। एशियन देशों में तो स्थिति और खराब है।

एशिया के देशों में जमीन पर महिलाओं का हक 10 प्रतिशत से भी कम है। इसके अलावा तकनीकी और नई शिक्षा के मामलों में भी महिलाओं को बराबर का अधिकार नहीं दिया जा रहा है।

ज्यादातर महिलाओं को न तो खेती के लिए बाकायदा प्रशिक्षण दिया जाता है और न ही बेहतर फसल होने पर उन्हें, उसके योगदान की सराहना ही मिलती है। कृषि प्रसार के वैज्ञानिकों का मानना है कि

"कृषि कार्यों में महिलाओं की बढ़ती संख्या से फसल उत्पादन में बढ़ोतरी हो सकती है। भूख और कुपोषण को भी रोका जा सकता है। इसके अलावा ग्रामीण अजीविका में सुधार होगा, इसका फायदा पुरुष और महिलाओं, दोनों को होगा। इससे ग्रामीण बेरोजगारी भी कम होगी।"

संयुक्त राष्ट्र के भोजन और कृषि संगठन के सर्वे में कहा गया है कि,

"महिलाएं कृषि मामले में पुरुषों से हर क्षेत्र में आगे हैं, बस अधिकारों और सुविधाओं को छोड़कर।"

विकासशील देशों में औसतन कुल कृषि श्रमिक बल में महिलाओं की हिस्सेदारी के आंकड़े जो 43% हैं, सामाजिक और अर्थिकि विषमता के सवाल पर चिंतित करते हैं। वहीं आबादी के अनुसार देश के आर्थिक विकास में कृषि के माध्यम से योगदान देने वाली महिलाओं की बात करें तो लैटिन अमेरिका और कैरेबियन में इनकी संख्या, साल 2010 तक 20 प्रतिशत और नॉर्थ इस्ट अफ्रीका में 41 प्रतिशत, साउथ एशिया में 32 प्रतिशत, पूर्व दक्षिण एशिया में 45 फीसदी और उप सहारा अफ्रीका में सबसे ज्यादा 48 प्रतिशत के आसपास है।

विकसित देशों में आर्थिक रूप से योगदान देने में महिलाओं का प्रतिशत, 38% है, जबकि पुरुष 36 प्रतिशत ही हैं। वहीं उद्योगों में पुरुषों की संख्या 50 फीसदी जबकि महिलाओं की संख्या 42% ही है।

पितृसत्तात्मक समाज होने के बावजूद भी, दुनिया में बड़ी संख्या में ऐसे भी परिवार हैं जिनका नेतृत्व महिलाएं कर रही हैं। मातृसत्तात्मक समाज भी संसार में हैं, जबकि उनकी पहुंच आज भी सीमित है।

अगर गांवों में महिला नेतृत्व वाले परिवारों की बात की जाए तो पूर्वी अफ्रीका के इरीट्रिया में सबसे ज्यादा 43.2 फीसदी, ज़िम्बाब्वे में 43.6, रवांडा में 34, केन्या में 33.8, कॉमोरोस में 31.9, यूगांडा में 29.3, मोजांबिक में 26.3, मालावी में 26.3, तंजानिया 25, मेडागास्कर में 20.6, इथोपिया में 20.1 प्रतिशत है, जबकि मध्य अफ्रिकन देशों गाबोन में 25.4 प्रतिशत, कांगो में 23.4, केमेरून में 22.9, कांगो में 21.8, चाड में 19.1 प्रतिशत है।

हाथ से काम करने के मामले में महिलाओं की संख्या 90 फीसदी है। अफ्रिकन देशों में पैदा होने वाले अनाज का 75 प्रतिशत हिस्सा छोटी जोत के किसानों से आता है। छोटी जोत होने के कारण, इस 75 प्रतिशत पैदावार में मशीनों की मदद नहीं ली सकती है। इतनी फसल पैदा करने में जो समय लगता है उसका 50 से 70 प्रतिशत हाथ से खेती करते की वजह से खर्च होता है। हाथ से की जाने वाले कृषि कार्य में 90 प्रतिशत संख्या महिलाओं की ही होती हैं।

विशेषज्ञों का मानना है कि अगर महिला और पुरुषों में भेद (Difference between men and women) कम किया जाए तो स्थिति सुधर सकती है। अगर अंतर कम किया जाए और कृषि में महिलाओं को बराबर का दर्जा दिया जाए तो खाद्य और पोषण की समस्या को खत्म किया जा सकता है।

महिलाओं के श्रम पर रोजा लक्ज़मबर्ग का उद्धरण | Rosa Luxembourg Quotes on Women's Labor

भारतीय जनगणना 2011 के सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में छह करोड़ से ज़्यादा महिलाएं खेती के व्यवसाय से जुड़ी हैं। देश में प्रमुख कृषि वैज्ञानिकों में से एक डॉ. एमएस स्वामीनाथन ने यह बात रखी थी कि देश में खेती से जुड़े 50 फीसदी से अधिक कार्यों में महिलाएं शामिल हैं। इसके बावजूद भारत में महिला किसानों के लिए कोई बड़ी सरकारी नीति नहीं बनाई गई है। महिलाओं के श्रम पर रोजा लक्ज़मबर्ग का यह उद्धरण महिला श्रम की सारी व्यथा कह देता है,

"जिस दिन औरतें अपने श्रम का हिसाब मानेंगी, उस दिन दुनिया की सबसे बड़ी घोखाधड़ी पकड़ी जाएगी।"

किसान आंदोलन ने दुनियाभर को अपनी संकल्पशक्ति, एकजुटता और अपने लक्ष्य प्राप्ति के प्रति प्रतिबद्धता से प्रभावित किया है। लोग, गांधी के देश में गांधी की हत्या के बहत्तर साल बाद भी, अहिंसक और असहयोग की शक्ति का अनुभव कर रहे हैं। सरकार ने आंदोलन तोड़ने के लिये, आंदोलनकारियों को धर्म, जाति, क्षेत्र आदि खानों में बांटने की कोशिश की, उन्हें खालिस्तानी और अलगाववादी कहा, मुफ्तखोर और दलाल कहा, पर आंदोलन अविचलित रहा और अब वह सौ दिन पार कर आगे भी अपनी जिजीविषा और संकल्पशक्ति से दुनियाभर को प्रभावित कर रहा है।

सरकार ने सड़कों पर दीवारें खड़ी कीं, लोहे की कीलें ठोंकी, इंटरनेट बंद किये पर इन सबका कोई असर इस आंदोलन पर नहीं पड़ा। उल्टे दुनिया भर से लोगों के समर्थन ही मिलें। यह समर्थन उन कृषि कानूनों के पक्ष में है या नहीं यह तो अलग बात है पर सरकार की आन्दोलन से निपटने की अलोकतांत्रिक कार्यवाहियों ने देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी और निजी स्वतंत्रता के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता पर अनेक सवाल खड़े कर दिए और एक बहस छेड़ दी।

दुनियाभर के प्रतिष्ठित अखबारों ने इस पर अपने लेख लिखे और देश मे लोकतंत्र पर संगठित हमले की बात कही। इन सबका असर देश की वैश्विक प्रतिष्ठा पर भी पड़ रहा है।

अब यह समझ लेना चाहिए कि वैश्विक स्तर पर भारत अपनी साख बचाने की समस्या से अचानक रूबरू हो गया है, जिसकी जिम्मेदारी सरकार को लेनी ही होगी।

ज्यादातर पश्चिमी अखबार, जैसे न्यूयॉर्क टाइम्स, ल मांद, वाशिंगटन पोस्ट, गार्जियन, लंदन टाइम्स आदि ने किसान आंदोलन, कश्मीर, फ्री स्पीच, विरोध प्रदर्शन के अधिकार, अल्पसंख्यकों के साथ बर्ताव के रिकॉर्ड को लेकर सरकार की आलोचना की है, और यह क्रम अब भी जारी हैं। यह आलोचनायें अब अखबारों के नियमित और ओपिनियन लेखों तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि महत्वपूर्ण पश्चिमी देशों की सरकार से जुड़े लोगों और जनमत को प्रभावित करने वाली प्रभावशाली शख्सियतों तक पहुंच गई है।

अमेरिकी और ब्रिटिश जनप्रतिनिधि भी इस मुद्दे पर बोल रहे हैं। कारोबारी हस्तियां और सोशल मीडिया सेलेब्रिटी भी इस मुहिम में शामिल हो रहे हैं।

यह कहा जा सकता है कि हम दुनिया की परवाह नहीं करते हैं, लेकिन जिस तरह से यह सब हो रहा है हम इस चपटी होती हुयी दुनिया में, अलग थलग होने की न तो सोच सकते हैं और न ही इसे झेल सकते हैं।

प्रधानमंत्री दुनियाभर में काफी घूम चुके हैं और विदेशी नेताओं से बनाए गए रिश्तों को लेकर वह काफी गर्वान्वित भी रहते हैं। उनकी एक वैश्विक छवि भी थोड़ी बहुत बनी है, जिसे लेकर, उनके समर्थक उनकी छवि ग्लोबल स्टेट्समैन के तौर पर पेश करते हैं, और बार-बार कहते हैं कि, पीएम के कार्यकाल में भारत की वैश्विक साख बढी है। लेकिन, इस आंदोलन के प्रति सरकार के दृष्टिकोण और सरकार द्वारा की गयी प्रशासनिक कार्यवाहियों ने इस छवि को बहुत नुकसान पहुंचाया है। सरकार को चाहिए कि वह दुष्प्रचार और दमन की राह छोड़ कर, मानवीय दृष्टिकोण अपनाये, किसान आंदोलन को खालिस्तानी, अलगाववादी और देशद्रोही कहना बंद करे, उन्हें देशद्रोही के तौर पर पेश न किया जाए. मीडिया और पत्रकारों पर होने वाले हमलों और पुलिस द्वारा की जा रही दमनकारी कार्यवाहियों को रोके, सेडिशन, धारा 124A, राजद्रोह के कानून का दुरुपयोग न करे। जन सरोकारों से जुड़े जन आंदोलनों को जनतांत्रिक उपायों से ही सुलझाया जा सकता है न कि तानाशाही के उन पुराने तौर तरीक़ो से, जो अंततः सत्ता के लिये आत्मघाती ही सिद्ध होते हैं।

विजय शंकर सिंह

लेखक अवकाशप्राप्त वरिष्ठ आईपीएस अफसर हैं।





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