Advertisment

तुम तो बिलकुल हम जैसे निकले ... जिन बातों पर हंसी आती थी, उन पर रोना आ रहा है

author-image
hastakshep
08 Nov 2021
पुलिस-स्टेट की ओर भारत?

Advertisment

आज आर के लक्ष्मण जिंदा होते, तो जरूर ‘वॉलंटरी रिटायरमेंट’ लेते (Had RK Laxman been alive today, he would have taken 'voluntary retirement')

Advertisment

रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ

Advertisment

सेवा में,

Advertisment

आदरणीय मुख्यमंत्री,

Advertisment

महाराष्ट्र राज्य

Advertisment

महोदय,

Advertisment

एक सच्चे हिन्दू के नाते आप से एक अनुरोध कर रहा हूँ। आशा है, आप भी उसी भावना से उस का सम्मान करोगे। यह हिन्दू राष्ट्र है (या बनने की राह पर है) इस आर्य सत्य को अब कोई नकार नहीं सकता। ऐसे राष्ट्र के एक प्रमुख राज्य के मुख्यमंत्री के नाते आप कई बार जनता को संबोधित करते हैं, माध्यमों में अपनी बात रखते हैं या कई लोगों से पत्र व्यवहार करते हैं। ऐसे वक़्त आप यावनी भाषा के शब्दों का प्रयोग टाल कर शुद्ध भाषा में अपनी बात रखें, इस मुद्दे से आप को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। आप के पिता श्री के नाम में यवनी शब्द का उपयोग किया गया है। आप से अनुरोध है कि उसे तुरंत निकाले; कम-स-कम दीवाली, दशहरा, शिवाजी महाराज जयंती जैसे हिन्दू त्यौहारों के समय आप यह सावधानी बरते। उस से जनता को सही संदेश मिलेगा।

विनित,

आप का एक हिन्दू बंधु

ताज़ा कलम (नहीं, पुनश्च) : हम ने इसी तरह आदरणीय भूतपूर्व मुख्यमंत्री महाराष्ट्र राज्य तथा केंद्र और राज्य के कई नेता गण और मंत्रियों से पत्र लिख कर यावनी भाषा से निपजे उन के उपनाम (जैसे कि, फड़नवीस, शाह आदि) बदलने का अनुरोध किया है।

***

सेवा में,

हिंदू राष्ट्र के सभी मिष्ठान्न उत्पादक,

भाईयों,

आप कई वर्षों से मिष्ठान्न का उत्पादन तथा बिक्री कर रहे हैं, इस का हमें हर्ष है। लेकिन, आप को चेतावनी दी जाती है कि भविष्य में आप बर्फी आदि पदार्थ, जो अपनी आद्य संस्कृति का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि यवन देशों से हिन्दू राष्ट्र में लाये गए हैं, उत्पादन, बिक्री तथा प्रचार-प्रसार नहीं करेंगे। क्योंकि उन का सेवन हिन्दुत्व के विरोध में है। (वैसे देखा जाए तो ‘आम’ भी हमारी सभ्यता में शामिल नहीं है, इसलिए ‘आम की बर्फी’ का सेवन अत्यधिक हानिकारक है, ऐसा कुछ तज्ञ व्यक्तियों का मानना है। लेकिन हम भी आप की कठिनाइयों को समझते हैं। हैं ना?) अगले हिन्दू उत्सव तक आप इन पदार्थों का उत्पादन और बिक्री बंद करें। नहीं तो तमाम (नहीं सकल) हिन्दू बांधव आप के उत्पादों का बहिष्कार करेंगे, ऐसी चेतावनी हम आप को अभी से दे रहे हैं। साथ ही साथ, अपने ब्रांड नेम से आप ‘मिठाई’ इस यावनी शब्द को तुरंत हटाएँ। आशा है आप हमारे अनुरोध का सम्मान करेंगे।

आप के उत्पादों की ग्राहक,

एक हिन्दू हितेच्छु भगिनी

(पश्चात लेखन: ‘आम की बर्फी’ के बजाय ‘आम्र मधु वटिका’ नाम से व्यवसाय करने पर बातचीत हो सकती है। कृपया हमारे ‘शांति सैनिक दल’ से संपर्क करें)

***

जाहीर धर्माज्ञा

भारत वर्ष के सभी लेखक, प्रकाशक, मुद्रक, व्यापारी, सरकारें तथा जन सामान्य को सूचित किया जाता है, कि –

1. अपनी भाषा में यावनी शब्दों का प्रयोग करने से धर्म भ्रष्ट होता है। इसलिए निम्नलिखित शब्दों के उपयोग पर रोक लगाई जा रही है। अपने लिखने-बोलने में उन का प्रयोग न करें। उन का प्रयोग कर लिखे गए सभी कथा, कविता, लेख, पुस्तक इत्यादि का बहिष्कार करें। अगर भविष्य में कोई इस आदेश की अवज्ञा करता है, तो उस पुस्तक, लेख आदि की होली की जाएगी (ताकि हिन्दू बांधव यह उत्सव बारहों महिने मना सकें) –

--वकील, तारीख, कैफियत, दाखिल, गुनाह, गुनहगार, हक़ीक़त, खुलासा, चेतावनी

-- मुनाफा, तराजू, बाज़ार, साहूकार, खाता, दुकान, कारख़ाना   

--रास्ता, सड़क, शहर, तहसील, जिला, दरवाजा, दीवार, सब्जी

--पेशवा, सरकार, फौज, गरीब, अर्ज, नकल, हवालदार

--चेहरा, चाँद, मज़ा, शाबाश, आवाज़, खबरदार, तमाशा, होशियार, मस्त, मोहब्बत, नफरत, इश्क़, नज़र, शाम, ख्वाब 

2. निम्नलिखित वस्तुएँ यावनी परंपरा से देश में आई हैं। इसीलिए उन का उत्पाद, बिक्री और उपयोग प्रतिबंधित किया जाता है –

मच्छरदाणी, कागज, लिफाफा, स्याही, बही

-कुर्ता, पैजामा, मोजा, कमीज, सलवार

निम्नलिखित वस्तुएं भी यावनी परंपरा से आयी हैं। लेकिन वे अभी अपने जीवन का हिस्सा बन गई है। इसलिये उन का विकल्प ढूँढा जा रहा है। तब तक उनका उपयोग किये जाने पर प्रतिबंध तो नहीं, पर उन का प्रयोग कम मात्रा में करें –

अगरबत्ती, पानदान, शहनाई, अत्तर, गुलाब, गुलकंद

बादाम, पिस्ता, किसमिस, जलेबी, समोसा, सेब,

(महत्त्व का निर्देश – यावनी शब्द तथा वस्तुओं की यह सूचि केवल उदाहरण के लिये है। उसे समय समय पर अद्यतन किया जायेगा। )

*   *   *   *   *

ऊपर लिखा हुआ मज़मून ‘कुछ भी’ है, अतिशयोक्ति, विपर्यास है, ऐसा कई लोगों को लग सकता है। हम भी अब तक ऐसा ही सोचा करते थे। जिन की सभ्यता की संकल्पना माथे की बिंदी तक सिमटी हुई है, ऐसे ‘अकलमंद’ लोगों के बारे में लिख-बोलकर हम उन का महत्त्व क्यूँ बढाएँ, ऐसा हम सोचते थे। लेकिन आज रोज नई नई घटनाएँ घट रही हैं। कोई स्वनामधन्य नेता उठकर हिंदूधर्म के नाम पर नया फतवा निकालते हैं और हमारा तथाकथित सुशिक्षित मध्यमवर्ग दिमाग बंद कर उन का समर्थन करता है, या चुप्पी साधता है। लंबे समय तक जारी यह सिलसिला देखकर, आखिरकार हम जिस तथ्य को अब तक नकारते आएँ थे, उस से हमारी भेंट हो ही गई....

अपना समूचा समाज आज भयंकर के चौखट पर खड़ा ही नहीं है, बल्कि उस ने उसे लांघ कर भीतर प्रवेश किया है और वह अधोगति और सर्वनाश की दिशा में काफी आगे बढ़ चुका है।

कोई क्या खाए, पहने, लिखे, बोले, पढ़े, इस पर कोई भी ऐरा गैरा उठकर आदेश जारी करता है, और सरकार नाम की व्यवस्था एक तो चुप रहती है, या उस का समर्थन करती है। किसी इश्तेहार में दिवाली शब्द के साथ ‘मुबारक’ जोड़ दिया, तो उस उत्पाद का बहिष्कार किया जाता है। भगत सिंह का साहित्य घर से बरामद हुआ इस कारणवश किसी को आतंकवादी करार कर जेल में भेजा जाता है। ‘गोमूत्र से कोरोना ठीक होता है’, ऐसा मानना अवैज्ञानिक है, ऐसा समाज माध्यमों पर लिखने वाले को कैद किया जाता है। हजारों सालों से जो हिंदु धर्म कई सारी चुनौतियाँ और विदेशी आक्रमणों का मुकाबला कर अपनी जड़ें जमाये खड़ा है, वह अचानक खतरे में आ जाता है। उस की रक्षा के लिये समस्त हिंदू आक्रमक बनें, ऐसा ऐलान किया जाता है। यह फेहरिस्त दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है। जिन बातों पर हंसी आती थी, उन पर रोना आ रहा है। और हर भाषा का रचनाकार इस माहौल में बौखला गया है या भयभीत है।

व्यंग्य, उपहास जैसे समाज को निर्विष करनेवाले साधन आज निष्प्रभ हो चुके हैं, क्योंकि वास्तव और विपर्यास, सुसंगति और विसंगति इन के बीच की महीन लकीर अब मिट चुकी है। कुछ समय पहले मराठी के एक प्रगतिशील लेखक ने व्यंग्य में कहा – “वैसा देखा जाएँ तो समूचे विश्व पर हमारा ही राज था। देखो न, पहले जो हमारा अस्त्रालय था, वह आज ऑस्ट्रेलिया के नाम से जाना जाता है।” परसों श्री श्री जी ने यही बात अपने श्रद्धालु भक्तों के सामने कह कर वाहवाही बटोरी। आज आर के लक्ष्मण जिंदा होते, तो ज़रूर ‘वालंटरी रिटायरमेंट’ लेते। जो लेखक, कलाकार, विचारक रिटायर होने का विकल्प स्वीकार नहीं करते, उन के लिए आज जीना मुश्किल हो गया है। रविश कुमार, कुणाल कामरा, वरुण ग्रोवर, मुनावर फ़ारूकी ये तो चंद उदाहरण हुए। अगर आज प्रेमचंद, हरिशंकर परसाई, धूमिल, पाश आदि अपने बीच होते, तो ट्रोल टोलियाँ उन का जीना हराम कर देती। अगर संभव होता, तो ये ‘नवहिंदु’ संत तुकाराम पर ही पाबंदी लगा देते, जिन्हों ने दखनी भाषा में कहा था,

अल्ला देवे, अल्ला दिलावे,

अल्ला दारू, अल्ला खिलावे,

अल्ला बिगर नहीं कोय,

अल्ला करें सो ही होय.

महाराष्ट्र के महान संत एकनाथ, जिन्हों ने ‘ब्राह्मण तुरक संवाद’ लिखकर दोनों धर्म के मूलभूत एकता को अधोरेखित किया था, जरूर उन के निशाने पर आ जाते।

हिंदु-मुस्लिम एकता के प्रतीक बन चुके संत गुरु नानक, कबीर, रसखान, मलिक मुहम्मद जायसी यह सभी म्लेंच्छ या यवनों में गिने जाते और उन के अस्तित्व को मिटानेकी कोशिश की जाती। (भविष्य में यह नहीं होगा, ऐसा कौन कह सकता है?)

यह सिलसिला ऐसा ही चलता रहा, तो ऊर्दू जबान पर पाबंदी लगाई जायेगी, गज़ल लिखना- गाना यह गंभीर अपराध माना जायेगा। हिंदु कार्यक्रमों में मुस्लिम गीतकार- संगीतकार- गायक की रचनाओं का प्रस्तुतीकरण रोका जायेगा। अमीर खुसरो से लेकर बिस्मिल्ला की शहनाई तक, नौशाद से लेकर ए आर रहमान तक और साहीर से लेकर ईर्शाद कामिल तक सभी फनकारों को ‘मुसलमान’ करार किया जायेगा। ‘मन तडपत हरि दर्शन को आज’ जैसा भजन, जो शकील बदायुनी ने रचा, नौशाद ने संगीतबद्ध किया और रफी जी ने गाया, उसे क्या हम सुन भी नहीं सकेंगे, क्या वह यूट्यूब से हटा दिया जायेगा?

क्या भारतीय सभ्यता के हर पहलू (जैसे कि खानपान, संगीत-नृत्य, भाषा-साहित्य, कला-कारीगरी--स्थापत्य, उत्सव-त्यौहार) से ‘मुसलमानी’ बातें हटाई जा सकती हैं? प्रयागराज में संगम होने के बाद बहनेवाली धारा को फिर से गंगा और जमुना में विभाजित किया जा सकता है?

लेकिन ऐसा करने की जोरदार कोशिश चल रही है। सवाल केवल लेखक और कलाकारों की अभिव्यक्ति की आजादी का नहीं है। इस दिवाली के अवसर पर ‘अपने ही लोगों’ से चीजें खरीदें, और अन्यधर्मीय उत्पादों का बहिष्कार करें, ऐसा आह्वान समाज माध्यमों पर खुलकर किया गया। कुछ लोग तो इस ‘व्रत’ का पालन कईं सालों से करते आयें हैं। अगर उनका हौसला परास्त नहीं हुआ तो यवनों की बेकरी में उत्पादित ब्रेड-बिस्कुट न खायें, यहीं पर यह मामला खत्म नहीं होगा। उत्पादक से विक्रेता तक ‘अपने ही’ लोग जिसमें शामिल हैं, ऐसी शृंखला से सारे उत्पाद खरीदें जाएँ, ऐसा ‘प्यार भरा मनुहार’ किया जायेगा। (‘अपने लोग’ की परिभाषा बदलती रहेगी।) हल्दी घाटी की लडाई में या पानिपत के संग्राम में राना प्रताप या मराठे परास्त हुए ऐसा इतिहास पढानेवाले अध्यापक की खुलकर पिटाई की जायेगी।

मुश्किल यह है, कि जब कोई समूह धार्मिक अतिवाद के शेर पर सवार हो जाता है, तो वह नीचे उतर भी नहीं सकता और शेर उसे चैन से सवारी भी करने नहीं देता। शेर की भूख बढ़ती जाती है, और उसे पूरी करने के लिये नफरत की आग और फैलाकर शेर के लिये नये नये भक्ष्य ढूँढने पडते है। ‘अपना मजहब खतरे में है’, ऐसा जब लोग मान लेते हैं, तब वे अपने आसपास फैलती वाली हिंसा के बारे में खामोश रहते हैं। इस पड़ाव से जहरी सांप्रदायिकता की प्रतियोगिता शुरू होती है। जो ज्यादा नफरत फैलाएगा, ज्यादा ज़हरीली भाषा का प्रयोग करेगा, उसी को नेता माना जाता है। आगे चलकर उस के हाथों में भी परिस्थिति का नियंत्रण नहीं रह पाता। भस्मासुर की तरह अपने निर्माता को नष्ट करने के बाद ही यह सिलसिला थम पाता है। कल यह खलिस्तान के रूप में घटा, आज पाकिस्तान और बांगला देश में यह फिर घटित हो रहा है। वहाँ पर हिंदुओं के साथ साथ सेक्युलर लोग तथा ‘कमअस्सल’ या ‘बाहरी’ मुसलमानों की भी हत्याऐं की जा रही हैं। सांप्रदायिक आतंकवाद का शेर रोज़ नए खून की ताक में रहता है। वह फिर अपने-परायों में फर्क नहीं करता, बल्कि जिसे मारना है, उसे ‘पराया’ घोषित करना यह उस की रणनीति होती है।  

अपने देश में तो पहले से ही कई सारी विभाजन रेखाएँ मौजूद हैं : जाति- उपजाति – प्रांत – भाषा, खानपान की आदतें, भूमिपुत्र बनाम बाहरी आदि। यहाँ पर तो माफिया गैंग भी जाति के आधार पर गठित होती हैं। ऐसे में संप्रदाय के आधार पर शुरू हुआ संघर्ष कब दूसरा मोड लेगा, कहा नहीं जा सकता।

पाकिस्तान और बांगलादेश में आज हिंदू खतरे में है, लेकिन वहाँ के सयाने लोग कई सालों से इस्लामी मूलतत्त्ववाद के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। पिछले वर्ष पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख़्वा इलाके में जमते-इस्लामी के गुंडों ने परम हंस जी महाराज का मंदिर तोड़ दिया। पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश गुलज़ार अहमद ने उसे तुरंत बनाने और जुराने के रूप में 3.30 करोड़ रुपये की राशि अपराधियों से वसूल करने का आदेश दिया। इस वर्ष उसी मंदिर में दिवाली मनाई गयी, जिस में वे खुद उपस्थित रहे। बांगला देश में दुर्गापूजा समारोह पर जब हमला हुआ, तब वहाँ की सरकार, माध्यम और दूर देश में टूर्नामेंट खेलने वाला क्रिकेट टीम का कप्तान – यह सब खुलकर उस के विरोध में खडे रहे। अपने देश में तो ऐसी वारदातों के बाद सन्नाटा छा जाता है।

हम मान कर चले थे कि सहिष्णु, खुला हिंदु धर्म कभी संकीर्ण तथा कट्टरतावादी नहीं बनेगा; क्योंकि यह खुलापन उस के डीएनए का हिस्सा है। शायद यह हमारी भूल थी। सत्तर साल पहले लोहिया ने ‘हिन्दू बनाम हिन्दू’ निबंध लिख कर हमें सचेत किया था कि हिन्दू धर्म के भीतर सदियों से चला आ रहा उदार हिन्दू मत बनाम कट्टरपंथी हिन्दुत्व का संघर्ष अगर हम अंतिम छोर तक नहीं ले गए, तो कट्टरपंथी पूरे धर्म पर हावी हो जाएंगे। लेकिन हम ने उन की बात भुला दी। अयोध्या, मुजफ्फरपुर और गुजरात के बाद भी हम नहीं जागे। आज हिन्दुत्व के पक्षधर हमें तालिबान और आयसिस के पदचिह्नों पर चलने के लिए उकसा रहे हैं और हम जाने-अनजाने उस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। हमें इस बात का अंदेशा नहीं है, लेकिन हमारे भुक्तभोगी पड़ोसी हमें और हमारे हालातों को ज़्यादा खुली नजरों से देखते-परखते आये हैं। शायद इसीलिये पाकिस्तान की कवयित्री फहमिदा रियाज़ कहती हैं -

बहुत मलाल है हमको,

लेकिन हा हा हा हा हो हो ही ही,

कल दुख से सोचा करती थी,

सोच के बहुत हंसी आज आई

तुम बिलकुल हम जैसे निकले,

हम दो कौम नहीं थे भाई

.......................

मश्क करो तुम, आ जायेगा

उल्टे पावों चलते जाना

हम तो है पहले से वहाँ पर

तुम भी समय निकालते रहना,

अब जिस नरक में जाओ, वहाँ से

चिठ्ठी विठ्ठी डालते जाना.

अब हम इस नरक की ओर प्रस्थान करें या उदार हिंदू धर्म और सर्व धर्म समभाव का रास्ता चुने, यह हम सभी को मिलकर तय करना है।

रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ The author is a practitioner and activist of the inter-relation of sociology

रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ

The author is a practitioner and activist of the inter-relation of sociology

Advertisment
सदस्यता लें