एय तारीख़ तुझे
कौन सी भट्टी में झोंक दूँ ?
कौन सी कब्र में दफ़्न करूँ ?
महल की कौन सी दीवार में चिनवाऊँ ?
किस अंधे कुएँ में धकेलूँ
किस ईंट से मुँह कुचलूँ
किस कच्ची कंध के साये में धोखे से बिठा दूँ,
कि दरके दीवार और तू धँस जाये
वुज़ूद मिट जाए तिरा
सामने पड़े ना
ये मनहूस चेहरा
उस रोज तेरे साथ गये दिन में,
सर का साया गया,
आँखों के सब ख़्वाब बलें,
आँसुओं से बुझाया गया।
अरमान मरे,
हुड़क मरी,
बची जिदें हैं डरी-डरी।
वो शहर अब उमंग नहीं जगाता,
बचपन वाला घर,
सपनों में नहीं आता।
वो दहलीज़ जहाँ,
ख़ुशियों के पल होते थे दूने,
पैर तलक नहीं पड़ते,
ऐसा क्यूँ किया तूने ?
सजदे में सर नहीं झुकता,
चराग़ों पर मन नहीं रुकता।
बरस बीत गया
मगर तू
फिर वैसे ही अड़ा है,
सुबह से ही जेठ की दुपहरिया सा चढ़ा है,
तेरी तपती ज़मीं पर,
फिर से नंगे पाँव खड़ी हूँ
....मैं ...
घाम से निचड़ी बूँदे हैं कि
मौसम को बदलती ही नहीं,
देख तो !
रात का दो बजा है,
और अब तलक जारी है,
तेरी धूप के तक़ाज़े....
- डॉ. कविता अरोरा
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डॉ. कविता अरोरा (Dr. Kavita Arora) कवयित्री हैं, महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाली समाजसेविका हैं और लोकगायिका हैं। समाजशास्त्र से परास्नातक और पीएचडी डॉ. कविता अरोरा शिक्षा प्राप्ति के समय से ही छात्र राजनीति से जुड़ी रही हैं।