रणेन्द्र के दूसरे उपन्यास "गायब होता देश" पर आलोका की प्रतिक्रिया
आलोका
गायब होता देश रणेन्द्र के दूसरी किताब है। इस उपन्यास में उन्होंने झारखण्ड के मूल रूप से जमीन के संघर्ष को साहित्य के दुनिया में पिरोने का काम किया है। इस उपन्यास में झारखण्ड के लोक संस्कृति की खुशबू के साथ झारखण्ड के अन्दर चल रहे जमीन के संघर्ष को उपन्यास ही नहीं समाज में अलग अलग विधा के साथ नैतिक रूप से लोगों की कला को भी जगह दी गयी है। यही नहीं तकनीकी क्रांति से ब्लॉग की दुनिया का सामावेश हुआ है यानि कि साहित्य अब किताब नहीं, तकनीकी दुनिया और इंटरनेट के माध्यम से अपने रचना पर चर्चा की गयी है। झारखण्ड के लिए यह गौरव की बात है कि हिन्दी साहित्य की दुनिया में आदिवासी संघर्ष ही नहीं बल्कि स्त्री के संघर्ष को, जमीन के संघर्ष के साथ प्रमुखता से कलमबद्ध किया है। यह उपन्यास झारखण्ड की औरतों की ताकत को प्रेरित करता है। इस उपन्यास में सबसे खास बात है कि एक खास शब्द स्त्रीथर्त शब्द का प्रयोग किया गया जिसे मैंने अब तक पुरूषार्थ का शब्द से परिचत हुई थी लेकिन स्त्रीथर्त से मेरी मुलाकात पहली बार हुई। इसके लिए रणेन्द जी धन्यवाद के पात्र हैं। उन्होंने इस शब्द का प्रयोग कर स्त्रियों के सम्मान को और उंचा उठाने का प्रयास किया है।
मुझे रणेन्द्र जी की रचना इसलिए पसंद है कि वग अपनी कहानी में स्त्री और आदिवासी समाज को मजबूत पात्र के रूप में स्थापित करते हैं। उनकी जितनी भी रचनाएं हैं उसमे स्त्री कमजोर काया कभी नहीं रही है इसलिए मैं इनके सारी रचना को पढ़ना पंसद करती हूं, समीक्षा लिखना अलग बात है।
गायब होता देश में आदिवासी समाज और झारखण्ड के मुण्डाओं का देश के अन्दर के चल रहे तमाम द्वंद्व को दरशाता है, जहां आदिवासियों ने 1967 - 70 में भूमिज आंदोलन से शुरू कर 1901 के बिरसा मुण्डा का उलगुलान तक जो खून बहाए थे, उस पवित्र खून के कतरो से सींच कर एक कानून बना था ‘आदिवासी काश्तकारी कानून’, इससे आदिवासी जमीनों को सुरक्षित कर दिया गया। वे गैर- आदिवासियों को बेची नहीं जा सकती थी। जिला कलेक्टर को संरक्षण की जिम्मेवारी सौंप गई थी। लेकिन हर सरकार कानून की तरह इसमें भी कई अगर- मगर लेकिन .... परन्तु लगाते पूर्व जमींदार ने 1947 के पहले हुकुमनामा जारी करके आदिवासी विकास से समर्पण - सरेंडर का कागज प्राप्त कर लिया हो उसे गैर आदिवासी को ट्रांस्फर किया हो... यह था भयानक वायरस’’ जैसे घटनाओं को फोकस करते हुए लिखा गया जो झारखण्ड के आज भी प्रासंगिक है। आज भी झारखण्ड में जमीन का संघर्ष और सरकार की कार्यवाही साफ झलकती है। इस उपन्यास ने जमीन के सवाल को अच्छी तरीके से उठाया है।
यह सिर्फ सरकारी सवाल नहीं है कि मुण्डा समाज के या आदिवासी समाज की जमीन पर मालिकाना हक के सवाल पर भी चर्चा की गयी है कि हम मुंडाओं में बेटियों को जमीन देने का चलन नहीं है। यहां समाज में स्त्री पुरूष के बीच भेद दिखता है वही वर्चस्व में ‘‘ नीरज के खादनदान की रैयती जमीन थी। सुतियाबें से एदलहाते जाने के क्रम नीरज को पूर्वजोने मदुकम टोला को बसाया था। मुंडा राजा मदराय मुण्डा के बाद नागवंशी फणिमुकुट के राज को कमई मुण्डा परिवारें ने स्वीकार नहीं किया और सुतियांबे छोडकर निकल यगे थे। जहां राजा की प्रथा थी यानि आदिवासी समाज भी पुरूष प्रधान समाज रहा है। राजाओं ने किस तरह अपने आगे किसी की प्रधानी नहीं स्वीकार की।
गायब होता देश उपन्यास में महिला पात्र सोनामनी के जमीन का आंदोलन करती है। वह कही समझौता नहीं करती है और काफी कर्मठता के साथ आदिवासी जमीन को बचाने के लिए आंदोलन करती है। यह आंदोलन झारखण्ड में ही संभव है। दूसरे राज्यों में जो आदिवासी इलाका नहीं है, उन राज्य के अन्दर महिला आंदोलन के नेतृत्व के रूप में गैर आदिवासी इलाकों से एक भी नाम नहीं आया है। अब तक यह झारखण्ड के अन्दर ही संभव है। गैर आदिवासी राज्य के अन्दर संभव नहीं है। आदिवासी समाज में जहां-जहां जमीन या समाज के किसी तरह का संकट आता है स्त्री ही मजबूती से खड़ा होती है। जबकि बांध बना कर उपन्यास में प्रतिबिंवित कर रहे हैं, लेकिन यह एक मजबूत स्त्री को दर्शाता है। रणेन्द जी के दूसरे उपन्यास गायब होता देश में भी स्त्री को काफी मजबूत और जूझारू रूप से दर्शाया गया है। यही नहीं वर्तमान समय में आदिवासी स्त्री स्वयं के वर्ग पर विचार करती है जहां चटाई पर सो कर स्त्री ने अपने स्थिति पर चर्चा की है। मतलब है कि आदिवासी समाज की स्त्रियां अपने को गैर बराबरी मानती है।
इन्होंने जमीन के आंदोलन को स्थानीय नेता, खेमे में बँटते आंदोलन की स्थिति को रेखांकित किया है कि कैसे सरकार और राजनीति के माध्यम से जमीन को लेकर विवाद बनाये रखना और अपने अपने झंडा को ऊँचा करते रहे हैं।
इस उपन्यास में सांवली और बैजनी रंग की जबर्दस्त चर्चा की गयी। जिसमें आदिवासी समाज में सांवलापन ने कही न कहीं चरका यानि की गोरा रंग के खिलाफ यह युद्ध को चुनौती दी है। यह भी गैर आदिवासी समाज के बस की बात नहीं है। तकनीकी युग में जिस तरह बाजार और विज्ञापन स्त्रियों के सामने गोरा होने के कई क्रीम को ला कर खड़ा किया है वहीं यह समाज संवाला और बैजनी रंग को अपने ताकत मानता है।
रणेन्द्र जी ने गायब होता देश में दो संस्कृति और झारखण्ड के स्थानीय भाषा के कई शब्दों को साहित्य में प्रयोग किया है। चूँकि हिन्दी जगत में मुण्डारी, नागपूरी, कुडूख के स्वाद के साथ इतिहास को क्रमबद्ध तरीके से बताते चले गये हैं, जो उपन्यास की बड़ी खासियत है। जहां तक मुझे मालूम है, लेखक हिन्दी भाषा-भाषी है लेकिन इस उपन्यास में मुण्डारी शब्दों का जबर्दस्त प्रयोग किया है। इसके लिए उन्होंने गहन जानकारी इकट्ठा की होगी तभी अपने पाठक तक मुण्डारी भाषा को भी साहित्य में जगह दी है। यहीं नहीं पूरे झारखण्ड के गायब होते मुण्डाओं के देश को अपने उपन्यास में जीवित कर दिया है।
आलोका। लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता व स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। कई फेलोशिप एवं झारखण्ड सरकार द्वारा शोध में प्राप्त एवार्ड साथ ही भारत के महिला आंदोलन से जुड़ी जूडाव, झारखण्ड में विस्थापन आंदोलन के साथ जुड़ाव