सामंती ताकतों के ’हरम’ में फंसती पंचायतें
सामंती ताकतों के ’हरम’ में फंसती पंचायतें
उत्तर प्रदेश में आने वाले कुछ ही दिनों में ग्राम और जिला पंचायत के चुनाव होने वाले हैं। प्रशासनिक मशीनरी जहां निर्वाचन क्षेत्रों के आरक्षण, परिसीमन तथा मतदाता सूची के संशोधन के काम में दिन-रात लगी हुई है वहीं दूसरी ओर, कई प्रत्याशियों द्वारा चुनाव प्रचार पूरी भव्यता से शुरू किया जा चुका है। सोशल मीडिया, एसएमएस, व्यक्तिगत संपर्क के साथ विजटिंग कार्ड बांटकर प्रत्याशी अपने पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश करते हुए देखे जा सकते हैं। चूंकि इन चुनावों में राजनैतिक दल सीधे भाग नहीं लेते लिहाजा सड़क, नाली, राशन, वृद्धा पेंशन, विधवा पेंशन, इंदिरा आवास, विकास जैसे स्थानीय सवाल ही इनके विषय होते हैं। प्रत्याशियों द्वारा एक ओर जातिगत नजदीकी, बिरादरी और रिश्तेदारी जोड़कर मतदान समीकरण अपने पक्ष में करने की कोशिशें चल रही हैं तो दूसरी ओर जो इस समीकरण में सेट नहीं हो रहे या विपक्षी खेमे में शामिल हैं, उन्हें फर्जी मुकदमे में फंसाने से लेकर चरित्र हनन कराने तक के प्रयास तक किए जा रहे हैं। यही वजह है कि इन दिनों ग्रामीण इलाकों में फर्जी मुकदमों की बाढ़ सी आ गई है।
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ग्राम सभा और जिला पंचायत के निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन और आरक्षण निर्धारण की अंतिम आधिकारिक घोषणा अभी तक नहीं की गई है लेकिन, इसके बावजूद कई जगहों पर प्रत्याशियों द्वारा जिस जोर-शोर के साथ चुनाव प्रचार किया जा रहा है, उसने कई सवाल पैदा किए हैं।
पहला सवाल तो यही है कि जब यह निर्धारित ही नहीं है कि किसी निर्वाचन क्षेत्र से किस जाति वर्ग के प्रत्याशी को चुनाव लड़ने की अनुमति होगी, उस क्षेत्र का आरक्षण स्वरूप क्या होगा, फिर इन प्रत्याशियों द्वारा क्षेत्र विशेष में किस आधार पर यह चुनाव प्रचार किया जा रहा है? प्रचार में इतने पैसे क्यों खर्च किए जा रहे हैं? क्या यह प्रचार केवल स्वान्तः सुखाय है? इस प्रचार के पीछे की असल राजनीति क्या है और ग्रामीण समाज के सामाजिक ताने-बाने को यह किस तरह से प्रतिबिंबित करता है इसके विश्लेषण की जरूरत समय की मांग और लोकतंत्र के हित में है।
मैंने अपने हालिया चुनावी दौरों में यह देखा कि चुनाव प्रचार में शामिल प्रत्याशियों में ज्यादातर सवर्ण और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से हैं। उत्तर प्रदेश में यह समाज मजबूत सामाजिक-आर्थिक आधारों वाला है। जहां तक मैं समझ पाया, ये प्रत्याशी दो आधार पर चुनाव प्रचार कर रहे हैं। पहला यह कि या तो ये प्रशासन में इतनी ज्यादा पहुंच रखते हैं कि चुनाव प्रचार वाले क्षेत्र का परिसीमन-आरक्षण अपने पक्ष में करवा लेंगे, कायदे कानून चाहे कुछ भी हों। दूसरा यह कि संबंधित निर्वाचन क्षेत्र में आरक्षण और परिसीमन का स्वरूप आने वाले चुनाव में चाहे जिस जाति वर्ग के पक्ष में खड़ा हो, इन प्रत्याशियों के पास संबंधित जाति वर्ग से एक ’मोहरा’ मौजूद है। अभी वह मोहरा इनके साथ एक कदम पीछे चल रहा है। परिस्थिति बदलने पर वह आगे चलेगा। उससे इनके वर्चस्व में कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
प्रतापगढ़ के एक इलाके में जिला पंचायत सदस्य पद के लिए प्रचार कर रहे एक बाहुबली सवर्ण से जब मैंने यह सवाल किया कि अभी आरक्षण की घोषणा हुई ही नहीं है तब आप किस आधार इस निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव प्रचार कर रहे हैं? उनके उत्तर चौंकाने वाले थे। उसका कहना था कि अपने ’गैंग’ में ओबीसी से लेकर एससी और एसटी तक सभी चेहरे हैं। अगर परिसीमन में निर्वाचन क्षेत्र आरक्षित होता है तो भी हमें कोई दिक्कत नहीं आएगी। क्योंकि जो व्यक्ति मेरी जगह पर चुनाव लड़ेगा वह अपना ही आदमी होगा और हमारे साथ इस समय चुनाव प्रचार में भी साथ है। इसका सीधा मतलब यह है कि अगर कोई दलित या पिछड़ा जिला पंचायत या ग्राम पंचायत का चुनाव जीत भी जाए तो भी वह इन्ही सामंती ताकतों के हाथ का खिलौना होगा। वह पूरे पांच साल केवल एक रबर स्टैंप की तरह सामंती ताकतों के हाथों इस्तेमाल होगा।
सच तो यह है कि ग्राम पंचायतों के निर्वाचित ग्राम प्रधान अपनी कुल संख्या का 80 प्रतिशत तक सवर्ण सामंती ताकतों के हाथों का खिलौना होते हैं। दूसरे शब्दों में वे केवल ’गुलाम’ होते हैं जो केवल इशारे पर काम करते हैं।
दरअसल हाल के वर्षों में ग्राम और जिला पंचायतों में विकास के नाम पर जो अथाह धन आया है उसे निपटाने और हड़प जाने की कोशिशों ने पंचायती चुनावों को एकदम विषाक्त बना डाला है। इस अथाह धन पर कब्जे की होड़ में बाहुबली और सामंती किस्म के लोगों के नेतृत्व में एक ही क्षेत्र में कई ’गैंग’ बन गए हैं। जो गैंग चुनाव जीत जाता है वह पंचायत से मिलने वाले लाभों को पांच साल खाता है। इस धन को हड़पने की यह राजनीति इस हद तक हिंसक हो गई है कि चुनाव के बाद छह माह तक चुनावी दुश्मनी निकाली जाती है, हत्याएं होती हैं। आम ग्रामीण परिवार जो इस गैंग में सेट नहीं हो सकता उसके हिस्से में कुछ आता भी नहीं है।
कुल मिलाकर पंचायती राज अधिनियम द्वारा गांवों में लोकतंत्र और निर्णयों में जन भागीदारी बढ़ाने का प्रयास सामंती ताकतों के कुचक्र में फंस गया है। आज पंचायतें जिस रूप में काम कर रही हैं वह बहुत ही निराशाजनक है। उससे बेहतर तो यही है कि ये नष्ट हो जाएं। ये पंचायतें अपने समाज के लिए कुछ भी सृृजनात्मक नहीं कर रही हैं।
वास्तव में इस अराजकता के लिए हम पंचायतों को पूरी तरह दोषी भी नहीं ठहरा सकते। हमारी पूरी राजनीति ही कौन सा सृजनात्मक कार्य कर रही है? वास्तव में अर्थव्यवस्था और राजनीति की अराजकता तथा उसका संकट समूचे समाज में प्रतिबिबित होता है। राजनीति में जिस किस्म की अराजकता पैदा हुई है उसका एक छोटा सा प्रतिबिंब ग्राम और जिला पंचायत के चुनाव में भी दिखता है। अगर संसद में बड़े धन कुबेरों-घोटालेबाजों और अपराधियों का कब्जा है तो पंचायतों पर छोटे धन कुबेर और सामंत काबिज हो रहे हैं। आम आदमी के लिए हमारी राजनीति ने किसी भी स्तर पर कोई जगह नहीं छोड़ रखी है। वही हाल ग्राम पंचायतों का भी है। अगर हम पंचायतों को जनोन्मुखी देखना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें देश की राजनीति जनोन्मुखी बनाना होगा। क्या इसके लिए हम तैयार हैं?
हरे राम मिश्र


