प्रो. ग्रोथ से प्रो. बिजनेस तक-बदले मुखौटों के पीछे वही ढाक के तीन पात-3
ये पीपीपी के पैरोकार !
कमल नयन काबरा
लगता है राजग दो सरकार भी निजी सार्वजनिक साझीदारी (पीपीपी) के जरिए अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के ख्वाब देख रही है। यहाँ तक कि चालू सरकारी स्कूलों तक को व्यापारी वर्ग को सौंपने की तैयारी हो रही है। राज्य के साथ मिलकर अब बड़ी-बड़ी विशाल पूँजी तथा वित्त जुटाने में समर्थ तबके आर्थिक और सामाजिक भूमिका के केन्द्र में होंगे। परन्तु सरकार भूल रही है कि पीपीपी की बेहिसाब बढ़ोत्तरी ने आय और सम्पत्ति के केन्द्रीयकरण रूपी कुप्रभावों को बढ़ाया है। इससे सामाजिक राजनैतिक शक्ति के वितरण में भी विषमता का दंश बढ़ा है।

गृहस्थ, बैंक तथा वित्तीय क्षेत्र की बचत को उधार लेकर बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ राज्य के अधिकारों पर काबिज होती हैं। सरकार ने शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात संचार आदि सार्वजनिक सेवाओं को पूर्णतः निजी हाथों में दे दिया है। इस तरह की निजी दुकानों ने सामाजिक समस्याओं की जड़ों को पहले ही अतिरिक्त मजबूती दे दी है। शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र के साम्यकारी रूप से अर्द्धशिक्षित, निजी शिक्षक और व्यापारी कुलपति अपने पैरों तले कुचल रहे हैं। चिकित्सा के नाम पर निर्धन की सम्पत्तियों की कुर्की हो रही है। सरकार ने अपने बजट में इन असमानताओं को दूर करने के कोई प्रयास नहीं किए हैं, बल्कि इन्हें प्रोत्साहित ही किया है।

लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार भी पूँजीपतियों के हाथों का खिलौना प्रतीत होती है। सारे विकल्प नागनाथ और साँपनाथ के बीच चयन तक सिमट जाते हैं। गैर बराबरीमय भूमंडलीकरण इन असमानताओं को आगे बढ़ाता है।

सामाजिक सुरक्षा के लिए बीमा व्यवसाय में भी तेज मुनाफे खोजे जा रहे हैं। इसके लिए हवा के झोंकों की तरह इधर उधर भागती सट्टोरी विदेशी वित्तीय पूँजी को बड़ी भूमिका दी जा रही है। कराधान, कर कानूनों में छिद्र, उनकी उपेक्षा तथा कर कानून और प्रशासन में रिश्वतखोरी से पूँजीपतियों को बच निकलने के कई रास्ते मिल जाते हैं। इन मुट्ठी भर लोगों का राष्ट्रीय आय, सम्पत्ति और सुविधाओं के अकल्पनीय बड़े भाग (लगभग 60 से 70 प्रतिशत तक) पर कब्जा सा हो गया हैं। हमारे आर्थिक वित्तीय नीतिगत सोच पर पश्चिमी देश और उनके द्वारा चयनित स्थानीय पंडितों ने पूरी तरह कब्जा कर रखा है। हम भूल गए हैं कि वर्ष 2008 में धनी पश्चिमी देशों की आर्थिकी कैसे धाराधायी हुई थी। फिर जन धन की बलि चढ़ाकर उसे उबारा गया था। अफसोस कि पिछले 67 सालों से हर बजट की प्रकृति विषमता वर्धक रही है। लोकतांत्रिक शासक बदल रहे हैं। शासक वर्ग का ब्राण्डनेम बदल रहा है लेकिन असमानता बदस्तूर जारी है। नई सरकार यदि शिक्षा, स्वास्थ्य, सही खान पान, पर्यावरण तथा छोटे उद्योगों के संरक्षण पर ध्यान दे, गरीबों की जमीन को पूँजीपतियों के हाथों से बचाए तो उनके जीवन के कष्ट कम हो सकते हैं। सबके विकास से ही मजबूत अर्थव्यवस्था की परिकल्पना की जा सकती है।

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